शिक्षक द्वारा ईजाद की गई शिक्षण की नई पद्धति और उस पर आधारित कुछ गतिविधियां बच्चों के बीच सांस्कृतिक तौर पर कायम दूरियों को मिटा रही है. यही वजह है कि यहां आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदाय के बच्चों में कायम असहजता धीरे-धीरे दूर हो रही है.
इसलिए, वे अब पढ़ाई से लेकर खेलकूद और स्कूल के कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों में परस्पर एक-दूसरे के सहयोग से काम कर रहे हैं. साथ ही, समय के साथ उनके आपसी संबंध भी मजबूत हो रहे हैं.
बात हो रही है महाराष्ट्र में कोंकण के जनजाति अंचल में एक सूदूर गांव के प्रधानाध्यापक ज्ञानेश्वर उतेकर की. यह रायगढ़ जिला मुख्यालय अलीबाग से करीब 120 किलोमीटर दूर तहसील पोलादपुर के जिला परिषद प्राथमिक मराठी स्कूल चांभारगणी में पदस्थ हैं.
ज्ञानेश्वर का मानना है कि समाज में यदि कई तरह के भेदभाव हैं तो एक शिक्षक की जिम्मेदारी है कि वह स्कूल परिसर में हर तरह के भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करें. इसलिए, ज्ञानेश्वर बाल-केंद्रित और बाल मित्रता पर आधारित शैक्षणिक दृष्टिकोण के सहारे अपने स्कूल के सभी बच्चों के मन में एक-दूसरे के प्रति सम्मान, समानता और भाईचारा बढ़ाने के लिए कार्य कर रहे हैं. इसके लिए उन्होंने बच्चों को ‘मनुष्य मनुष्य एक समान’ का विचार दिया है.
करीब साढ़े तीन सौ की जनसंख्या वाले चांभारगणी में अधिकतर मराठा, आदिवासी और घुमन्तु व अर्ध-घुमन्तु समुदाय के परिवार हैं. आमतौर पर ये परिवार छोटे किसान, मजदूर और मछली पालक हैं. वर्ष 1956 में स्थापित इस स्कूल में प्रधानाध्यापक सहित कुल तीन शिक्षक-शिक्षिकाएं हैं. यहां कुल 36 बच्चों में 19 लड़कियां और 17 लड़के हैं. इनमें एक तिहाई से अधिक आदिवासी तथा घुमन्तु व अर्ध-घुमन्तु समुदाय के बच्चे हैं.
महज एक वर्ष में आया परिवर्तन
अन्य शिक्षक बताते हैं कि एक वर्ष पहले हर कक्षा की बैठक व्यवस्था में अक्सर आदिवासी बच्चे गैर-आदिवासी बच्चों से अलग बैठते थे. इसी तरह, दोपहर में भोजन के दौरान भी वे अलग-अलग स्थानों पर अपने-अपने गुट में बैठकर खाना खाते थे. बात चाहे पढ़ाई-लिखाई की हो या खेलकूद सहित किसी समारोह की, बच्चों के दो गुट साफ नजर आते थे.
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ज्ञानेश्वर के मुताबिक, ‘ऐसा नहीं है कि हम उन्हें एक साथ पढ़ने, खेलने और खाने के लिए नहीं कहते थे. लेकिन, फिर भी वे खुद से एक-दूसरे के साथ ज्यादा देर तक अच्छी तरह से घुलते-मिलते नहीं थे. हालांकि, वे आपस में एक-दूसरे से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते थे, फिर भी दोनों वर्गों के बच्चों की बोलियों और रहन-सहन में अंतर होने के कारण वे एक-दूसरे के साथ सहज नहीं हो पा रहे थे.’
ऐसी स्थिति में स्कूल के शिक्षक-शिक्षिकाओं को लगता कि दोनों वर्गों के बच्चों के बीच सहज संबंध स्थापित नहीं हुए तो इसका नकारात्मक प्रभाव स्कूल की शैक्षणिक प्रगति पर बना रहेगा और बच्चों की सीखने की प्रक्रिया में अपेक्षा के अनुसार सुधार नहीं लाया जा सकेगा.
फिर शिक्षक ने बदली अपनी रणनीति
अगस्त, 2019 ने शिक्षक के कुछ सत्र आयोजित किए. इन सत्रों में अपनाई गई शिक्षण पद्धति और कई गतिविधियों के परिणाम दोनों वर्गों के बच्चों के व्यवहार में दिखाई देने लगे. ज्ञानेश्वर बताते हैं कि उन्हें अपने अनुभवों और प्रयासों से आदिवासी और गैर-आदिवासी परिवारों के बच्चों के बीच की दूरी कम करने का एक रास्ता मिला. यही वजह है कि उन्होंने ‘मैं और मेरी क्षमताएं’ से संबंधित विषय पर आयोजित गतिविधियों के दौरान विशेषकर आदिवासी बच्चों को उनकी बोली में बोलने के लिए प्रोत्साहित किया. दूसरी तरफ, इस तरह के अभ्यास से गैर-आदिवासी बच्चों को भी नए-नए शब्द सुनने और उनके अर्थ जानने का मौका मिला.
वहीं, अधिकतर गतिविधियों के अंत में एक महत्त्वपूर्ण बात यह होती है कि इनमें बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए बच्चों से ही तालियां बजवाई जाती हैं. इस दौरान आदिवासी और गैर-आदिवासी बच्चों को आपस में एक-दूसरे के साथ लाने के लिए उन्हें अलग-अलग जोड़ियों या समूहों में रखा गया. जब वे एक-दूसरे के सहयोग से मिलकर कार्य पूरा करते तो अन्य सभी बच्चे उनकी प्रशंसा में तालियां बजाते.
दोनों वर्गों के ज्यादातर बच्चों के व्यवहार को बदलने के लिए कुछ और गतिविधियां सहायक सिद्ध हुईं. ज्ञानेश्वर ने ऐसी गतिविधियों की एक लंबी सूची तैयार की है. इनमें शामिल हैं: ‘आओ सबका सम्मान करें’, ‘मेरे दोस्ते’, ‘सच्चे दोस्त’, ‘नए दोस्त बनाना’, ‘हम कैसे अलग और समान’, ‘मेरा जोड़ीदार’, ‘हमारा स्कूल’, ‘अच्छा और बुरा व्यवहार’, ‘धन्यवाद दोस्त’, ‘अच्छा मित्र कौन?’, ‘सहयोग’, ‘सहयोग की कहानी’, ‘हमारी असमानताएं, हमारी समानताएं’, ‘दुनिया के बच्चे’, ‘परस्पर निर्भरता’, ‘विविधता में एकता’, ‘टीम भावना’ और ‘सेवा प्रकल्प’ आदि.
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दी विशेष जिम्मेदारियां
शिक्षक नवनाथ सोडनवर अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आदिवासी बच्चों को अधिक जिम्मेदारियां दी जाने लगीं. इससे उनके लिए गैर-आदिवासी बच्चों के साथ बातचीत करना जरूरी हो गया और धीरे-धीरे दोनों वर्गों के बच्चों के बीच की झिझक दूर होने लगी. साथ ही, ऐसे स्कूल के प्रति बच्चों का लगाव भी बढ़ने लगा.
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स्कूल प्रबंधन ने आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदाय के बच्चों को और अधिक करीब लाने के लिए एक अन्य पहल की. इस बारे में शिक्षिका संगीता श्रुमाले बताती हैं कि कुछ विशेष अवसरों पर उन्होंने गांव के विशिष्ठ व्यक्तियों को स्कूल परिसर में आमंत्रित किया और उनसे निवेदन किया कि वे आपसी भेदभाव दूर करने और दोस्ती को प्रोत्साहित करने के लिए बच्चों से बातचीत करें. इससे बच्चों में आपसी मित्रता को बढ़ावा मिला.
कक्षा पांचवीं के नीलेश वर्गे बताता है कि पहले वह और उसके दोस्त गैर-आदिवासी बच्चों से अलग बैठकर दोपहर में खाना खाते थे. फिर शिक्षक आदिवासी बच्चों के साथ बैठकर खाना खाने लगे. उसके बाद शिक्षक अन्य सभी बच्चों को एक जगह पर एक साथ खाना खाने के लिए बुलाने लगे. अब बहुत सारे बच्चे एक साथ बैठकर खाना तो खाते ही हैं, खाने की कई चीजें भी एक-दूसरे के साथ बांटने लगे हैं.
(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं)