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Saturday, 12 October, 2024
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शिक्षक ने अंधविश्वास के खिलाफ विज्ञान को बनाया हथियार, बच्चों के साथ बदल रहा बड़ों का दृष्टिकोण

बच्चे यह समझ रहे हैं कि हर घटना के पीछे विज्ञान होता है तथा जादू-टोनों की आड़ में बाबा लोगों को मूर्ख बनाकर उन्हें ठगते हैं.

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‘स्वास्थ्य की अच्छी आदतों’ तथा ‘अच्छा व बुरा व्यवहार’ जैसे विषयों पर आधारित शिक्षण की कुछ गतिविधियों के कारण एक स्कूल के कई बच्चों में अप्रत्यक्ष रूप से अंध-श्रद्धा के खिलाफ वैज्ञानिक दृष्टिकोण तैयार हो रहा है.

यह स्कूल है रायगढ़ जिला मुख्यालय अलीबाग से करीब 100 किलोमीटर दूर तहसील माणगाव के जिला परिषद प्राथमिक मराठी स्कूल उणेगांव का. यहां के शिक्षक मुकेश भोस्तेकर अतिरिक्त सत्रों में अनेक गतिविधियों के सहारे कभी सीधे तो कभी परोक्ष तौर पर स्कूल की शैक्षणिक दिनचर्या में बच्चों को विज्ञान अपनाने और उन्हें अंधश्रद्धा से छुटकारा दिलाने के लिए विशेष प्रयास कर रहे हैं.

यही वजह है कि स्वास्थ्य के मुद्दे पर ज्यादातर बच्चे अब इस हद तक जागरुक हुए हैं कि वे परिवार के किसी सदस्य के बीमार होने पर मरीज को बाबाओं की बजाय किसी कुशल चिकित्सक से ईलाज कराने का सुझाव दे रहे हैं. वहीं, प्रार्थना सभा में कुछ बच्चे सबके साथ विज्ञान से जुड़े कई रोचक तथ्य साझा कर रहे हैं. साथ ही, कई बच्चों के दिमाग से भूत-प्रेत का डर खत्म हो रहा है और अपशगुन को लेकर भी उनकी धारणाएं टूट रही हैं.

रायगढ़ जिला मुख्यालय अलीबाग से करीब 100 किलोमीटर दूर तहसील माणगाव के जिला परिषद प्राथमिक मराठी स्कूल उणेगांव के बच्चे/ फोटो/शिरीष खरे/ फोटो/ शिरीष खरे

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस स्कूल परिसर में स्वास्थ्य और अंध-श्रद्धा-उन्मूलन जैसे विषयों पर ग्रामीणों में जागरुकता लाने के लिए समय-समय पर शिविर आयोजित हो रहे हैं. दूसरी तरफ, इन्हीं मुद्दे पर स्कूल के बच्चे नुक्कड़ नाटक कर रहे हैं.

करीब डेढ़ हजार की जनसंख्या वाले उणेगांव कुणबी बहुल गांव है. यहां ज्यादातर छोटे किसान व मजदूर परिवार हैं. वर्ष 1958 में स्थापित इस स्कूल में कुल 41 बच्चों में 23 लड़के और 18 लड़कियां हैं. इस स्कूल में प्रधानाध्यापक सहित कुल 5 शिक्षक-शिक्षिकाएं हैं.

शिक्षक मुकेश बताते हैं कि कोई डेढ़ साल पहले जब गांव के बच्चे बीमार पड़ते थे तो आमतौर पर परिवार वाले उनका इलाज कराने के लिए उन्हें बाबाओं के पास ले जाते थे. बाबा इलाज के नाम पर बच्चों के बदन पर अंगारे लगाकर मंत्रोच्चार करते थे. इससे उनकी तबीयत और अधिक खराब हो जाती थी. इस कारण ऐसे बच्चे कई दिनों तक स्कूल नहीं आ पाते थे.

फिर वर्ष 2018 के अगस्त महीने में पीलिया से कई बच्चे बीमार पड़ गए. स्कूल के दूसरे बच्चों से पूछने पर उन्होंने बताया कि बीमार बच्चों का इलाज लंबे समय से बाबाओं द्वारा किया जा रहा है. लेकिन, वे स्वस्थ्य न हो पाने के कारण बहुत दिनों से स्कूल नहीं आ पा रहे हैं.


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ऐसी स्थिति में स्कूल प्रबंधन ने कई गतिविधियों की एक-एक योजना बनाई और उन्हें सूचीबद्ध किया. उसके बाद यह तय हुआ कि इन गतिविधियों के माध्यम से बच्चों को विज्ञान पर आधारित चिकित्सा पद्धति का महत्त्व तो समझाया ही जाए, अंध-श्रद्धा के प्रति बच्चों की सोच को भी बदलने का प्रयास किया जाए.

इसी कड़ी में स्कूल ने सभी बच्चों के लिए कुछ संयुक्त सत्र आयोजित किए. उदाहरण के लिए, ‘स्वास्थ्य की अच्छी आदतों’ और ‘अच्छा व बुरा व्यवहार’ के अलावा ‘स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बटन’, ‘सही विकल्प चुनें’ तथा ‘चुनौतीपूर्ण स्थितियों में निर्णय लें’ जैसी गतिविधियों के माध्यम से स्थानीय स्तर पर व्याप्त अंध-श्रद्धा से जुड़ी बातों पर बच्चों की चर्चाएं कराई गईं. इस दौरान बच्चों ने जोड़ियों और समूहों में चर्चा के माध्यम से एक-दूसरे से यह जाना कि कौन-सी आदतें लोगों को बीमार करती हैं. बच्चों ने आपस में मिलकर जाना कि बीमारी की स्थिति में क्या करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए.

इस दौरान बच्चों की परस्पर एक-दूसरे से बातचीत और शिक्षकों के उचित मागदर्शन के कारण धीरे-धीरे बच्चों को यह बात समझ में आने लगी कि मरीज को स्वस्थ्य बनाने के लिए बाबाओं द्वारा किया जाने वाला मंत्रोच्चार आदि बेअसर साबित होता है. ऐसी हालत में मरीज को चिकित्सा से संबंधित उचित सुझाव की जरुरत पड़ती है. साथ ही, मरीज को असरदार दवाइयां दी जानी चाहिए.

ऐसे बदल रहा बच्चों का व्यवहार

मुकेश बताते हैं, ‘हालांकि, मूल्यवर्धन की ज्यादातर गतिविधियां सीधे तौर पर विज्ञान से जुड़ी हुई नहीं हैं. लेकिन, कई सत्रों में ऐसा होता कि बच्चे चर्चा के दौरान अंध-श्रद्धा से जुड़ी बातों पर अपना-अपना मत रखने लगते. जैसे कि अच्छे या बुरे व्यवहार को लेकर बच्चे इस बात पर बहस करने लगते कि जब बिल्ली रास्ता काटे तो हमें रास्ता पार करना चाहिए या नहीं.’

इस तरह की चर्चाओं के दौरान जब किसी अपशुगन का उल्लेख आता तो शिक्षकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती. तब उनकी कोशिश रहती कि बातचीत को उस निष्कर्ष पर ले जाएं, जहां ज्यादा से ज्यादा बच्चे इस बात पर सहमत हो सकें कि कई घटनाएं मात्र संयोग होती हैं और उनका मनुष्य के जीवन पर किसी तरह का कोई प्रभाव नहीं पड़ता.


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इसके बाद, स्कूल ने एक सत्र गांव से थोड़ी दूरी पर एक वीरान जगह पर आयोजित किया. इस जगह के बारे में कहा जाता है कि यह भूतों का ठिकाना है. गांव के ज्यादातर लोग बच्चों को ऐसी जगह पर जाने से रोकते हैं. लेकिन, शिक्षकों ने इस जगह को क्षेत्र अवलोकन के लिए चुना. उन्होंने अवलोकन के दौरान बच्चों को बताया कि यह एक प्राकृतिक जगह है. यहां और दुनिया में कहीं भी भूत प्रेत नहीं होता है.

अंध-श्रद्धा उन्मूलन के लिए योजना

इस मुद्दे पर यदि बच्चों के परिजनों की सोच और मानसिकता न बदले तो बच्चों का मन बदलना मुश्किल होता है. इसलिए, स्कूल ने निर्णय लिया है कि वह अंध-श्रद्धा उन्मूलन के लिए स्कूल परिसर में जल्द ही एक शिविर आयोजित करेगा. प्रधानाध्यापक श्रीकांत गावडे के मुताबिक इस शिविर में अंध-श्रद्धा उन्मूलन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता, विशेषज्ञ और वैज्ञानिकों को बुलाया जाएगा.

रायगढ़ जिला मुख्यालय अलीबाग से करीब 100 किलोमीटर दूर तहसील माणगाव के जिला परिषद प्राथमिक मराठी स्कूल उणेगांव के बच्चे/ फोटो/शिरीष खरे/ फोटो/ स्नैप चैट

इस दौरान ग्रामीणों को उनसे अंध-श्रद्धा से संबंधित प्रश्न पूछने का मौका दिया जाएगा. श्रीकांत बताते हैं कि अगस्त, 2018 में स्कूल द्वारा एक स्वास्थ्य शिविर आयोजित किया गया था. इसमें चिकित्सक व चिकित्सा क्षेत्र के जानकार बुलाए गए थे. इस दौरान बच्चों के साथ ही उनके परिजनों के स्वास्थ्य की जांच की गई थी. तब चिकित्सक व जानकारों ने ग्रामीणों को बीमारियां फैलने के कारण और उपचार संबंधी बातों पर लंबी चर्चा की थी. तब उन्होंने बाबाओं से बीमारियों का उपचार न कराने का सुझाव भी दिया था.


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दूसरी तरफ, ज्यादातर बच्चे यह समझ रहे हैं कि हर घटना के पीछे विज्ञान होता है तथा जादू-टोनों की आड़ में बाबा लोगों को मूर्ख बनाकर उन्हें ठगते हैं. कक्षा पांचवीं का नंदन सत्वे बताता है कि अक्सर गांव में हस्तरेखा विशेषज्ञ भी आते हैं. वे बच्चों का भविष्य बताने के नाम पर पैसे मांगते हैं. लेकिन, नंदन अपना भविष्य जानने के लिए ऐसे किसी व्यक्ति के सामने हाथ नहीं फैलाता है. वह कहता है, ‘हमारा भविष्य हमारे हाथ में है, जो भी मिलेगा, हमारी मेहनता से ही मिलेगा.’

(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं)

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