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Saturday, 2 November, 2024
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यातायात सुरक्षा के लिए शहर की सड़कों पर आए महाराष्ट्र के बुलढ़ाना जिले के गांव के बच्चे

बच्चों को यह भी बताया जाता है कि सड़क पर यदि दुर्घटना हो जाए तो एक नागरिक के तौर पर हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिए और ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए.

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महाराष्ट्र में बुलढ़ाना जिले से करीब 55 किलोमीटर दूर नांदुरा तहसील के जिला परिषद मराठी उच्च-प्राथमिक स्कूल, अंबोडा की एक शिक्षिका सड़क सुरक्षा के मुद्दे पर बीते एक साल से जागरुकता मुहिम चला रही हैं. उन्होंने गांव के बच्चों का एक कला जत्था तैयार किया है. यह जत्था शहरों की मुख्य जगहों पर यातायात संकेतों का पालन कराने के लिए गीत, संगीत, नारे, पोस्टर और नुक्कड़ नाटकों का सहारा लेता है. जत्थे के बच्चे प्रदर्शन के दौरान यातायात संकेतों का अर्थ बताते हैं.

शिक्षिका सविता तायडे के मागदर्शन में यह मुहिम पहली बार चर्चा में तब आई जब वर्ष 2019 में 4 से 10 फरवरी यानी राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा के अवसर पर बच्चों ने बुलढ़ाना के जिला सड़क यातायात कार्यालय में अपनी कला प्रदर्शित की. लोगों और अधिकारियों की प्रशंसा से उत्साहित होकर अब इस जत्थे के बच्चे राजधानी मुंबई सहित राज्य के विभिन्न शहरों में प्रदर्शन करना चाहते हैं.

मराठी और माली समुदाय बहुल इस गांव की आबादी करीब दो हजार है. यहां के ज्यादातर रहवासी किसान, सब्जी उत्पादक और मजदूर हैं. वहीं, वर्ष 1914 में स्थापित इस स्कूल में प्रधानाध्यापक सहित 6 शिक्षक-शिक्षिकाएं कार्यरत हैं. यहां कुल 122 बच्चे हैं. वे सितंबर 2018 से इस तरह की गतिविधियां कर रही हैं.

बच्चों का ये जत्था इसलिए अनूठा

सविता के मार्गदर्शन में गठित कक्षा चौथी के बच्चों के इस जत्थे में 7 लड़के और 5 लड़कियां हैं. यह जत्था इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि एक छोटे गांव से होने के कारण ज्यादातर बच्चों को पता नहीं था कि शहर में यदि भारी यातायात वाली सड़क को पार करना हो तो उसका सही तरीका क्या है. वहीं, इन बच्चों को शहर के बाजार में चलने का ज्ञान भी नहीं था.


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सविता बताती हैं, ‘पहले हालत यह थी कि यहां के कई बच्चे यहां से कोई दस किलोमीटर दूर नांदुरा की सड़कों पर चलने की बात सुनकर घबराते थे. इसलिए, उन्होंने इन बच्चों के मन से शहर की भीड़भाड़ का डर मिटानी की ठानी. मैं यहां के बहुत सारे बच्चों को नांदुरा ले गईं और शहर की सड़कों को पार करने व बाजार में अच्छी तरह से चलने के तरीके सिखाने लगीं.’

एक अन्य शिक्षिका भावना गौर कहती हैं कि छोटे गांव के रास्तों में अक्सर शहर की सड़कों की तरह यातायात और उनसे जुड़े नियमों का पालन नहीं होता. लेकिन, यहां के बच्चे गांव की गलियों पर चलते जितना हो सके उतना यातायात के नियमों का पालन करते हैं. जैसे बच्चे अक्सर गली पर बांई ओर चलते हैं. इसी तरह, बच्चे गांव के लोगों को हैल्मेट पहनने का महत्त्व बताते हैं. बच्चे गांव के लोगों से यह कहते भी सुने जा सकते हैं कि वाहन चलाते समय मोबाइल पर बात करना खतरनाक साबित हो सकता है.

दूसरी तरफ, कई ग्रामीण बच्चों की इस मुहिम से खुश हैं. एक ग्रामीण अनिल बावस्कार बताते हैं कि इससे बच्चे दूसरी बड़ी जगहों पर जाकर महत्त्व की कुछ बातें बता रहे हैं, जो उन्हें भी मालूम नहीं थी. सड़क सुरक्षा की मुद्दा आज के समाज की जरूरत है.

ऐसे हुई शुरुआत

सविता बताती हैं कि एक बार कक्षा में जब यातायात के नियमों पर बच्चे चर्चा कर रहे थे तो कुछ बच्चों ने बताया कि वे अंबोडा फाटा की सड़क पार करके स्कूल आने से डरते है. इसलिए, सविता को लगा कि यातायात और सड़क सुरक्षा से जुड़ी कई गतिविधियां कक्षा में आयोजित करानी बच्चों के लिए अहम हो सकती हैं.

वे कहती हैं, ‘यदि यहीं बातें मैं बच्चों को बोलकर पढ़ाती तो वे भूल भी सकते थे. इसलिए, मैं कई बच्चों को स्कूल से कोई एक किलोमीटर दूर अंबोडा फाटा ले गई. फिर, वहां उन्हें बताया कि नियमों का पालन करते हुए सड़क कैसे पार की जाती है.’

सविता गायन और नृत्य की कुशल कलाकार हैं. इसलिए, उन्होंने सड़क सुरक्षा के मुद्दे पर जन-जागृति लाने के लिए कला प्रदर्शन को चुना. शुरुआत में उन्होंने स्कूल में ही कई सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए. फिर, इन कार्यक्रमों में बच्चों के साथ अभ्यास करके उन्होंने एक कला जत्था तैयार कर लिया.


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कक्षा चौथी की आंचल बगाडे कहती है कि शिक्षिका ने इन गतिविधियो में यातायात के बहुत सारे संकेत बताए. पोस्टर बनाकर संकेतों को मतलब समझाए. कम्प्यूटर से कई वीडियो दिखाए. स्कूल के मैदान पर नाचना गाना सिखाया. इससे अब वह अनजान लोगों के सामने भी झिझकती नहीं है.

कक्षा चौथी की ही दिव्या बावस्कर बताती है कि शिक्षिका ने उसे मूक अभियान सिखाया है. इसमें उसे बगैर बोले सामने वाले व्यक्तियों को अपनी बात समझानी पड़ती है. ऐसे में वह सड़क पर भारी शोर के बाद भी लोगों को अपनी बात समझा सकती है.

आज भी काम आसान नहीं

हालांकि, यह मुहिम शुरुआत से चुनौतीपूर्ण रही. वजह, छोटे गांव के छोटे बच्चों को 50 से 100 किलोमीटर दूर सुरक्षित ले जाना और लौटाना बहुत जिम्मेदारी का काम है. सविता बताती हैं कि ऐसे में विशेष तौर पर बच्चों के परिजनों को समझाना और उन्हें राजी करना आसान काम नहीं होता. दूसरा, इस तरह के एक प्रदर्शन में औसतन सात हजार रुपए खर्च होते हैं. ये पैसे वे अपनी जेब से खर्च करती हैं.

अंत में, प्रधानाध्यापक भागवत लांडे बच्चों की इस मुहिम को मिल रहे सर्मथन के लिए मूल्यवर्धन की सराहना करते हैं. वे कहते हैं कि मूल्यों के मुद्दे पर बच्चे संवेदनशील बन रहे हैं. इसमें बच्चों को यह भी बताया जाता है कि सड़क पर यदि दुर्घटना हो जाए तो एक नागरिक के तौर पर हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिए और ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए.

(लेखक शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं)

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