हम हमेशा जीवन की वास्तविकताओं के द्वंद्व में फंसे हुए होते हैं. कभी ये द्वंद्व जिंदगी के सुख से उत्पन्न होते हैं तो कभी अथाह दुख से. लेकिन दोनों ही स्थितियों के अपने-अपने अंतर्विरोध हैं. लेकिन जीवन इन्हीं अंतर्विरोधों का नाम है और इसी के सहारे सारे उतार-चढ़ाव को व्यक्ति देखता और समझता हुआ आगे बढ़ता चलता है.
लेकिन क्या भारतीय किसानों के जीवन का द्वंद्व बाकी शेष भारतीयों के जैसा ही होता है? क्या उनका जीवन भी बाकी लोगों की तरह एक जैसी स्थिति लिए आगे बढ़ता है. हम जो घटनाएं अपने आसपास से बीते कुछ सालों से सुनते आ रहे हैं, उन्हें देखकर तो ये बिल्कुल भी नहीं लगता कि किसानों की दिनचर्या आसान और थोड़ी सी भी सुखद है. किसानी जीवन भारत में अब दुख का पर्याय बन गया है. अलग-अलग कारणों से हो रही किसानों की आत्महत्याएं एक अलग विषाक्त आख्यान बनती जा रही हैं जिसे सुनने वाला कोई नहीं है. न प्रशासन, न शासन और न ही सामान्य मानवी.
लेकिन इस दुखद आख्यान को समय-समय पर अलग-अलग रूपों में दर्ज करने की भारत में बड़ी लंबी और मजबूत परंपरा रही है. ऋणजल-धनजल किताब में जहां फणीश्वरनाथ रेणु किसानी जीवन के सुखाड़ के दिनों को मार्मिक और आत्मिक ढंग से शामिल करते हैं और एक भयावह हकीकत से रूबरू कराते हैं. बीते कुछ समय से जलवायु परिवर्तन और मनुष्यों के कारण हो रहे वांछित बदलावों ने जो विकट स्थिति पैदा की है, वो किसानी-खेती के लिए नामाकूल वातावरण बना रही है. ये बदलाव न केवल फसलों को तबाह कर रही है बल्कि किसानों को मानसिक और शारीरिक रूप से भी लगातार तोड़ती जा रही है.
भारत पारंपरिक रूप से खेती-किसानी के क्षेत्र में हमेशा से उन्नत रहा है लेकिन अब ऐसी स्थिति बन रही है कि न तो ठीक ढंग से फसल पैदा हो पा रही है और न ही किसान का परिवार एक अच्छा जीवन बिता पा रहा है. भारत किसानी के संकट का हॉटस्पाट बन चुका है जहां न सरकारी नीति कोई समाधान ला पा रही है और न ही सामाजिक तौर पर उठाए जा रहे कदम चीज़ों को बदल पा रहे हैं.
महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र को कौन नहीं जानता. बीते कुछ दशकों में ये एक ऐसी जगह के तौर पर उभरा है जहां सबसे ज्यादा शेतकारों (किसानों) ने आत्महत्याएं की हैं. कर्जे में डूबे किसान अब उम्मीद खोते जा रहे हैं. प्रशासन उनकी मौतों को आत्महत्या नहीं मानता और बाद में परिवार के सामने रह जाता है सिर्फ अथाह दुख का पहाड़.
इन्हीं सारे वातावरण को वरिष्ठ लेखिका मधु कांकरिया की किताब ‘ढलती सांझ का सूरज’ में प्रामाणिकता और औपन्यासिकता के मजबूत गठजोड़ के साथ दर्ज किया गया है. लेखिका सफलता, सार्थकता और किसान जीवन की वास्तविकता के द्वंद को सिलसिलेवार ढंग से उकेरती हैं और बहादुरी के साथ उसे व्यक्त करती हैं. वह जीवन के ऐसे दरवाजे खोलती जाती हैं जो व्यक्ति के ‘आत्म’ से जाकर टकराता है, सफलता की नई व्याख्या लिखता है, दुख और सुख का अलग ढंग से संसार बनाता है और इन सबके बीच वे सारे अंतर्विरोध जा जुड़ते हैं जो जिंदगी की जटिलताओं का परिणाम होती हैं.
लेखिका मधु कांकरिया किताब की शुरुआत में प्रस्थान बिंदु का जिक्र करती हैं जहां से उन्होंने किसानों के जीवन के भीतर झांकने की शुरुआत की. वह लिखती हैं, ‘….ये अन्त: यात्राएं मेरी चेतना यात्राएं बन जीवन का प्राप्य ही बन गईं. इसके साथ ही जुड़ती गईं मेरी अनुभूतियां, संवेदनाएं, कल्पनाएं, विचार, दर्शन, जीवन-दृष्टि और सभ्यता का अमानवीय इतिहास जिसकी अंतिम परिणति इस उपन्यास के रूप में हुई.’
यह भी पढ़ें: मॉब लिंचिंग, संवेदनशील मानवीय मसलों और पत्रकार की उथल-पुथल भरी जिंदगी की कथा है ‘कीर्तिगान’
मनुष्य बनने की सीख और संभावनाएं
लेखिका मां-बेटे को पात्र बनाकर किसानी जीवन के संकटों को विस्तार से समझाने का दुष्कर प्रकल्प चुनती हैं. अविनाश नाम का पात्र जो देश से बाहर स्विट्जरलैंड में रहता है और अपनी मां से पिछले 20 सालों से एक भी बार मिलने नहीं आया और भौतिक दुनिया में इस कदर लीन होता चला गया कि उससे उसका देश, उसके अपने, सबकुछ छूटते चले गए. लेकिन एक दिन अचानक मां की खबर सुनते ही जब वो उसकी तलाश में भारत आता है तो ये तलाश उसी अपने ही देश में बसे हुए कई देशों से मिलवाता है. उसे एक ऐसी यात्रा पर ले चलता है जिसका उसे अभ्यास नहीं होता लेकिन वो सोचता जरूर है: ‘….अपनी मूल सत्ता के विरुद्ध जाकर जीवन जिया नहीं जा सकता है, काटा भले ही जाए.’
लेखिका अपने किरदारों के जरिए किसानों की जिंदगी के भीतर गहराई से झांकती हैं और कहती हैं, ‘किसान का चेहरा वह आईना है जिसमें सभ्यता का चेहरा झलकता है.’ मधु कांकरिया की किताब का कथ्य जितना मार्मिक, संप्रेषणीय और व्यावहारिक है उतना ही वो तथ्यात्मक ढंग से भी खरा उतरता है.
किताब के बारे में जानी-मानी लेखिका मृदुला गर्ग ने लिखा है, ‘उस उपन्यास में जो कथ्य है वह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो जीवन में कथित सफलता अर्जित करने के बाद उसकी सीमाओं को महसूस करता है. उसमें एक तलाश है, अपनी सार्थकता की, अपनी आत्मा की, अर्थवत्ता की. अपने जीवन के लक्ष्य की.’
लेखिका अपने मुख्य पात्र को जीवन के जिस जरूरी यात्रा पर ले जाती है, उसकी अनुभूति करते हुए अविनाश कहता है, ‘तुम्हारी खोज से शुरू हुई मेरी यात्रा अब जीवन और मनुष्य की खोज में बदल गई है.’ वहीं किताब में एक पात्र किसानी जीवन की सच्चाई को कुछ ऐसा बताता है: ‘पहले किसान टूट-टूट कर जुड़ जाता था, अपनी ही राख झाड़कर खड़ा हो जाता था. फसलें तो पहले भी खराब होती थीं, बारिश पहले भी दगा देती थी, पर तब किसान उम्मीद, जद्दोजहद और एक हौसले का नाम था पर आज जिल्लत और अपमान से भरी परिस्थितियां इस कदर कोंच-कोंच कर मार रही हैं उसकी गरिमा को कि वह उठकर खड़े होने की बजाए उठ जाना पसंद करने लगा है…’
यह भी पढ़ें: नेशनल फिल्म अवार्ड मिलने से डॉक्यूमेंट्री का मैसेज और लोगों तक पहुंचेगा: कामाख्या नारायण सिंह
जड़ों से जुड़ने की चाहत और आत्मग्लानि
ग्रामीण जीवन की विषमताओं को लेखिका ने शोध के साथ साहित्य के रूप में पेश किया है. एक ऐसा जीवन जिसकी व्यापकता निर्विवाद है लेकिन उसकी चिंताएं और परेशानियां सिर्फ किसान तक ही सीमित है. वह ना तो व्यापकता हासिल कर पाती है और न ही लोगों का ध्यान ही खींच पाती है. लेकिन लेखिका विदेश से आए एक पात्र के जरिए जो अपनी मां की तलाश में है, किसानी जीवन के यथार्थ को समझा जाती हैं.
लेखिका परिवार नाम की संस्था की जरूरत को बड़ी ही बखूबी ढंग से दर्ज करती हुई चलती हैं और संकेतों और स्पष्टताओं के जरिए जिंदगी की व्याख्या भी करती चलती है. साथ ही किताब लोकतंत्र का जरूरी पाठ भी पढ़ा जाती है जिसमें एक पात्र कहता है: ‘कैसा लोकतंत्र जहां किसी के जीने का अधिकार कोई ठेकेदार अपनी जेब में लिए घूमता है? ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गई हैं कि लोग कीड़ों में बदलने को तैयार हो जाएं. मरी हुई सभ्यता की बू आने लगी है अब लोकतंत्र से.’
किताब की सबसे अच्छी बात यह है कि ये एक ऐसी प्रासंगिकता भरी यात्रा है जिसे उतनी ही संजीदगी और शोध के जरिए लिखी गई है. ये अपने आखिरी तक पाठक को बांधे रखती है और जाने-पहचाने विषय को एक नई ताजगी के साथ पेश करती है.
(‘ढलती सांझ का सूरज’ किताब को मधु कांकरिया ने लिखी है. इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है)
यह भी पढ़ें: ‘राष्ट्रवाद आ गया…’: कविता की दुनिया में सशक्त हस्तक्षेप करती है जसिंता केरकेट्टा की कविताएं