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Friday, 19 April, 2024
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नेशनल फिल्म अवार्ड मिलने से डॉक्यूमेंट्री का मैसेज और लोगों तक पहुंचेगा: कामाख्या नारायण सिंह

15 मिनट की डॉक्यूमेंट्री 'जस्टिस डिलेड बट डिलीवर्ड' बनाने वाले कमाख्या नारायण सिंह ने कहा कि बेजुबानों को जुबान देने की अभी के वक्त में सबसे ज्यादा जरूरत है.

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नई दिल्ली: अनुच्छेद-370 और 35ए हटने के बाद जम्मू-कश्मीर में रहने वाले वाल्मीकि समुदाय के लोगों का जीवन किस तरह बदला, इस पर 15 मिनट की डॉक्यूमेंट्री ‘जस्टिस डिलेड बट डिलीवर्ड‘ बनाने वाले कमाख्या नारायण सिंह ने कहा कि बेजुबानों को जुबान देने की अभी के वक्त में सबसे ज्यादा जरूरत है.

22 जुलाई को सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने 68वें नेशनल फिल्म अवार्ड की घोषणा की जिसमें सामाजिक मुद्दों पर सबसे अच्छी फिल्म का पुरस्कार कामाख्या नारायण सिंह की डॉक्यूमेंट्री को मिला है.

दिप्रिंट के साथ इंटरव्यू में सिंह ने कहा कि अनुच्छेद-370 और 35ए को सिर्फ राजनीति के नजरिए से नहीं देखना चाहिए बल्कि सामाजिक दृष्टि से देखना बहुत जरूरी है.

उन्होंने कहा, ‘डॉक्यूमेंट्री के जरिए जो मुझे कहना और बोलना था इसमें मैं सफल रहा हूं. इस अवार्ड को जीतने की उम्मीद नहीं थी लेकिन दिल में तो ये बात थी ही कि मिल जाए तो अच्छा होगा. नेशनल अवार्ड मिलता है तो इस तरह की डॉक्यूमेंट्री की चर्चा होती है और ये और भी लोगों तक पहुंचती है. इसलिए मेरे लिए ये अवार्ड बहुत महत्वपूर्ण है.’

सिंह ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 और 35ए हटने के बाद जेंडर और जाति को लेकर जो भेदभाव होता था, वो अब हटा है. पिछले 70 साल से इसके वजह से लोगों को काफी दिक्कत हो रही थी.

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बता दें कि 1957 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद ने पंजाब से तीन हजार से ज्यादा वाल्मीकि समुदाय के लोगों को राज्य में बसाया था और तब से ही वे वहां की साफ-सफाई के कामों में लगे हैं. उनके साथ वादा किया गया था कि उन्हें राज्य की नागरिकता मिलेगी लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाया जिस वजह से वाल्मीकि समुदाय के लोगों को शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों में जगह नहीं मिलती थी. लेकिन अनुच्छेद-370 हटने के बाद ये स्थिति बदल गई. यही कहानी डॉक्यूमेंट्री में दर्ज की गई है.

सिंह ने कहा, ‘वहां पर लोगों को समानता का अधिकार नहीं मिल रहा था लेकिन जब अनुच्छेद-370 को हटाया गया तब मुझे लगा कि इन लोगों को अधिकार मिल गया.’


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‘हिन्दी सिनेमा का भविष्य अच्छा है’

फिल्म बनाने के वक्त किरदारों को चुनने की प्रक्रिया पर सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि जो लोग उस किरदार में समां सके, वो जरूरी है. वो बड़ा हो, छोटा हो, वो जरूरी नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘शुरू से ही ये सोच थी कि मुझे डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर बनना है.’

बॉलीवुड की फिल्में बीते कुछ महीनों से अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रही है, इसका क्या कारण है, इस पर सिंह ने बताया, ‘मुझे लगता है कि अभी इवोल्यूशन का फेज है. साऊथ, नार्थ कुछ नहीं होता है, सब हिंदुस्तान का सिनेमा है.’

‘क्रियटिविटी का कोई दायरा नहीं होता है. ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड में अच्छी फिल्में नहीं बन रही हैं. हो सकता है कि मास-बेस्ड फिल्में न बन रही हों, जो तेलुगू और तमिल में बन रही हैं. हिन्दी सिनेमा का भविष्य बहुत अच्छा है और यह सही हाथों में है. एक दिन एक आइडिया नहीं चला तो इसका मतलब ये नहीं होता कि कल जो आइडिया आएगा वो नहीं चलेगा.’

उन्होंने कहा, ‘ये तो हिंदुस्तान की खूबसूरती है कि तेलुगू और तमिल फिल्में आज चल रही हैं. कोई भोजपुर में बैठा व्यक्ति तमिल की फिल्में देख रहा है तो ये हिंदुस्तान की खूबसूरती है. तमिल और तेलुगू दोनों ही हमारी भाषा है. मैं खुद ऐसा महसूस करता हूं.’

कमाख्या नारायण सिंह ने कहा कि मैं सामाजिक कार्य का छात्र रहा हूं इसलिए हमेशा ये रहा है कि सामाजिक मुद्दों को कैसे उठाया जा सके.

उन्होंने कहा, ‘असम में जन्मा हूं तो भूपेन हजारिका की फिल्मों को देखा है. भूपेन दा ने मुझसे कहा था कि सामाजिक मुद्दों को उठाना बहुत जरूरी है.’

यह पहली बार नहीं है जब कमाख्या नारायण सिंह ने किसी सामाजिक मुद्दे को कैमरे के जरिए दिखाया है. इससे पहले सैनिटेशन को लेकर उन्होंने ‘भोर ‘ फिल्म बनाई थी जिसकी पृष्ठभूमि बिहार का एक पिछड़ा इलाका है जहां मुसहर जाति को केंद्र में रखकर शौचालय, नारी सशक्तिकरण, महिलाओं की शिक्षा, पलायन जैसे मुद्दों को उठाया गया है.

अपने आने वाले प्रोजेक्ट्स के बारे में उन्होंने बताया, ‘मुद्दों पर आधारित फिल्में ही बनाएंगे. जम्मू-कश्मीर पर एक फिल्म बनाने की कोशिश कर रहा हूं और स्पेशिली एबल्ड बच्चों पर काम कर रहा हूं.’


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