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Thursday, 18 April, 2024
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आधार से किसका उद्धार: डाटा, मीडिया और सत्ता के गठजोड़ से खड़ी की गई योजना

लेखिका ने आधार परियोजना के उन स्याह पक्षों को उभारा है जो देश के पिछड़े और अविकसित क्षेत्रों में लोगों ने भोगा है. वो कहती हैं कि सरकार इसे स्वैच्छिक सेवा के तौर पर लाई थी लेकिन इसका विस्तार कर अनिवार्य बना दिया गया जहां से समस्या बढ़ने लगी.

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किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन उसके लिए सबसे बड़ी परेशानी का सबब बन सकती है. इंसान अपनी निजता के लिए सबसे ज्यादा संवेदनशील और सतर्क रहता है. अपने को दुनिया से समेटने और अपनी सहमति से अपने बारे में जानकारी देना व्यक्ति पर निर्भर करता है. लेकिन निगरानी और निजता पर नियंत्रण करने के लिए एक ढांचा तैयार किया जाए और उसे लोक-कल्याण का खोल पहना दिया जाए और जनसंपर्क और संचार के तमाम माध्यमों के जरिए उसके लिए प्रचार किया जाए तब आप क्या करेंगे. ये सवाल इस मसले पर गंभीर चिंतन को जन्म देती है.

ऐसे ही तमाम सवालों के जवाब देने में रीतिका खेड़ा की किताब- ‘आधार से किसका उद्धार‘ उपयोगी है. लेकिन इसे पढ़ने के बाद काफी सारे प्रश्न आपके सामने शेष रहे जाएंगे जिसका जवाब तलाशना आपका खुद का काम होगा.

इस सवाल के जद में और इसकी भूमिका में पिछले दशक की सबसे बहुचर्चित और लोकप्रिय (जैसा कि सरकारें दावा करती आई हैं) आधार परियोजना (आम आदमी का अधिकार) है. यूपीए-2 के समय यानी की 2009 में इस योजना को लाया गया था. लेकिन इसे लाने का आधार ही अस्पष्ट सा था क्योंकि इसे कानून और संसद की मंजूरी उस समय प्राप्त नहीं थी. जिसे बाद में मनी बिल के तौर पर संसद से पास करा लिया गया.

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज इस किताब के बारे में लिखते हैं, ‘इस विचारोत्तेजक पुस्तक में उनके (रीतिका खेड़ा) लेखों को पढ़ने पर आप महसूस करेंगे कि आपने एक संग्रहणीय पुस्तक हाथ में उठाई है.’

ज्यां द्रेज ने पिछले कुछ सालों के भीतर आधार को लेकर हुई बहस और उसके इर्द-गिर्द जुड़ी घटनाओं को अच्छे से इस किताब की प्रस्तावना में बुना है और दर्ज किया है.

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आधार का मकसद था कि देश के सभी लोगों को उसकी एक पहचान दी जाए और लोगों को बताया गया कि राष्ट्रीय पहचान के जरिए तमाम कल्याणकारी योजनाओं में उसका समावेशन होगा. लेकिन इसकी तमाम परतों और इसके व्यापक स्तर पर पहले से ही तैयार योजनाओं को समझने-बूझने पर लगता है कि नेक मकसद के ऊपरी जाल ने इसके पीछे के स्याह पक्ष से जनता को दूर करके रखा हुआ था. धीरे-धीरे वो तमाम बदलाव हुए जो इसके मकसद के मूल केंद्र में थे. इन्हीं बदलावों और स्याह पक्ष को ये किताब बखूबी उद्धरित करती है.

रीतिका कहती हैं, ‘आधार परियोजना कॉरपोरेट और सरकारी शक्तियों का एक खतरनाक मेल है जो इन दोनों के हाथों में नियंत्रण को केंद्रित करता है. यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं. जिस तरह से आधार अधिनियम लाया गया और अब जिस तरह से आधार अध्यादेश सर्वोच्च न्यायालय के विरुद्ध जा रहा है उससे यही प्रतीत होता है कि आधार लोकतंत्र की गरिमा और भावना से बाहर है.’

रीतिका खेड़ा बड़ी बेबाकी से कहती हैं कि दुनिया के देशों पर एक सरसरी निगाह भर डालने से पता चल जाता है कि गरीब जन के लिए बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकारों तथा मानवाधिकारों के इस्तेमाल में राष्ट्रीय आईडी न तो एक आवश्यक और न ही पर्याप्त है.

रीतिका खेड़ा की किताब – आधार से किसका उद्धार

आधार का फलक जैसे-जैसे बड़ा होता गया वैसे ही सामाजिक सुरक्षा, प्रौद्योगिकी, कानूनी, तकनीकी और वित्त से जुड़े सवाल आधार परियोजना को लेकर उठने लगे. इन्हीं तमाम परतों और लोगों को सरकार की महत्वाकंक्षी योजना के सभी पक्षों से रूबरू कराने का प्रयास रीतिका खेड़ा की ये किताब ‘आधार से किसका उद्धार करती है’. ये किताब रीतिका द्वारा लिखे कई लेखों का संकलन है जिसे उन्होंने बीबीसी हिंदी, नवभारत, अमर उजाला, प्रभात खबर के लिए लिखा.


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इस किताब के कवर पेज़ को ध्यान से देखा जाना चाहिए. इसे पहली बार देखने पर बतौर पाठक आप थोड़े से ठहर जाएंगे और सोचने पर मज़बूर होंगे. पहले तो समझ ही नहीं पाएंगे कि क्या मतलब है इसका. जैसे-जैसे पन्ने दर पन्ने इसे पढ़ेंगे, किताब के कवर पेज़ पर उकेरी गई तस्वीर का मतलब स्पष्ट होता चला जाएगा.

रीतिका लिखती हैं कि यूआईडीएआई ने अपनी शुरूआत से ही अपनी मीडिया रणनीति पर ज़ोर बनाए रखा और लोगों के मन में आधार को लेकर अच्छी धारणा बैठा दी. इसका नतीजा यह हुआ कि अवर्जन, नकार और कठिनाइयों के ढेर सारे प्रमाण आंखों  के सामने हैं लेकिन आधार को लेकर लोगों के मन में बनी सकारात्मक छवि को निकाल पाना मुश्किल हो रहा है.

रीतिका ने अपने लेखों में आधार परियोजना के उन स्याह पक्षों को उभारा है जो देश के पिछड़े और अविकसित क्षेत्रों में लोगों ने भोगा है और उसे बताने वाला कोई और नहीं था. वो कहती हैं कि सरकार इसे स्वैच्छिक सेवा के तौर पर लाई थी लेकिन इसका विस्तार कर अनिवार्य बना दिया गया जहां से समस्या बढ़ने लगी.

वो कहती हैं कि आधार को लेकर लोगों के मन में एक तस्वीर बुनी गई कि इस योजना से भ्रष्टाचार कम होगा, आतंकवाद पर लगाम लगेगी और कर की चोरी रुकेगी. लेकिन ये सब इस योजना के मूल में तो कभी था ही नहीं. आधार की उपलब्धि को लेकर कोई ठोस और प्रमाणिक जानकारी न अभी तक किसी सरकार ने दी है और न ही इसकी निगरानी रखने वाली एजेंसियों ने. कैग ने जब आधार को लेकर अपनी रिपोर्ट पेश की तो केंद्र सरकार ने इसे नकार दिया क्योंकि आधार को लेकर बुने गए प्रौपोगेंड़ा के उलट कैग के आंकड़े सामने आ रहे थे. जिसके बाहर आने से लोगों को असलियत का पता चल सकता था.

पिछले कुछ सालों में हमारा ऐसी कई खबरों से राबता हुआ है जिसमें लोगों को राशन नहीं मिला, किसी को पेंशन नहीं मिली तो किसी को कल्याणकारी योजनाओं (मध्याह्ण भोजन) से बाहर कर दिया गया. ऐसी घटनाओं को इस किताब में उदाहरण सहित शामिल किया गया है. रीतिका लिखती हैं कि झारखंड, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उन्होंने ऐसी स्थिति का अनुभव किया और इसे अच्छे से जाना कि आखिर लोगों को कहां परेशानी हो रही है.

आधार और निजता का उठता प्रश्न

यूपीए-2 की सरकार के समय से ही आधार को व्यापकता से लागू करने पर काम हो रहा था. लेकिन 2014 में एनडीए की सरकार आने के बाद इस काम में तेज़ी आई. याद रहे कि 2014 से पहले भाजपा आधार का पुरज़ोर विरोध कर रही थी. 2014 के बाद आधार को स्वैच्छिक से अनिवार्य बनाने को लेकर काम शुरू हुआ. आधार को राशन कार्ड, बैंक खातों, पैन कार्ड, बिजली कनेक्शन, एलपीजी कनेक्शन से जोड़ने का काम शुरू हुआ.

2009 से लेकर 2015 के बीच जो समस्याएं देश के दूर-सुदूर के लोगों को हो रही थी वो अब समाज के मध्यवर्ग और अभिजात तबके के लोगों को होने लगी थी. देश के एक बड़े तबके के मन में जो आधार को लेकर एक अच्छी भावना थी उसे लेकर उनके मनोभाव में बदलाव आना शुरू हो गया. लोग अब पहली बार पूछने लगे थे कि आधार से उनका फायदा क्या है. ऐसे में उन लोगों को थोड़ा सुकून मिला जो इसके खिलाफ 2009 से सवाल खड़े कर रहे थे. अब उनकी बातों पर एतबार करने वाली एक बड़ी संख्या थी.

लोगों ने सवाल खड़े करने शुरू किए कि उनकी निजता का हनन हो रहा है. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो निजता एक मौलिक अधिकार है या नहीं इसे लेकर बहस शुरू हो गई. आधार की संवैधानिकता तय करने के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने 4:1 के फैसले में इसे वैध माना. जस्टिस चंद्रचूड़ आधार को संवैधानिक मानने के खिलाफ थे. इस किताब में उनके फैसले के पक्ष को अच्छे से बताया गया है.  

आधार योजना व्यक्ति की निजता के लिए कितनी खतरनाक है इसे कई उदाहरणों के जरिए ये किताब बताती है. अभी हाल ही में हुए फेसबुक और कैम्ब्रिज एनालेटिका द्वारा डाटा चोरी करने का मामला हमारे सामने है. आधार के बारे में भी यही कहा गया कि लोगों के बारे में जानकारी इकट्ठा करके इसे निजी कंपनियों को दिया जा रहा है जहां उसके गलत इस्तेमाल की संभावना काफी बढ़ जाती है. बीच-बीच में ऐसी खबरें भी आईं हैं कि लोगों के आधार नंबर सार्वजनिक हो गए हैं.

किताब में रीतिका खेड़ा लिखती हैं, ‘आधार को बॉयोमेट्रिक्स से जोड़ा गया जहां लोगों की उंगलियों के निशान लिए गए. देश के दूर-सुदूर इलाकों  में लोगों के बॉयोमेट्रिक्स का मिलान नहीं हो पा रहा था. कहीं तकनीक की गड़बड़ी सामने आ रही थी तो कहीं अन्य दिक्कतें. इसके चलते सामाजिक सुरक्षा से जोड़ने वाली आधार जैसा कि दावा किया गया था लोगों के लिए असुरक्षा की भावना पैदा करने लगी. झारखंड और छत्तीसगढ़ से कई ऐसे मामले आए कि लोगों को राशन नहीं मिल पाने के कारण भूख से मौत भी हो चुकी है. ऐसे में रीतिका उदाहरण सहित किताब में बताती है कि सरकार का दावा कि वो आधार से सबको जोड़ना चाहती  है वो खोखली साबित होने लगी और तकनीक और आधार की खामियां सामने आने लगी, लेकिन सरकार इसे स्वीकारने के लिए तैयार ही नहीं थी.’


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रीतिका खेड़ा की ये किताब आधार के सामाजिक पहलू, इसके तकनीकी पक्ष, कानूनी पक्ष और वित्तीय पक्ष को अपनी मजबूत दलीलों के जरिए पेश करती है.

एक पाठक के तौर पर जब आप इस किताब को पढ़ेंगे तो हर स्तर पर विचार करने पर मजबूर होंगे. जो कोई भी अपनी निजता और गोपनीयता को लेकर सतर्क और संवेदनशील है उसे इस पुस्तक को जरूर पढ़नी चाहिए.

किताब की कुछ खामियां भी हैं. जैसे की इसके संपादन में और भी अच्छे से काम किया जा सकता था.

(आधार से किसका उद्धार किताब को राजकमल प्रकाशन के उपक्रम सार्थक प्रकाशन ने छापा है. रीतिका खेड़ा इस किताब की लेखिका हैं.)

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