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Sunday, 22 December, 2024
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चार्ल्स शोभराज से लेकर अफजल गुरु और सुनील बत्रा तक, जानें जेल के भीतर कैसी थी क़ैदियों की दुनिया

बिकनी किलर के नाम से मशहूर चार्ल्स शोभराज के रौब से लेकर निर्भया केस के मुख्य आरोपी की मौत तक. प्रभात प्रकाशन से छपी किताब ब्लैक वारेंट में जेल की दुनिया की हक़ीक़त को बड़ी ही साफ़गोई से बयां किया है.

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सुनील बत्रा के कारण भारत में जेलों के अंदर होने वाले उत्पीड़न पर सन् 1978 का ऐतिहासिक निर्णय आया था और यही कारण था कि उच्‍चतम न्यायालय ने निर्जन कारावास (सॉलिटरी कन्फाइनमेंट) पर प्रतिबंध लगा दिया था. क्या आपको कभी इस बात की कोई जानकारी थी कि वह स्वयं एक उत्पीड़क था? या आप यह जानते हैं कि दशकों पहले हमारी हिरासत में हुई उद्योगपति राजन पिल्लई की मृत्यु की हमें कितनी महँगी कीमत चुकानी पड़ी थी? परंतु उसके बावजूद हम अभी तक तिहाड़ में भविष्य में होने वाली हिरासती मौतों के विरुद्ध कोई प्रभावशाली कदम उठाने में आज तक विफल रहे हैं. इतना अधिक कि मौजूदा समय के सर्वाधिक बीभत्स अपराधों वर्ष 2012 के निर्भया केस के बलात्कारियों और हत्यारों को अन्य कैदियों के साथ छोड़ दिया गया था, जहाँ उनके मारे जाने की संभावना अत्यधिक प्रबल थी. इन्हीं तमाम कारणों ने निर्भया केस के प्रमुख अभियुक्त राम सिंह को तिहाड़ के अंदर संदिग्ध परिस्थितियों में मरने को मजबूर कर दिया था.

सुनील बत्रा एक धनी प्राचीन मूर्ति विक्रेता का लाड़ला पुत्र था और अमीर लोगों की बस्ती दिल्ली के सुंदर नगर क्षेत्र में रहता था. तिहाड़ में उसका आगमन सन् 1973 में एक सशस्त्र डकैती के कारण हुआ था, जो इतनी भयानक सिद्ध हुई थी कि उसमें दो लोगों की मृत्यु हो गई थी. बत्रा, जिसकी उम्र उस समय 27 वर्ष थी, को मौत की सजा दी गई थी और उसे निर्जन कोठरी में बंद कर दिया गया था. लेकिन उसने आगे चलकर जो कार्य किया, उससे न केवल उसके जीवन का लक्ष्य बदल गया, बल्कि मृत्युदंड प्राप्त अन्य सभी कैदियों की दशा भी बदल गई थी.

सन् 1977 में सुनील बत्रा ने अपनी काल कोठरी से उच्‍चतम न्यायालय को एक पत्र लिखा, जिसे न्यायमूर्ति अय्यर ने याचिका का रूप दे दिया. अनेक कैदी न्यायाधीशों और न्यायालयों को पत्र लिखते थे; परंतु उन पत्रों की बड़ी संख्या केसों के कूड़े में जाकर विलीन हो जाती थी. यह एक सुखद संयोग की बात थी कि न्‍यायमूर्ति अय्यर ने केरल की पहली सरकार में जेल मंत्री के रूप में काम किया था और जेल-सुधार एक ऐसा क्षेत्र था, जिससे वह पहले से परिचित थे. इसलिए उन्होंने सुनील बत्रा के पत्र को अत्यंत गंभीरता से लिया.

वास्तव में, उनके कार्यकाल में अनेक प्रगतिशील निर्णय पारित किए गए थे. उन्होंने इस व्यापक प्रश्न का निर्णय करने हेतु एक विशेष जाँच बैठा दी कि क्या निर्जन कारावास मात्र एक दंड था या वह सुधार के उद्देश्य हेतु घातक था? मामला अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि न्यायमूर्ति अय्यर उसमें व्यक्तिगत रूप से रुचि ले रहे थे. उसका अर्थ यह था कि हमारी जेलों के इतिहास में एकमात्र और पहली बार उच्‍चतम न्यायालय के विद्वान् न्यायाधीश तिहाड़ जेल में यह जानने हेतु पधारे कि क्या वहाँ की स्थितियाँ वास्तव में उतनी ही बुरी थीं, जितनी कि पत्र में बताई गई थीं.

बहरहाल, जब न्यायमूर्ति एम.एच. बेग, न्यायमूर्ति पी.एस. कैलासम एवं न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर ने 23 जनवरी, 1978 को तिहाड़ जेल का दौरा किया तो उन्होंने पाया कि स्थिति उतनी विकराल नहीं थी, जितनी कि पत्र में उन्हें बताई गई थी. कोठरियों में जहाँ एक ओर कोई खिड़की, बिस्तर या अन्य कोई फर्नीचर नहीं था, उन्होंने नोट किया कि लोहे के सरिए लगे हुए एक रोशनदान के जरिए कोठरियों में सूर्य की पर्याप्त रोशनी आ रही थी. वहाँ कोई सुव्यवस्थित स्नानघर तो नहीं था, परंतु कमरे में पानी एवं सैनिटरी फिटिंग लगी हुई थी.

उन्होंने यह भी पाया कि यदि सुनील बत्रा चाहता तो खिड़कियों में लगे लोहे के सरियों के बीच से अन्य कैदियों से बात कर सकता था. इसके बावजूद, जब न्यायमूर्तियों या न्यायाधीश बंधुओं ने पाया कि अधिकतर कैदी निर्जन कारावास की अपेक्षा शारीरिक दंड को अधिक प्राथमिकता देते थे तो उन्होंने निर्णय दिया कि सुनील बत्रा या किसी अन्य कैदी पर अब उसे लागू नहीं किया जाएगा, क्योंकि वह भी किसी उत्पीड़न से कम नहीं था. निर्जन कारावास के विरुद्ध यह एक ऐतिहासिक निर्णय बन गया. एक ओर जहाँ इस बात में कोई संदेह नहीं है कि विभिन्न जेलों में निर्जन कारावास की व्यवस्था आज भी विद्यमान है, वह वैधानिक नहीं है और कैदियों के पास उसके विरुद्ध शिकायत करने का एक प्रावधान मौजूद है.

यह तो सुनील बत्रा के सक्रियतावाद की शुरुआत मात्र थी. देश के शीर्षस्थ न्यायाधीशों से संवाद स्थापित करने और सफलता का स्वाद चखने के एक वर्ष बाद सुनील बत्रा ने सन् 1979 में एक अन्य पत्र लिखा. इस पत्र में उसने एक अन्य कैदी प्रेम चंद पर किए जानेवाले अत्याचार के बारे में लिखा था. 26 अगस्त, 1979 को प्रेम चंद को अत्यधिक रक्तस्राव के कारण लेडी इरविन अस्पताल ले जाया गया था.

ड्‍यूटी पर तैनात डॉक्टर ने पाया कि उसकी गुदा में घाव हो गया था, जिसके बारे में उसके साथ गए जेल कर्मचारियों ने उसे यह कहकर दरकिनार करने की कोशिश की थी कि प्रेम चंद के अधिक नशे की लत के कारण उसे रक्तस्राव हो रहा था. बहरहाल, डॉक्टर ने उनके स्पष्टीकरण को अविश्वसनीय माना और उसके घावों को ठीक करने के लिए शल्य-क्रिया करने का निर्णय लिया. उस घटना की शिकायत जब उच्‍चतम न्यायालय पहुँची तो वह भी एक याचिका बन गई और उसकी जाँच के लिए न्यायालय ने वाई.एस. चितले एवं मुकुल मुद्गल को कोर्ट द्वारा नियुक्त जाँचकर्ता बनाया, जो कालांतर में उच्‍चतम न्यायालय के न्यायाधीश बने. जेल के अधिकारियों ने सच्‍चाई को दबाने की भरपूर कोशिश की थी.

‘पतन’ कथा के अतिरिक्त, उन्होंने यह भी सुझाव दिया था कि संभवतः प्रेम चंद बवासीर की बीमारी से ग्रस्त था और उन्होंने अपनी कहानी को मानने के लिए प्रेम चंद पर दबाव भी बनाया था. परंतु अंततोगत्वा सत्य बाहर आ ही गया. उच्‍चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार, वार्डर मग्गर सिंह ने प्रेम चंद के गुदा मार्ग में लोहे की एक रॉड घुसेड़ दी थी, क्योंकि वह प्रेम चंद से मिलने आनेवाले मुलाकातियों से उसकी मुलाकात करवाने के बदले रिश्वत की माँग कर रहा था, जिसे पूरी कर पाने में गरीब प्रेम चंद असमर्थ था. इस नियमोल्लंघन की दुःखद प्रकृति ने सभी को हिलाकर रख दिया था, जिससे पता चलता था कि जेल के अंदर की स्थितियाँ कितनी क्रूर हो सकती हैं कि वहाँ ऐसा जघन्य कृत्य किया गया.

वह मामला एक महत्त्वपूर्ण बिंदु सिद्ध हुआ, क्योंकि हमें जेल के अंदर होनेवाले उत्पीड़न का सामना करने के लिए विवश होना पड़ा था. न्यायालय ने तमाम क्षेत्रीय भाषाओं में जेल नियमावलियाँ प्रकाशित करने के लिए कहा, ताकि वे कैदियों को उनके अधिकारों के प्रति शिक्षित कर सकें. न्यायिक अधिकारी उत्पीड़न के अन्य प्रकारों की ओर भी सचेत हुए, जो मग्गर सिंह द्वारा किए गए उत्पीड़न के समान मुखर नहीं थे, परंतु अब भी अत्यंत कष्टप्रद एवं अपमानजनक थे, जिनमें दूरस्थ जेलों में कैदियों का स्थानांतरण, जहाँ कोई उनसे मिलने नहीं जा सकता था या शौचालय की सफाई जैसा अमानवीय कार्य कराया जाता था अथवा उन्हें शौचालय के पास सोने के लिए मजबूर किया जाता था.

उन्होंने महसूस किया कि कैदियों को कोड़े मारने जैसे नियम पंजाब जैसे राज्य की जेल नियमावलियों के अंग के रूप में अभी भी विद्यमान थे. वहाँ वयस्क कैदियों के नितंबों पर 30 कोड़े तक और किशोरों को 15 कोड़े मारने का नियम मौजूद था. अनेक जेलरों के लिए यह सर्वाधिक पसंदीदा भौतिक अनुशासन था और सन् 1971 में उन्होंने एक कैदी को इतने कोड़े मारे कि उसकी मृत्यु हो गई.

उच्‍चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद उत्पीड़न और कैदियों को चोट पहुँचाने की घटनाएँ जेलों में आज भी होती रहती हैं. जेल में विडंबना यह है कि अकसर रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं. सुनील बत्रा के ऐतिहासिक निर्णय के एक वर्ष बाद, जिसने जेल अधिकारियों को सतर्क कर दिया था, आजीवन कारावास की सजा काट रहे राकेश कौशिक नामक एक अन्य कैदी ने अदालतों को लिखा कि चार्ल्स शोभराज के नेतृत्व में कैदियों का एक गैंग उसके साथ दुर्व्यवहार कर रहा था और उन लोगों को जेल के अधीक्षक एवं अन्य कर्मचारियों का समर्थन प्राप्त था.

उच्‍चतम न्यायालय ने सुप्रसिद्ध अधिवक्ता सुबोध मार्कंडेय को तिहाड़ की यात्रा करने और राकेश कौशिक की शिकायतों की सूची की तह तक जाने हेतु नियुक्त किया. इन शिकायतों में जेल के कर्मचारियों के साथ दोस्ती करके युवा लड़कों के साथ ड्रग्स के नशे में यौन उत्पीड़न की शिकायत भी शामिल थी. जेल के कर्मचारियों ने अपनी ओर से मार्कंडेय के कार्य को कठिन बनाने का अधिकतम प्रयास किया, जिसके अंतर्गत कभी वे उन्हें जेल में प्रवेश करने से ही रोक देते या कभी उनका ब्रीफकेस चुरा लेते थे. परंतु श्री मार्कंडेय अडिग रहे और अपनी जाँच पूरी की. उनके निष्कर्ष अत्यंत चौंकानेवाले थे. जिस व्यक्ति ने कैदियों के उत्पीड़न के मकसद में महारत हासिल की थी, वह स्वयं दो नाबालिग लड़कों का अपने सहवास दास (सेक्स स्लेव) के रूप में इस्तेमाल कर रहा था. उस समय तिहाड़ में किशोर अभियुक्तों के लिए एक अलग क्षेत्र था.

मार्कंडेय ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि 30 वर्षीय सुनील बत्रा ने अपने कमरे में किसी तरह एक चाकू का प्रबंध कर लिया था, जिसका उपयोग वह दो किशोरों सहित अन्य कैदियों को धमकाने और उन पर हमला करने के लिए करता था. ‘उनमें से एक लड़के को सुनील बत्रा द्वारा जबरन अपने कमरे में खींच लिया गया था और उसके साथ अप्राकृतिक मैथुन किया गया था.’ जब जेल सुपरिंटेंडेंट बी.एल. विज से पूछा गया कि वे दोनों नाबालिग लड़के सुनील बत्रा की कोठरी में क्या कर रहे थे (जिसमें टेलीविजन लगा हुआ था), ‘विज ने स्वीकार किया कि सुनील बत्रा का साथ देने के लिए उसे दो लोग दिए गए थे.’ जब उससे यह पूछा गया कि क्या वे दोनों लड़के उसे समलैंगिकता के लिए उपलब्ध कराए गए थे, तो इसका उसने नकारात्मक उत्तर दिया, बावजूद इसके कि राकेश कौशिक ने उच्‍चतम न्यायालय से की गई अपनी शिकायत में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया था कि तिहाड़ के अंदर नाबालिग लड़कों के साथ गुदा मैथुन जैसा अप्राकृतिक कृत्य किया जा रहा था.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

(किताब ब्लैक वारेंट को प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया है जिसे रिटायर्ड जेलर सुनील गुप्ता और पत्रकार सुनेत्रा चौधरी ने लिखा है)


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