नई दिल्ली : जब भी कोई द्वारका मेट्रो रूट के टैगोर गार्डेन स्टेशन से गुजरता है तो उसे सड़कों के किनारे रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद के बड़े-बड़े पुतले बनते नज़र आ जाते हैं. सैकड़ों की संख्या में कारीगर इन पुतलों का ढांचा बनाने से लेकर कागज़ चढ़ाने, रंग रोगन करने में व्यस्त दिख जाते हैं…लेकिन इस बार सड़कों पर उतनी रौनक नहीं है जितनी पिछले सालों तक हुआ करती थी. पिछले साल से कारीगरों को सड़क के किनारे से हटा दिया गया है. तितारपुर के कारीगर अब अपने घर में ही पुतले बना सकते हैं, सड़कों पर नहीं. सड़कों से हटाए जाने के बाद वे ‘बेरी वाला बाग’, ‘छतरी वाला पार्क’ और ‘राम लीला पार्क’ में बंट गए हैं. वर्षों से सड़क किनारे इस मौसम में रावण के पुतले की पहचान रहे तितारपुर के कारीगर निराश हैं. यही नहीं महंगाई की मार से भी वे परेशान हैं.
मंदी की वजह से लग रही है ज्यादा लागत
मंदी की मार पुतला बाज़ार में भी नज़र आ रही है. बांस से लेकर पेंट तक हर चीज़ मंहगी हो गई है. ढांचों पर लगाने के लिए रद्दी साड़ियां भी महंगी मिल रहीं हैं. अपने घर पर पुतले बनाने वाली पूनम ने दिप्रिंट को बताया ‘पिछली बार हमारी लागत कम थी कुल 50-60 हजार खर्च हुए थे. इस बार हमारे लगभग 70 से 80 हजार रुपए खर्च हुए हैं. पिछली बार रद्दी कागज़ हमें 22 रुपए का मिला था इस बार वही कागज़ हमें 30 रुपए में मिला है. मजदूर भी ज्यादा पैसे मांग रहे हैं’
कारीगर प्रेम का कहना है ‘जिस तरह एक पौधे को पाला जाता वैसे ही हम दिन रात मेहनत करके पुतले बनाते हैं लेकिन घटे-बढ़ते बाज़ार की वजह से हमें कभी मुनाफ़ा होता है तो कभी रोटी-दाल का खर्चा ही निकल पाता है. इसलिए हर साल हम सोचते हैं रिक्शा चला लें, रेहड़ी लगा लें उसमें ज्यादा फ़ायदा है.’
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सबसे बढ़िया पुतला नहीं होता बिकाऊ
एक घर में 35-40 पुतले तक बन जाते हैं. इनकी कीमत बाज़ार पर निर्भर करती है. कारीगर संजय कुमार ने बताया, ‘सबसे छोटे पुतले 500-600 में बिकते हैं, ये 5 फुट से भी छोटे होते हैं. 5 फीट के पुतलों की कीमत 1200-2000 तक होती है. 10 से 15 फीट के पुतले 4000-5000 में बिकते हैं. इसी तरह लम्बाई के हिसाब से पुतलों की कीमत तय होती है. सबसे बड़े पुतले 60 से 65 फीट के होते हैं जिनकी कीमत 25-30 हजार होती है. 35-45 फीट के पुतले सबसे ज्यादा बिकते हैं जिसकी कीमत 16 से 20 हजार होती है.’ तितारपुर के कारीगर सबसे बड़ा पुतला बेचते नहीं बल्कि उसे अपने गांव में ही जलाते हैं.
कारीगर सूरज नागरवाल का कहना है, ‘सबसे बढ़िया रावण हम अपने लिए बनाते हैं. कई ग्राहक इसकी बड़ी कीमत देने को तैयार होते हैं लेकिन हम इसे बेचते नहीं’.
ग्राहकों को मालूम नहीं रावण मंडी का नया पता
पुतला बनाने वाले पुराने कारीगर महेंद्र ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम टैगोर गार्डन में पुतला बनाते थे लेकिन पिछले साल हमें दक्षिणी दिल्ली एमसीडी ने सुभाष नगर के पार्क में भेज दिया. वहां पर भी कुछ ही लोगों को जगह मिली पाई. हमारे ज्यादातर ग्राहकों को इस नये पते के बारे में जानकारी भी नहीं है.’ जानकारी न होने का असर सीधा पुतला व्यापार पर पड़ा हैं.
महेंद्र बताते हैं, ‘पिछले साल से हम ‘बेरी वाला बाग’ (हरी नगर के पास) में पुतले बना रहे हैं. यहां आने से हमारे बहुत से ग्राहक कम हो गए हैं.’ आगे उन्होंने कहा, ‘अगर हम सड़क के किनारे पुतले बनाते हैं तो पुलिस हमारे खिलाफ़ न्यायालय की अवमानना का केस करने की धमकी देती है.’
बता दें ‘बेरी वाला बाग’ (पार्क) जहां पुतले बनाए जा रहे हैं उसके गेट पर ताला लगा है. एक कोने से बाउन्ड्री तोड़ कर कारीगरों ने आने-जाने का रास्ता बनाया है. पार्क में बड़ी बड़ी झाड़ियां हैं, लाइट की भी सुविधा प्रदान नहीं की गई है. रात में काम करने के लिए कारीगर किराए पर लाइट और बैटरी लाते हैं.
2 महीने पहले से शुरू हो जाती हैं तैयारियां
जिस पुतले को जलाने में 1 मिनट भी नहीं लगता उसे बनाने में 2 महीने से ज्यादा का वक्त लगता है. रक्षाबंधन के बाद से ही पुतला बनाने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं. टैगोर गार्डन के कारीगर नीरज का कहना है कि ‘बांस असाम और बिहार से दिल्ली के थोक बाज़ारों में आता है, ज्यादातर कारीगर शाहबाद डेरी और आज़ादपुर मंडी से बांस ले कर आते हैं और घर पर ही काटते-छांटते और पुतले तैयार करते हैं’ उन्होंने बताया ‘पहले सड़कों के किनारे पुतलों से भरे होते थे, लेकिन पिछले 2 साल से हमें रोड पर पुतले बनाने की इजाज़त नहीं है इसलिए हम घर के छोटे से दायरे में पुतले बनाने को मजबूर हैं’
दूसरे राज्यों से भी आते हैं कारीगर
पुतले बनाने वाले कारीगर दिल्ली के आस-पास के राज्यों से हर साल आते हैं. ये कारीगर साल भर खेती करते हैं लेकिन दशहरे के सीज़न में दिल्ली के पुतला बाज़ारों में आते हैं और 300-350 रुपए की दिहाड़ी पर पुतले बनाते हैं. जबकि दिल्ली के रहने वाले कारीगर सालभर लकड़ी का ही काम करते हैं. तितारपुर गांव की रहने वाली ममता का कहना है ‘हमें ऑफ़ सीज़न में कभी काम मिलता है कभी नहीं, कुछ निश्चित नहीं रहता. थोड़ा फ़ायदा हमें दशहरा और जन्माष्टमी में ही होता है’.
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‘रावण वाले बाबा’ ने सिखाया रावण बनाना
तितारपुर की गलियों में रावण बनाने की शुरुआत ‘रावण वाले बाबा’ ने की. ‘रावण वाले बाबा’ के किस्से पुतले बनाने वालों में काफ़ी लोकप्रिय हैं. रावण वाले बाबा का असली नाम ‘छुट्टन लाल सैनी’ था. वे सिकन्दराबाद के रहने वाले थे. उन्होंने 50 साल पहले यहां आकर रावण के पुतले बनाने शुरू किये. उसके बाद से ये काम एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चला आ रहा है.
आप के लिए बढ़ियां पुतले बनाने के लिए कारीगर इतनी मशक्कत कर रहे हैं. लिहाजा आप इस दशहरे में अपनी कॉलोनी में रावण दहन करने की सोच रहे हैं तो पहुंचिए टैगोर गार्डन और सुभाष नगर. जहां के बेरी वाला बाग, क्षत्री वाला पार्क और राम लीला पार्क में महीनों की मेहनत से तैयार रावण आप का इंतज़ार कर रहे हैं.