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Friday, 3 May, 2024
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मजरूह सुल्तानपुरी, ज़ख्मी दिलों पर गीतों का मरहम लगाने वाला शायर

मजरूह साहब की लेखनी में इंसानी एहसासात, गांव का भरा पूरा परिवेश, लादरीयत (आलस) भरी शाम, बंसी की मधुर धुन है और साथ ही जीवन का राग.

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‘रहे ना रहे हम….महका करेंगे, इन्हीं लोगों ने…ले लीना दुपट्टा मेरा, ओ मेरे दिल के चैन…चैन आए मेरे दिल को, सलाम-ए-इश्क मेरी जां…ये वो सदाबहार गीत हैं जिसे कभी न कभी आपने गुनगुनाया जरूर होगा. इन गानों की मधुरता ने आपके कानों में रस घोला होगा और दिल को सुकून भी पहुंचाया ही होगा. ऐसे न जाने कितने ब्लॉकबस्टर गाने मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखे जो कहीं न कहीं हमारी आपकी जिंदगी से जुड़े हैं. ऐसे अनगिनत गीतों के रचयिता और उर्दू शायर मजरूह सुल्तानपुरी की आज 100वीं जयंती है.

उन्हें याद करने के कई कारण हमारे पास है. इश्क में डूबा इंसान हो या फिर ग़म में डूबा व्यक्ति हर कोई अपने हिसाब से उनकी रचनाओं को अपनी जिंदगी में उतार सकता है.

फ़िल्मी दुनिया में कैसे आए मजरूह

हमारे आसपास ऐसे तमाम लोग मौजूद हैं जो अपनी जिंदगी में करना कुछ चाहते हैं लेकिन उनकी किस्मत उन्हें कहीं और ले जाती है. मजरूह सुल्तानपुरी उन्हीं लोगों में से एक थे जिन्हें जिस वजह से शोहरत मिली, जिसके लिए उन्होंने पूरी जिंदगी खपा दी, वो असलियत में उसे करने के लिए कभी तैयार ही नहीं थे.

1941 में सुल्तानपुर के मुशायरे में मक़बूल शायर जिगर मुरादाबादी तशरीफ़ लाए. जहां उन्होंने मजरूह को सुना, फ़िर क्या था मजरूह ने जिगर मुरादाबादी को अपना उस्ताद बना लिया और शायरी करने लगे.

1945 के दौर में बंबई (आज का मुम्बई) के सब्बो सिद्दीक इंस्टीट्यूट में एक मुशायरे का आयोजन किया गया. जिसमें सुल्तानपुर के इस शायर ने अपना कलाम (रचना) पढ़ा. लोगों पर मजरूह की ग़ज़लों का ख़ुमार ऐसा छाया के मुशायरे में मौजूद फ़िल्म निर्देशक आर. कारदार भी इससे खासे प्रभावित हुए.

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कारदार ने अपनी फिल्मों में मजरूह से गीत लिखाने की पेशकश कर दी. मजरूह फ़िल्मों में गीत नहीं लिखना चाहते थे. लेकिन जब उनके उस्ताद जिगर मुरादाबादी ने समझाया तो वह राजी हो गए. इस तरह कारदार की फ़िल्म शाहजहां के लिए उन्होंने ‘ग़म दिए मुस्तकिल, कितना नाज़ुक है दिल’ और ‘जब दिल ही टूट गया’ जैसे गीत लिखे. जिसे आवाज़ दी उस वक्त के सबसे प्रसिद्ध गायक के.एल सहगल ने. इन गानों ने ऐसी धूम मचाई कि सहगल साहब ने यहां तक कह दिया कि ये गाना उनकी अर्थी पर बजाया जाए.

इंकलाबी गीतों के कारण जाना पड़ा जेल

मजरूह का रुझान मार्क्सवादी चिंतन की ओर था. वे तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ (प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट) से भी जुड़े रहे. यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों में कई बार बग़ावती तेवर भी दिखाई देते हैं तो गीतों में रूमानियत के बेल बूटे भी. अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था ‘जब सन् 1947 में आज़ादी मिली तो हम सड़कों पर नाचे थे, और बांस का एक बहुत बड़ा सा कलम बनाया था कि आज़ादी मिली है, तो अब हमारी कलम भी आज़ाद है. हम लेखक थे, कवि थे, पत्रकार थे.’

लेकिन किसे मालूम था कि जिस आज़ाद कलम का जश्न वे मना रहे हैं उसी कलम के कारण उन्हें जेल जाना पड़ेगा. मजरूह की एक बग़ावती नज़्म से पंडित नेहरू की सरकार ऐसी तिलमिलाई की उन्हें 2 साल के लिए जेल में डाल दिया गया. कहा गया कि अगर मजरूह माफ़ी मांग लेते हैं तो उनकी सज़ा ख़त्म कर दी जाएगी. लेकिन मजरूह ने माफ़ी मांगने से इंकार कर दिया.

उनके बगावती तेवर को उनकी इस नज़्म है –

सर पर हवा-ए-ज़ुल्म चले सौ जतन के साथ
अपनी कुलाह कज है उसी बांकपन के साथ


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जिंदगी में हर कोई अकेला ही आता है और चला जाता है. लेकिन इतिहास में नाम दर्ज उसी का होता है जो अपने कामों से लोगों को अपने साथ चलने पर मज़बूर कर दे. लोगों के बीच एक आकर्षण पैदा करे. मजरूह साहब का एक शेर इसी की बानगी है –

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजि़ल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया

संगीत की दुनिया को नए लफ़्ज़ दिए

मजरूह साहब ने अपनी लेखनी में इन्सानी एहसासात का कोई भी जज़्बा अधूरा न छोड़ा जिसे लफ़्ज़ न दिया हो. उनकी नज़्मों में गांव का भरा पूरा परिवेश है, लादरीयत (आलस) भरी शाम है, बंसी की मधुर धुन है और साथ ही जीवन का राग है. फ़िल्मी गीतों में भाषा को सादगी और रवानी से बरतने का जो सिलसिला मजरूह ने शुरू किया उसने आने वाले गीतकारों के लिए के नए रास्ते खोले. ‘जानम’, ‘बंदापरवर’, ‘क़िबला’, ‘मोहतरमा’, ‘सनम’ जैसे लफ़्ज़ हिन्दी सिनेमा में मजरूह लेकर आए. जिसका उनके बाद आए गीतकारों ने खूब इस्तेमाल किया.

मजरूह सुल्तानपुरी ने नौशाद, आरडी बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे कई बड़े संगीतकारों के साथ काम किया. मजरूह साहब के लिखे गीतों को स्वर-कोकिला लता मंगेशकर ने भी आवाज़ दी. मजरूह साहब द्वारा लिखा गीत ‘सलाम-ए-इश्क मेरी जां’ को लता मंगेशकर ने गाया है.

1993 में उन्हें फ़िल्म दोस्ती के गीत ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ के लिए दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिया गया, वे यह पुरस्कार पाने वाले पहले गीतकार थे. बता दें कि फिल्म दोस्ती 1964 में आई थी.

मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म उत्तप्रदेश के सुल्तानपुर शहर में एक अक्टूबर 1919 को हुआ था. वे पठान खानदान में पैदा हुए थे. उनके पिता उच्च शिक्षा के साथ मज़हबी तालीम देना चाहते थे. इसलिए उन्होंने अपने बेटे को मदरसे भी भेजा उसके बाद उन्होंने तकमील उल तीब कॉलेज से यूनानी मेडिसिन की पढ़ाई की और हकीम बने. हकीम के रूप में कई वर्षों तक काम भी किया. वह गाहे बगाहे शायरी किया करते थे क्योंकि उन्हें शायरी का शौक उन्हें बचपन से ही था.

इसी शौक के चलते वह अक्सर सुल्तानपुर में होने वाले मुशायरों में हिस्सा लिया करते थे, जिनसे उन्हें काफी नाम और शोहरत मिली. उनका असली नाम असरारुल हसन ख़ान था. लेकिन बाद में उन्होंने शायरी के लिए अपना तख़ल्लुस मजरूह रखा जिससे उन्हें खासी शोहरत भी मिली.  और वो मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से विख्यात हुए. उन्होंने अपनी मेडिकल की प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी और अपना ध्यान पूरी तरह शायरी की ओर लगाना शुरू कर दिया. इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से हुई थी.

मजरूह ने अपना मुकद्दर तो बदल दिया लेकिन फ़िल्मी दुनिया के बदलते रंग ने मजरूह को मजरूह (घायल) कर डाला. अपने आखिरी वक्त में दिए एक इंटरव्यू में मजरूह ने कहा ‘मैं इतने लोगों के साथ काम कर चुका हूं के अब उनके पास फ़ोन घुमाऊं के पिक्चर भेजो मेरे पास पिक्चर नहीं है, इससे अच्छा मैं भूखे रह कर मर जाना बेहतर समझता हूं.’


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उम्र के आखिरी पड़ाव में भी मजरूह ने ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’, ‘जानम समझा करो’, ‘पहला नशा पहला ख़ुमार’, जैसे गीत लिखे. 60 बरसों में मजरूह ने 350 फिल्मों में लगभग 2000 गीत लिखे. आज भी अवध में शादी ब्याह ‘नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर’ पर नाचे बिना पूरा नहीं होता. यही मजरूह का करिश्मा है. बेहतरीन गीतों के रचयिता मजरूह साहब 24 मई 2000 में हमारे बीच से चले गए. लेकिन उनके चाहने वाले आज भी उन्हें उतने ही प्रेम से सुनते हैं. आज भी मजरूह साहब हज़ारों मंजिलों में हज़ारों कारवां में बन के कली, बन के सबा, महक रहे हैं.

हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे
बहारें हमको ढूंढे़ंगी न जाने हम कहां होंगे.

न तुम होगे न हम होंगे, न दिल होगा मगर फ़िर भी
हज़ारों मंजिलें होंगी हज़ारों कारवां होंगे.

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