‘बाहर वालों’ के प्रति बॉलीवुड इतना बेरहम इसलिए है कि वहां जारी क्रूर प्रतियोगिता के खेल में न कोई अंपायर है, न कोई चेतावनी की सीटी बजाने वाला है, न कोई बीच-बचाव करके सुलह कराने वाला है.
रणनीति तय करने में मोदी सरकार ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों और भाजपा की चुनावी राजनीति की गिरफ्त से मुक्त नहीं हो पाती, जबकि लद्दाख संकट साफ संकेत दे रहा है कि उसे आत्मविश्लेषण करने, जमीनी हकीकत को समझने और अपनी नीति में सुधार करने की जरूरत है.
आबादी के लिहाज से देश का सबसे बड़ा और ताकतवर राज्य उत्तर प्रदेश प्रशासन के लिहाज सबसे बदतर राज्य रहा है, इसे दुरुस्त करने का एक ही उपाय है इसे चार-पांच राज्यों में बांट देना चाहिए.
चीन की तमाम फौजी तैयारी और जमावड़ा बल प्रयोग की कूटनीति का हिस्सा हो तो भी भारत को यही मान कर चलना चलना चाहिए कि जंग का खतरा वास्तविक है और उसे इसके लिए तैयार रहना है.
अपने पूर्ववर्तियों की तरह मोदी ने भी भारत-पाकिस्तान-चीन के त्रिशूल से मुक्त होने की कोशिश की मगर नाकाम रहे. अब आगे वे जो भी करना चाहेंगे उसका अर्थ होगा नए समझौते करना.
कोरोना महामारी पर सारी बहस वैचारिक खेमों के हिसाब से बंटी दिखाई देती है, भाजपा के बड़े नेता अपने संकीर्ण राजनीतिक हित साधने के लिए इस विभाजन का फायदा उठा रहे हैं, और कुल मिलाकर यही लग रहा है की हालात किसी के काबू में नहीं है.
बड़े-बड़े इरादे रखने के बावजूद आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर मोदी इसलिए पिछड़ते दिख रहे हैं क्योंकि उनके नौकरशाहों में सुधारों को आगे बढ़ाने का जज्बा नहीं है बल्कि वे तो इस लॉकडाउन के बहाने निरंकुश सत्ता का मज़ा लेने में मगन हैं.
चीन लद्दाख में जो कुछ कर रहा है उससे भारत को हैरान होने की जरूरत नहीं थी, बल्कि उससे इसी की उम्मीद करनी चाहिए थी, खासकर तब जबकि भारत ने जम्मू-कश्मीर का दर्जा बदल दिया है.
मेरे तर्क साम्यवाद अथवा वामपंथ के विरुद्ध नहीं है. बल्कि वे उस राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विरुद्ध हैं जिसमें मिशन जय हिंद के ये प्रख्यात प्रस्तावक विश्वास करते हैं.
धर्मेंद्र प्रधान से लेकर भूपेंद्र यादव और शिवराज सिंह चौहान तक, जब पार्टी के टॉप पद के लिए किसी ऑर्गनाइज़ेशनल व्यक्ति को चुनने की बात आई, तो पीएम नरेंद्र मोदी के पास कई विकल्प थे.