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Thursday, 25 April, 2024
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सब पर शक करो, सबको रास्ते पर लाओ! क्या यही हमारे नये ‘राष्ट्रीय शक्की देश’ का सिद्धांत बन गया है

केवल मोदी सरकार और भाजपा ही नहीं बल्कि राज्य सरकारों से लेकर अदालतें तक सब शक की मानसिकता के शिकार हो गए दिख रहे हैं, क्या भारत एक ‘राष्ट्रीय शक्की देश’ बनता जा रहा है?

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क्या हमारा दिमाग खराब हो गया है कि हम अपने देश को ‘राष्ट्रीय शक्की देश’ कह रहे हैं? अब आप गूगल में सर्च करने लगेंगे तो यह जुमला कहीं नहीं मिलेगा. यह वैसा मामला नहीं है जैसा हम पाकिस्तान और चीन को ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट’ (राष्ट्रीय सुरक्षित राज्य) कहते हैं, जहां क्रमशः फौज और पार्टी न केवल देश की सीमाओं की निगरानी करती है बल्कि राज्यतंत्र और नागरिकों की भी निगरानी करती है और यह एक स्थापित अवधारणा है.

मैं प्रायः ‘राइटिंग्स ऑन द वाल’ नामक सीरीज़ भी लिखता हूं. इसका शाब्दिक अर्थ है दीवारों पर लिखी इबारतें, उन पर बनाए गए चित्रों और विज्ञापनों को पढ़कर यह बताना कि देश का कोई हिस्सा या पड़ोस किस दिशा में आगे बढ़ रहा है. इसी तरह के मकसद से पाकिस्तान की यात्रा करते हुए मैंने इतने प्रमाण जुटा लिये थे कि इस उपमहादेश में एक ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट’ के रूप में उसकी अनूठी स्थिति को रेखांकित कर सकूं. लेकिन मुझे तो गोली दागती बंदूक की तरह, बिलकुल बोलती इबारत की दरकार थी. उर्दू न जानना एक कमजोरी थी, लेकिन आप तो जानते ही हैं कि जहां चाह वहां राह. वह राह मुझे तब मिल गई जब मैं देश वापसी के लिए वाघा सीमा पर अपने पासपोर्ट पर मुहर लगवा रहा था.

‘इमिग्रेशन खिड़की’ के ऊपर लगे एक साइनबोर्ड ने राह दिखाई, जिस पर लिखा था- ‘हम सबका सम्मान करते हैं, हम सब पर शक करते हैं’. एक पुलिसवाला जबकि मेरे आइ-पैड में आपत्तिजनक फोटो सर्च कर रहा था, मैं दूसरे इमिग्रेशन अधिकारी से बात करने लगा. उसने बड़े प्यार से बताया कि हम सबकी सुरक्षा के लिए कुछ ज्यादा ही शक्की बनना क्यों जरूरी है. यहां आप उस लेख को पढ़ सकते हैं.

कोई ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट’ सबको शक की निगाह से देखे यह बात तो समझ में आती है. लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं के बूते चलने वाला कोई संवैधानिक गणतंत्र ऐसा करे? पिछले साल जुलाई में जब नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर चलाई गई चुनावी मुहिम के बूते पहले से ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता में लौटे तब मैंने लिखा था कि वे इस मसले पर ज़ोर तो देते रहेंगे मगर वे भारत को एक ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट’ नहीं बनाएंगे. इसकी वजह यह है कि हम सब देख चुके हैं कि इसने पाकिस्तान का क्या हश्र किया है. लेकिन दो सवाल उठते हैं— क्या बाहरी खतरे के शक से ग्रस्त देश ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट’ के सिवा और कुछ हो सकता है? और, क्या भारत को हम अब तक जैसा जानते-समझते रहे हैं वह उससे अलग बनने के रास्ते पर चल पड़ा है? ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट’ बनने के रास्ते पर?

यहां हम एक सवाल खड़ा कर रहे हैं ताकि एक बहस शुरू हो सके. पहले हम कुछ तथ्यों की जांच करेंगे ताकि सबको संदेह का लाभ मिले.

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यह कहना गलत होगा कि आलोचना और आलोचकों से नफरत करने में केवल मोदी सरकार ही आगे है. पिछले कई दशकों में एक भी ऐसी सरकार का नाम लेना नामुमकिन है जिसने आलोचना को पसंद किया हो, जिसने आलोचना का बुरा जवाब न दिया हो. आलोचना करने वालों को हमेशा किसी-न-किसी मंशा से प्रेरित बताया जाता रहा है. कभी उन्हें ‘विदेशी एजेंट’ कहा गया (इंदिरा गांधी ने उन्हे सीआइए का एजेंट कहा, राजीव गांधी ने उनके पीछे ‘विदेशी हाथ’ देखा); कभी उन्हें कॉर्पोरेट के दलाल कहा गया (वामपंथियों ने), तो कभी उन्हें भ्रष्ट कहा गया (अन्ना/आप आंदोलन ने). सोशल मीडिया के प्रसार के साथ आलोचकों की सार्वजनिक निंदा, उनको शर्मसार करना बढ़ता गया. संयोग से यह अन्ना आंदोलन के साथ ही शुरू हुआ, और एक ने दूसरे को आगे बढ़ाया.

यह कहना अनुचित होगा कि केवल इस सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका), गैरकानूनी गतिविधियों पर रोक के कानून (यूएपीए), या विदेशी दान नियमन कानून (एफसीआरए) जैसे क्रूर क़ानूनों का इस्तेमाल किया है. इससे पहले कांग्रेस की सरकारों ने इन क़ानूनों को जन्म दिया और मजबूत बनाया. सभी सरकारों ने इनका दुरुपयोग किया.

यही बातें निगरानी रखने के बारे में कही जा सकती हैं. मोदी सरकार आज जिस निगरानी तंत्र और तकनीक का इस्तेमाल कर रही है उन्हें यूपीए की सरकारों ने 9/11 और 26/11 के कांडों के बाद तैयार किया था. इनमें खुफिया भेद लेने में सबका ‘दादा’ माना जाने वाला एनटीआरओ भी शामिल है. उस दौरान केवल गृह या रक्षा मंत्रालयों की विभिन्न एजेंसियों को ही नहीं बल्कि आइबी और रॉ जैसी पारंपरिक एजेंसियों को भी फोन टैपिंग के अधिकार दे दिए गए थे. उसी बीच वित्त मंत्रालय भी फोन टैपिंग आदि का मुख्य तंत्र बन गया था. राडिया टेप कांड को याद कीजिए.

तो आज हम क्यों शिकायत कर रहे हैं?

अगर आप सार्वजनिक हस्ती हैं, सार्वजनिक बहस में भाग ले रहे हैं या सार्वजनिक हस्तियों से आपका संपर्क है या आम नौकरशाही में भी हैं, तो जरा अपने फोन की जांच कर लीजिए.

अपने लैंड लाइन से या मोबाइल से बराबर आप कितने लोगों से बात करते हैं? कुछ समय पहले व्हाट्सएप फैशन में था, लेकिन भारत में इजरायली निगरानी एजेंसी की मौजूदगी के खुलासे के बाद फेसबुक को लेकर संदेह उभरा. वह भी गायब हो गया. वह बड़ी अजीब स्थिति होगी जब शासक दल समेत कई नेता और नौकरशाह टेलीग्राम (मेरे ख्याल से अब भरोसा खो चुके), सिग्नल या दूसरे तरीके इस्तेमाल करेंगे जिनसे मैं परिचित नही हूं. इससे तो संदेह का भारी वातावरण बनेगा. और इसके लिए हम डेटा की खुफियागीरी करने वाले झेनहुआ को दोष नहीं दे सकते.


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सार्वजनिक बहसों में रहने वाले हम लोग आलोचनाओं के प्रति सरकारी असहिष्णुता इंदिरा गांधी के जमाने से ही झेल चुके हैं. जनवरी 1984 में मैं उनकी सरकार का कोप झेल चुका हूं जब मैंने तमिल टाइगरों के ट्रेनिंग कैंपों के बारे में ‘इंडिया टुडे’ में खुलासा किया था. ‘इंडिया टुडे’ को राष्ट्र विरोधी पत्रिका कहा गया था. इससे पिछले साल जब मैंने इसी पत्रिका में असम के नेल्ली में नरसंहार की तसवीरों सहित रिपोर्ट लिखी थी तब भी उन्होंने ऐसा ही कहा था क्योंकि उसी दौरान दिल्ली में निर्गुट शिखर सम्मेलन चल रहा था.

आज जब राजनीति से लेकर सरकार और सार्वजनिक बहसों में भाग लेने वाले तमाम तरह के लोगों से यह पता करने की कोशिश की कि क्या आज पहले से कुछ फर्क दिख रहा है, तो प्रायः यही जवाब मिला कि पहले आपको पता होता था कि सत्तातंत्र में कौन आपसे कुछ समय के लिए बोलचाल बंद कर देगा या आपकी मदद करने से मुंह मोड़ लेगा या फोन करके आपसे शिकायत करेगा और आप पर किसी मंशा से प्रेरित होने का आरोप लगाएगा.

इसके बाद, 2010 के बाद अन्ना आंदोलन का दौर आया, जिसमें आपको सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा किया जाने लगा. इसके बाद आपसे असहयोग और आपका बायकॉट करने का दौर आया. लेकिन आपको यह चिंता नहीं होती थी कि आपके खिलाफ मामले दायर किए जाएंगे. यह बदलाव अब आया है.

अगर आप यह जानना चाहते हैं कि मैं क्या कहना चाहता हूं तो ‘आप’ के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह से पूछ लीजिए. उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना करते हुए बयान दिया और उनके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया गया. एक राज्य सरकार की आलोचना करने के लिए संसद की ऊपरी सदन के एक सदस्य पर देशद्रोह का आरोप लगा दिया गया. इस पर जरा गौर कीजिए!

एक लोकतंत्र में अगर आपके खिलाफ इस तरह मुकदमा दायर किया जाए तब आप कहां जाएंगे? अदालत में जाएंगे? वे अपना समय लेती हैं. इसकी कुछ वजह यह है कि यह प्रक्रिया ही अपने आप में एक सजा है और कुछ वजह यह है कि वे भी ‘हम सब पर शक करते हैं’ वाली मानसिकता से ग्रस्त हैं. नतीजा यह है कि अपराध साबित होने तक निर्दोष माने जाने की जगह आप निर्दोष साबित होने तक अपराधी माने जाते हैं. जमानत की अर्जियों पर इन दिनों जो फैसले सुनाए जा रहे हैं उनसे यही संकेत मिलता है. इसके अलावा, लीक की जाने वाली जानकारियों और साजिश के आरोपों आदि के जरिए मीडिया ट्रायल का आतंक भी कायम है. या यह देखिए कि एक जज किस तरह इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि अरुण शौरी पर वाजपेयी सरकार के दौर में किए गए एक विनिवेश के मामले में भ्रष्टाचार का मुकदमा चलाया जाए जबकि सीबीआइ कह रही है कि इसका कोई सबूत नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट जब-तब निजता के अधिकार पर फैसले देकर या मीडिया ट्रायल के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां करके हमें सौगात जैसा देता रहता है, लेकिन संस्थागत तौर पर उच्च न्यायपालिका क्या इन ख़्वाहिशों को पूरा करने की ताकत रखती है? इस पर उन्हें विचार-विमर्श करना चाहिए. खासकर तब जबकि जज की सीनियरिटी और उसके या उसके करीबी परिजनों के खिलाफ गंभीर मामले दायर किए जाने के बीच गणितीय किस्म का साफ रिश्ता नज़र आता है.

सब पर शक करो, सबको रास्ते पर लाओ! यह ऐसी मानसिकता है जो सत्तातंत्र के पिरामिड के शीर्ष से शुरू होकर नीचे तक फैलती है. और यह केवल भाजपा के मामले में सच नहीं है. उद्धव ठाकरे अपने आलोचकों के खिलाफ कानून से लेकर विधायी विशेषाधिकार तक तमाम संभव उपायों का इस्तेमाल करते हैं. वाइ.एस. जगन मोहन रेड्डी एक ही लाठी से अपने पूर्ववर्तियों से लेकर न्यायपालिका के कुछ हिस्से तक को हांक देते हैं; और अशोक गहलोत अपनी पार्टी के असंतुष्टों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप लगा देते हैं. फोन टैपिंग के प्रमाण भी बेशक सामने आते हैं.


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इसके बाद सबके लिए मैदान खुला है. मसलन, महेश भट्ट के साथ रिया चक्रवर्ती की निर्दोष-सी बातचीत को मीडिया चैनलों पर सनसनी पैदा करने वाले संगीत के साथ पेश किया जाता है. हर कोई परेशान हो जाता है, यह तो मेरे साथ भी हो सकता है. फिर दहशत पंख फैलाने लगती है, कहीं वे मेरी खुफियागीरी करके मेरे खिलाफ कोई गंभीर मामला न बना डालें! अगर ‘उन्होंने’ ऐसा कर दिया, तो आधी जिंदगी इंसाफ पाने में लग जाएगी, बशर्ते इंसाफ मिले.

इसने हमें एक-दूसरे के खिलाफ शक करने पर मजबूर कर दिया है. कुछ लोगों को लग सकता है कि मैंने ‘नेशनल सिक्यूरिटी स्टेट’ की जो बात की है वह कुछ अतिशयोक्ति है. आपको शायद ‘नेशनल सस्पीशन सोसाइटी’ (राष्ट्रीय शक्की समाज’) ज्यादा अच्छा लगे. या दोनों ही नापसंद हो. मैं तो बस इस सवाल पर बहस शुरू करवाना चाहता हूं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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