ट्रंपियन कूटनीति से अपनी रक्षा करने के लिए सबसे पहले हमें अपने सत्तातंत्र के अंदर के विमर्श में जो विरोधाभास हैं उनका विश्लेषण करना होगा. आप तब से शुरू कर सकते हैं जब 2014 की गर्मियों में मोदी सत्तासीन हुए थे.
नरेंद्र मोदी जबकि प्रधानमंत्री पद पर लगातार सबसे लंबे समय तक बने रहने वाले दूसरे नेता बन गए हैं, हम यह देखने की कोशिश कर रहे हैं चार अहम मामलों में वे इंदिरा गांधी की तुलना में कैसे लगते हैं.
खुली, तीखी, खरी, अनीतिपूर्ण और कभी-कभी अपमानजनक विशेषणों से लैस तारीफों से भरी कूटनीति. इसे हम ‘ट्रंप्लोमैसी’ कहते हैं. लेकिन इस सबके पीछे बड़ा मकसद होता है: अमेरिकी वर्चस्व बनाए रखना.
बीजेपी में, कम-से-कम शीर्ष स्तर पर पारिवारिक उत्तराधिकार का कोई उदाहरण नहीं मिलेगा. आप देख सकते हैं कि यह वाजपेयी-आडवाणी के दौर में भी हुआ. युवा प्रतिभा की पहचान और उसे मजबूती देने का यह चलन पार्टी अध्यक्ष के चयन के मामले में ज्यादा उल्लेखनीय दिखता है.
ममदानी की मान्यताएं, गज़ा के लिए उनका समर्थन, मोदी या नेतन्याहू के प्रति उनकी नापसंद आदि की वजह से भारत में कई लोग उनके उत्कर्ष को एक और ‘भारतीय विजय’ के रूप में नहीं मना सकते हैं.
भारत को यह मंजूर नहीं है कि उसका मित्र अमेरिका इस क्षेत्र को भारत-पाकिस्तान के चश्मे से देखे. इससे भारत के प्रभाव क्षेत्र की पुष्टि नहीं होती, उसकी अहमियत कम हो जाती है.
चीन भारत को अपने ‘त्रिशूल’ से दबाने के लिए पाकिस्तान का सस्ते में इस्तेमाल करता रहा है. यह मान लेना मुफीद होगा कि चीन पाकिस्तान को अब अपने पश्चिमी थिएटर कमांड के रूप में देखता है.
मुनीर ने इमरान को जेल में बंद कर रखा है, अपने हाथों की कठपुतली संसद से उन्होंने अपना कार्यकाल भी बढ़वा लिया है लेकिन पांचवें स्टार तमगे की चमक जमीनी हकीकतों को फीकी नहीं कर सकती.
कांग्रेस के दोबारा मजबूत हुए बिना, बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती नहीं दी जा सकती. मोदी की पार्टी बढ़ रही है और वह भी लगभग पूरी तरह कांग्रेस की कीमत पर.