भारत और चीन दुनिया में दो ऐसे देश हैं जिसके लोग हजारों वर्षों से बचत करते रहे हैं. अपनी मेहनत की कमाई में से एक हिस्सा वे बचाकर रखते थे जो उनके बुरे वक्त या फिर सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वाह में काम आता था.
आपने मिट्टी के हांडियों में सोने के सिक्के पाये जाने की कई खबरें सुनी होगी या फिर ज़मीन में गड़े धन के बारे में जरूर पढ़ा होगा. लेकिन मध्य काल के बाद जब अंग्रेज आये और उन्होंने अपने डेढ़ सौ साल के शासन में भारतीय अर्थव्यवस्था को लूटकर बर्बाद कर दिया जिससे भारतीयों की परचेजिंग पॉवर और इनकम दोनों ही निम्नतम स्तर पर जा पहुंची. लेकिन आज़ादी के बाद जब नई बैंकिंग व्यवस्था आई तब भारतीय बचत खाता के माध्यम से पैसे बचाने लगे. करोड़ों लोग बुढ़ापे के लिए तो काफी बड़ी तादाद में अपने घर की जिम्मेदारियों के लिए बचाने लगे. बेटे-बेटी की शादी के लिए बचत करना तो आदत का हिस्सा बना रहा है. लेकिन संभावित विपदा के लिए बचत करना उनकी आदत का हिस्सा रहा है और इसलिए सोना खरीदने की परंपरा यहां सदियों से रही है.
कोरोना में काम आई ये बचत
इस तरह की बचत उनके कठिन वक्त में बहुत काम आई है और यह बुरा वक्त आया 2020 में जब कोरोना संकट ने करोड़ों लोगों को बेराजगार कर दिया और करोड़ों की आय में कमी कर दी. ऐसे समय में वही बचत का पैसा काम आया. उस पैसे की बदौलत लोगों ने अपने घर चलाये और रोटी का जुगाड़ भी किया. बचत का पैसा उनके लिए ऑक्सीजन बना. कोरोना काल खत्म हो गया फिर भी देश में बचत का वह स्तर नहीं रहा और लोगों की बचत की आदत कम होती चली गई. एक सर्वे के मुताबिक भारत में 50 फीसदी लोग शून्य से 20 फीसदी तक बचत कर रहे हैं और 20 फीसदी अपनी 20 से 30 फीसदी तक बचत कर लेते हैं.
सर्वे के मुताबिक कोरोना संकट के बाद लोगों में संकट के प्रति चिंता हुई और सर्वे में भाग लेने वाले 54 फीसदी लोग आसन्न संकट के प्रति सावधान होकर वैसे समय के लिए बचत करने लगे हैं. लेकिन मिलेनियम यानी 35 साल से कम उम्र के लोग अब बचत के बारे में नहीं सोचते.
एक और रिपोर्ट के मुताबिक देश में बचत की स्थिति अभी नाजुक है और 31 मार्च 2022 तक के आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में बचत पांच वर्षों के न्यूनतम पर जा पहुंची है. हालांकि इसका कारण भी कोविड को ही बताया जा रहा है. साथ ही बढ़ती महंगाई ने भी भारतीयों की बचत की आदत को धक्का पहुंचाया है.
देश में महंगाई की दर तकलीफदेह स्तर तक जा पहुंची है. हालांकि अभी इसमें थोड़ी राहत मिली है लेकिन इसने खर्च करने की शक्ति या यूं कहें कि परचेजिंग पॉवर में कटौती कर दी है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में बचत घटकर भारत के जीडीपी का 10.02 फीसदी हो गया था जबकि 2021 में यह 15.9 फीसदी था. यह चिंता का विषय है. रिजर्व बैंक के अनुसार महंगाई और अंधाधुंध खरीदारी के कारण लोगों की बचत की आदत में अंकुश लग गया. इसके अलावा ब्याज दर घटने के कारण लोग बैंकों में पैसे रखने के प्रति उदासीन हो गये. उस समय बैंक सावधि जमा पर 5 फीसदी से कुछ ज्यादा ही ब्याज दे रहे थे जिससे जमाकर्ता हतोत्साहित हुए. आंकड़ों के मुताबिक 2022 की पहली तिमाही में बैंकों में डिपॉजिट 50 सालों के न्यूनतम पर जा पहुंचा. लोगों ने बैंकों की बजाय पैसा शेयर मार्केट में लगाया और जोखिम वाले निवेश पांच सालों के अधिकतम पर जा पहुंचे.
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लोगों में खर्च करने की आदत बढ़ी
आंकड़ों और रिपोर्ट के अनुसार लोगों में खर्च करने की आदत बढ़ गई है. इसमें सबसे बड़ा खर्च टूरिज्म पर हो रहा है. भारतीय न केवल देश में बल्कि विदेशों में छुट्टियां मनाने जाने लगे हैं और इस पर खूब खर्च कर रहे हैं. खर्च करने में भारतीय किसी से कम नहीं हैं और हमारी अर्थव्यवस्था इसी से चलती है. इस तथ्य को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी बजट में स्वीकार किया. भारतीय अर्थव्यवस्था खपत आधारित है और इसके पहियों की गति उससे ही बढ़ती है. इसलिए सरकार भी चाहती है कि लोग खूब खर्च करे ताकि मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री को बढ़ावा मिले.
यह भी एक कारण है कि सरकार ने इस बार के बजट में नये टैक्स रिजीम को इस ढंग से पेश किया है कि लोगों को बचत करने की जरूरत ही न पड़े. अब जो करदाता नये टैक्स रिजीम को मानेगा उसे बचत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. ऐसे करदाताओं को सात लाख रुपये तक की इनकम पर कोई टैक्स नहीं लगेगा. इसके लिए उन्हें पीपीएफ, एनएससी, साधारण बीमा तथा अन्य तरह की बचत योजनाओं में पैसे निवेश करने की जरूरत नहीं है. इसका मतलब हुआ कि उन्हें अब बचत करने की जरूरत नहीं है. उन्हें सीधे टैक्स में छूट मिलेगी या यूं कहें कि उन्हें सिर्फ रिटर्न फाइल करनी होगी.
यह स्थिति कोई खुशनुमा नहीं है. बचत और खासकर लघु बचत योजनाएं देश के लिए बेहद जरूरी हैं. इनके माध्यम से जनता भारी बचत कर लेती है जो उनके बुरे समय में काम आती हैं. यह रकम बहुत बड़ी होती है और 1917-18 में यह सात लाख करोड़ रुपये से ज्यादा थी. इससे सरकार को यह फायदा होता है कि यह रकम वह अपनी कई तरह की योजनाओं में भी इस्तेमाल करती है और उसके अपने वित्तीय घाटे को पूरा करने में भी यह पैसा काम आता है.
इसलिए सरकार के लिए भी इस पैसे का बड़ा महत्व है. वह भी चाहती है कि इसमें पैसे आते रहें. अब अगर लोगों में बचत करने की आदत कम हो जायेगी तो ज़ाहिर है कि सरकार पर भी दबाव पड़ेगा कि वह अन्य स्रोतों से पैसे जुटाये और वह महंगा ही होगा. यह बात काफी महत्वपूर्ण है और इसलिए ताज्जुब है कि सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है. पहले सरकार इसे प्रोत्साहित करती रही है लेकिन अब उसकी नीतियां बदल रही हैं.
अगर आपको 2008 की विश्वव्यापी मंदी याद हो तो यह भी याद होगा कि भारत और भारतीयों ने कैसे इस महामंदी का सामना किया. उस समय यह बचत आम आदमी के काम आया क्योंकि कंपनियों ने बड़े पैमाने पर छंटनी की और लाखों बेरोजगार हो गये. ऐसे में अपने बचत के पैसे से उन्होंने बुरा वक्त काटा. आम आदमी ही नहीं कंपनी चलाने वालों ने भी इस तरह से बुरा वक्त गुजार दिया. लेकिन अभी जिस तरह से बचत की आदत को हतोत्साहित किया जा रहा है उसके बुरे परिणाम देखने में आ सकते हैं. सिर्फ खपत आधारित अर्थव्यवस्था बनाने से काम नहीं चलेगा, आर्थिक झटकों से बचने के लिए कुशन की भी जरूरत है.
(मधुरेंद्र सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार और डिजिटल रणनीतिकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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