scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमBud Expectationमिडल क्लास के लिए अफोर्डेबल हाउसिंग अभी भी एक सपना है, टैक्स में इस बजट में छूट मिले तो बात बने

मिडल क्लास के लिए अफोर्डेबल हाउसिंग अभी भी एक सपना है, टैक्स में इस बजट में छूट मिले तो बात बने

आंकड़ों के मुताबिक 2030 तक भारत का रियल एस्टेट सेक्टर एक खरब डॉलर का होगा और इसमें अफोर्डेबल हाउसिंग की बड़ी भूमिका होगी.

Text Size:

रोटी, कपड़ा और मकान भले राजनीतिक नारा हो लेकिन यह उतना ही सच है. भारत में यह आज वास्तविकता बन गई है. देश का रियल एस्टेट इंडस्ट्री पिछले दशकों में तेजी से बढ़ा और इसने करोड़ों लोगों को कई सपने भी दिखाये. लेकिन ज्यादा विकास और निर्माण महंगे सेगमेंट में ही हुआ. ऐसे मकान जिन्हें मिडल क्लास या फिर लोअर मिडल क्लास खरीदना या बनाना चाहता है वह अभी भी लक्ष्य से काफी दूर है.

यह सेगमेंट ही अफोर्डेबेल हाउसिंग है और इसकी देश को सबसे ज्यादा जरूरत है. सच तो यह है कि इसकी मांग कुल हाउसिंग मांग का 95 फीसदी है जो बहुत बड़ी संख्या है और इसके लिए बहुत संसाधन चाहिए. आने वाले समय में देश को कम से कम 4 करोड़ मकानों की जरूरत है क्योंकि शहरीकरण की रफ्तार भी तेज है. गांवों से लोगों का लगातार पलायन हो रहा है और शहरों में मकानों की जरूरत बढ़ती जा रही है.

आंकड़ों के मुताबिक 2030 तक भारत का रियल एस्टेट सेक्टर एक खरब डॉलर का होगा और इसमें अफोर्डेबल हाउसिंग की बड़ी भूमिका होगी.

इस साल के अंत तक भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश हो जायेगा और इस विशाल आबादी में 2.1 फीसदी प्रति वर्ष का इज़ाफा होता रहेगा. ज़ाहीर है कि मकानों की मांग भी आसमान छूती रहेगी और सरकारें इस पर काम करती रहेंगी. लेकिन आम आदमी के लिए इसमें सबसे बड़ी बाधा क्रय शक्ति में कमी है. मकान बनाने की लागत में पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. सन् 2013 तक तो देश में रियल एस्टेट जबर्दस्त प्रगति करता रहा लेकिन उसके बाद उसमें गिरावट आने लगी.

एक समय तो यह देश की जीडीपी में 13 फीसदी का योगदान कर रहा था जो समय के साथ गिरता चला गया. लालची बिल्डरों, नौकरशाही की बाधाएं, अधकचरे नियम-कानून, स्वार्थी राजनीतिक नेता और अंधाधुंध मकानों का निर्माण-इन सभी ने देश में रियल एस्टेट क्षेत्र की प्रगति में बाधा पहुंचा दी. रियल एस्टेट क्षेत्र तेजी से नीचे जाने लगा. एक समय देश का दूसरा सबसे बड़ा इमप्लायर रहने वाला यह क्षेत्र कमज़ोर पड़ता चला गया.

हर बड़े शहर में ओवर सप्लाई की स्थिति बन गई, लाखों इकाइयां बिना बिके धरी रह गईं. निवेशकों के अरबों-खरबों रुपये फंस गये और बेईमान बिल्डर प्रोजेक्ट अधूरा छोड़कर भाग गये. निराश निवेशकों ने अदालतों का दरवाजा खटखटाया तो थोड़ी बहुत ही राहत मिल पाई. हालात आज भी बहुत सुधरे नहीं.

लेकिन इस दौरान एक बात जरूर हुई कि सरकार का ध्यान अफोर्डेबल हाउसिंग पर गया और उसने कई कदम भी उठाये. बिल्डरों को कम कीमत वाले मकान बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया और मकान बनने भी शुरू हुए लेकिन मांग बहुत ज्यादा है और उसकी तुलना में सप्लाई कुछ भी नहीं. कोविड काल में जब करोड़ों की तादाद में लोग शहरों को छोड़कर जाने लगे तो अफोर्डेबल हाउसिंग की जरूरत ज्यादा समझ में आने लगी. अगर इस दिशा में ठोस काम हुए होते तो आज इतनी दयनीय स्थिति नहीं होती.


यह भी पढ़ें: इन्फ्लेशन टार्गेटिंग कितना कारगर? IMF ने RBI सहित अन्य देशों के सेंट्रल बैंकों की पॉलिसी पर जताया संदेह


अफोर्डेबल हाउस की राह में बहुत सी बाधाएं हैं

यहां यह समझना जरूरी है कि अफोर्डेबल हाउसिंग की राह में बहुत सी बाधाएं हैं. सबसे बड़ी बाधा तो ज़मीन की है जो आसानी से उपलब्ध नहीं है. बड़े शहरों में ज़मीनों के भाव इतने ज्यादा हैं कि वहां ऐसे मकान बनाने की बात सोची भी नहीं जा सकती है. ऐसे में इस सेक्टर को सरकार की मदद की जरूरत है और वह ज़मीन मुहैया करा सकती है और प्राइवेट-पब्लिक पार्टिशिपेशन यानी पीपीपी मॉडल की मदद से इसे आगे बढ़ा सकती है. यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि इस तरह के मकानों की जरूरत उन लोगों को ज्यादा है जिनकी आय 20 से 40 हजार रुपये प्रति महीने होती है और यहां पर ही पेंच फंसता है.

ऐसे लोग ईएमआई और मकान भाड़ा दोनों एक साथ दे नहीं सकते हैं. इसके लिए जरूरी है कि ऐसी व्यवस्था हो कि वे एक शुरूआती राशि देने के बाद मकानों को अपने कब्जे में ले लें ताकि वे दोहरी मार से बचें.

अफोर्डेबल हाउसिंग यानी सस्ते मकान तो बन रहे हैं, लेकिन यहां एक बड़ी समस्या है कि ये शहरों और काम के केन्द्रों जिन्हें वर्क प्लेस कहते हैं, वहां से काफी दूर होते हैं. कनेक्टिविटी एक बहुत बड़ा मुद्दा है जिस पर ध्यान देने की तत्काल जरूरत है. अपने काम के स्थान पर जल्दी-जल्दी पहुंचना हर कोई चाहता है. इसके लिए सड़कें और ट्रांसपोर्टे के अन्य साधनों की पूरी व्यवस्था होनी चाहती है. इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि शहरों में भीड़-भाड़ कम होगी और लोगों को भी अपने काम के जगह जाने में सुविधा होगी. इससे आसपास के इलाकों का भी विकास होगा और अन्य तरह के धंधे भी पनपेंगे.

जब हाउसिंग की बात होती है तो सबसे बड़ा मुद्दा टैक्स का होता है और देश में इस समय टैक्स तथा ड्यूटी बहुत ज्यादा है. राज्य सरकारों की कमाई का एक बड़ा साधन मकानों की रजिस्ट्री है. इससे उन्हें मोटी रकम मिलती है और इस वज़ह से मकानों की कीमतें भी बढ़ जाती हैं. एक रिसर्च के मुताबिक कई तरह के टैक्स, जैसे वैट, सर्विस टैक्स, स्टांप ड्यूटी वगैरह कुल दाम का 30 फीसदी से 35 फीसदी तक होते हैं और अगर प्रोजेक्ट में विलंब हो गया तो लागत और बढ़ जाती है. अगर मकान बहुत दूर हुए तो ट्रांसपोर्ट का अलग खर्च एक बाधा बन जाता है.

सरकार ने हालांकि इस सेगमेंट के लिए कुछ रियायतें भी दी हैं लेकिन इससे बात नहीं बन रही है. इस सेगमेंट को सहारे की सख्त जरूरत है.

अफोर्डेंबल हाउसिंग समय की मांग है

इस देश में रियल एस्टेट को बड़ी तादाद में नियम-कानूनों का पालन करना होता है और हालत यह है कि अभी भी एक प्रोजेक्ट शुरू करने के पहले बिल्डर को कम से कम 50 तरह के नियम-कानूनों का पालन करना होता है. यह बहुत ही विरोधाभासी है और सरकार के लक्ष्य में एक बड़ी बाधा. सरकार से कई बार अपील करने के बाद भी इस दिशा में कोई बड़ा काम नहीं हुआ है. रियल एस्टेट सेक्टर की गैर-सरकारी संस्था नारेडको (नेशनल रियल एस्टेट डेवलपमेंट काउंसिल) ने इस दिशा में सरकार से कई बार अपील की लेकिन उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. कानूनों की लंबी सूची में कटौती नहीं हुई. अभी भी बिल्डर सरकारी अधिकारियों के चक्कर काटते रहते हैं.

इस सेगमेंट की एक और परेशानी है कि इसमें बड़े डेवलपरों या बिल्डरों की खास दिलचस्पी नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि इसमें मोटी कमाई नहीं है. लेकिन सच्चाई है कि इस सेगमेंट में भी बहुत कमाई है बशर्ते डेवलपर इसमें बड़े पैमाने पर काम करें. हाई एंड मकानों के निर्माण की बजाय वे इन अफोर्डेबल मकानों का बड़े पैमाने पर निर्माण करें तो इसमें भी कमाई है क्योंकि इनकी लागत कम बैठती है. इनमें भी मार्जिन अच्छा है और अगर बड़े पैमाने पर निर्माण किये जायें तो इस तरह के प्रोजेक्ट भी काफी रिटर्न दे सकते हैं क्योंकि इस सेगमेंट के मकानों की मांग लग्जरी हाउसिंग से कई सौ गुना ज्यादा है.

यहां पर यह सरकारों का फर्ज बनता है कि वह उन्हें उत्साहित करें और सुविधाएं तथा जमीन उपलब्ध करायें. अफोर्डेंबल हाउसिंग समय की मांग है और इसमें बड़ा निवेश न केवल रियल एस्टेट को पटरी पर ला सकता है बल्कि जीडीपी को बढ़ाने में मदद कर सकता है. हाई एंड हाउसिंग की तुलना में यह सेगमेंट दीर्घगामी है. अब देखना है कि वित्त मंत्री किस तरह से इस सेगमेंट की मदद कर सकती हैं और कितनी बाधाएं दूर कर सकती हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. विचार निजी हैं.)


यह भी पढ़े: टैक्स वसूली तो खूब बढ़ी, क्या मिडिल क्लास को राहत मिलेगी


share & View comments