हरियाणा में बीजेपी की सरकार बन गयी और उसे एक नया सहयोगी भी मिल गया लेकिन महाराष्ट्र का पेंच फंसा हुआ है. शिवसेना का फिफ्टी-फिफ्टी फार्मूला बीजेपी के गले की हड्डी बना हुआ है. मामला अमित शाह से होते हुए आरएसएस के दरबार तक पहुंच चुका है. नितिन गडकरी की भी एंट्री हो गयी है. सोनिया गांधी से मिलने के बाद शरद पवार और कांग्रेस किसी नयी आहट के इंतज़ार में चौकन्ने हैं. उद्धव के सबसे भरोसेमंद दूत संजय राउत की शरद पवार से मुलाकात भी हो चुकी है.
महाराष्ट्र के सियासी ड्रामे पर नज़र सबकी है, लेकिन एक शख्स की शायद सबसे ज्यादा होगी जिनका नाम नीतीश कुमार है, क्योंकि अगले ही साल ऐसी स्थितियों का सामना नीतीश कुमार को बिहार में भी करना पड़ सकता है.
मुमकिन है कि महाराष्ट्र का झगड़ा फिलहाल सुलझ जाए, लेकिन बीजेपी का गठबंधन को लेकर नजरिया खुलकर सामने आ गया है. जब जरूरत हुई तो, सत्ता और अपने विस्तार के लिए सहयोगियों से गठबंधन करना और जरूरत ख़त्म होते ही उसे तोड़ देने की कला में बीजेपी को महारत हासिल है. उसे जब लगा तो मायावती से गठबंधन कर यूपी में सामाजिक समरसता का अपना गणित ठीक किया. जरूरत पड़ी तो समय-समय पर ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, करुणानिधि और रामविलास पासवान को अपना दोस्त बनाया.
यह भी पढ़ें: अड़ना शिवसेना की मजबूरी है, वरना बीजेपी उसे खा लेगी
एक वक्त आया कि बीजेपी ने फारूक अब्दुल्ला को भी अपने साथ लिया और जब कश्मीर घाटी में जमीन तलाशने की दरकार हुई तो महबूबा मुफ़्ती से हाथ मिलाकर सरकार बनायी और करीब ढाई साल तक चलायी भी.
हरियाणा ताज़ा उदाहरण है. हरियाणा में बीजेपी बहुमत से महज 5 सीट पीछे रह गयी तो उसने तुरंत ओम प्रकाश चौटाला के पोते और अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला की जेजेपी से हाथ मिलाने में देरी नहीं की. इस नए गठबंधन का क्या हश्र होगा ये अभी भविष्य के गर्भ में है. लेकिन इतिहास बताता है की बीजेपी को ऐसा गठबंधन तभी तक स्वीकार है जब तक सत्ता में बने रहने के लिए वह जरूरी हो.
ऐसा नहीं है कि गठबंधन करने वाले सहयोगी दलों को ये बात पता नहीं है लेकिन सत्ता में साझीदार बनना उनकी अलग तरह की मजबूरी होती है जिसका इस्तेमाल बीजेपी करती रही है. इन दलों का जनाधार अपने नेताओं को सत्ता में देखना चाहता है, ताकि सत्ता के सुख में वे भी हिस्सेदार बन सकें.
बीजेपी क्यों करती है गठबंधन
गठबंधन बनाने और फिर उसे तोड़ देने में फायदा अक्सर बीजेपी को हुआ. उसके सहयोगी अपनी जमीन गंवाते गये और बीजेपी का चुनावी ग्राफ बढ़ता गया. ये भी कह सकते हैं कि बीजेपी सहयोगियों के कंधे को सत्ता की सीढ़ी बनाती है और जब उसे लगता है कि गठबंधन के बगैर सत्ता हासिल हो सकती है तो उन्हें दरकिनार कर आगे बढ़ जाती है. इसका एक पक्ष ये भी है कि बीजेपी लंबे समय तक गठबंधन का जूनियर पार्टनर नहीं रह सकती.
इसको समझने के लिए बीजेपी के सबसे पुराने तीन सहयोगियों की कहानी के बगैर बात अधूरी होगी. जेडीयू , शिवसेना और अकाली दल- ये तीनों सहयोगी अटल-आडवाणी के जमाने से ही करीब 20 वर्षों से बीजेपी के साथ हैं. कई उतार-चढ़ाव के बावजूद ये तीनों आज भी एनडीए के सबसे विश्वसनीय घटक दल हैं. पंजाब अभी तक बीजेपी के एजेंडा में नहीं रहा और प्रकाश सिंह बादल से बीजेपी को कोई खास दिक्कत भी नहीं है.
सीनियर से जूनियर पार्टनर कैसे बनी शिवसेना
लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना का मामला एक नए मोड़ पर है. इसकी शुरुआत 2014 के विधानसभा चुनाव से हुई थी जब लोकसभा चुनाव नतीजों से उत्साहित बीजेपी ने शिवसेना का जूनियर पार्टनर बनने से इनकार कर दिया था और दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. 2014 में पहली बार शिवसेना को बीजेपी से कम सीटों पर जीत मिली और चुनाव के बाद शिवसेना जूनियर पार्टनर बनकर फिर से गठबंधन में शामिल हुई, दोनों की मिलीजुली सरकार बनी और तकरारों के साथ पूरे 5 साल चली भी.
यह भी पढ़ें: अयोध्या पर फैसले की नहीं, बल्कि मुझे बाबरी से लेकर दादरी तक के दोषियों को दंड नहीं मिलने की चिंता है
2019 लोकसभा चुनाव से पहले फिर झगड़े बढ़े लेकिन पुलवामा और उसके बाद पकिस्तान पर एयर स्ट्राइक ने पूरा परिदृश्य बदल दिया. गठबंधन टूटने से बच गया. अभी हाल के विधानसभा चुनाव में खींचतान के बाद फिर दोनों मिलकर चुनाव लड़े जिसमें शिवसेना को एक बार फिर बीजेपी का जूनियर पार्टनर बनना पड़ा. अब दोनों के बीच फिफ्टी-फिफ्टी फार्मूले के तहत ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी का झगड़ा दरअसल गठबंधन में वर्चस्व और सत्ता में ज्यादा हिस्सेदारी का झगड़ा है.
बाला साहेब ठाकरे के जमाने से ही हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रहने वाली शिवसेना इतना जल्दी छोटा भाई बनने को तैयार नहीं है लेकिन बीजेपी को बड़ा भाई मान लेने के अलावा उसके पास कोई चारा भी नहीं है. बीजेपी ने शिवसेना को एक ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है जहां उसके पास विकल्प सीमित हैं. अगर शिवसेना एनसीपी-कांग्रेस के साथ जाती है तो उसके टूट जाने का भी खतरा है.
बिहार में बीजेपी का नया दांव?
यही स्थिति अगले साल बिहार में नीतीश कुमार के साथ भी हो सकती है. 2019 लोकसभा चुनावों ठीक बाद बीजेपी ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सम्मानजनक जगह न देकर जेडीयू को एक झटका दे चुकी है. अब आये दिन बिहार बीजेपी के नेता राज्य में नीतीश कुमार को भविष्य का संकेत देना शुरु कर दिया है. बिहार बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष बनने के चंद रोज़ पहले ही संजय जायसवाल ने कहा था कि नीतीश कुमार को बीजेपी 15 साल से मुख्यमंत्री बना रही है, अब उन्हें कुर्सी छोड़कर बीजेपी को अवसर देना चाहिए.
यह भी पढ़ें: खालिस्तान की आग भड़काने की इमरान की फंतासी पूरी होने वाली नहीं, क्योंकि सिख समुदाय नादान नहीं
महाराष्ट्र के बाद अब बीजेपी का अगला एजेंडा बिहार है. यहां मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बीजेपी की नज़र है. महाराष्ट्र का घटनाक्रम नीतीश कुमार के लिए खतरे का संकेत है. ये खतरा इसलिए भी है क्योंकि 15 साल से मुख्यमंत्री रहते हुए नीतीश कुमार का करिश्मा घटा है.
बिहार में आयी बाढ़ के वक़्त प्रशासनिक नाकामियों से उनकी सुशासन बाबू वाली छवि भी धूमिल हुई है. केंद्र की मदद से बिहार का अब तक कुछ भला भी नहीं हुआ है. उनके माथे पर महागठबंधन तोड़कर बीजेपी के साथ सरकार बनाने का कलंक भी अभी पूरी तरह से मिटा नहीं है.
ये सारी बातें बीजेपी को अनुकूल अवसर मुहैया कराएंगी. बीजेपी को इसी अवसर की तलाश थी. बिहार चुनाव में अगर नीतीश को बीजेपी से एक भी सीट कम मिली तो तय मानिये कि सीएम की कुर्सी का दावा बीजेपी को होगा और बिहार अगला महाराष्ट्र बनेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेख उनके निजी विचार हैं)