जान मोहम्मद सुरजपुर कोर्ट के कॉरिडोर में चल रहे थे, तभी उन्हें कुछ ऐसा सुनाई दिया जिस पर यकीन करना मुश्किल था. पहले कोर्टरूम की गलियारों में फुसफुसाहट थी, फिर शाम 4 बजे एक व्हाट्सऐप मैसेज आया जिसने उनके डर को सच कर दिया — उत्तर प्रदेश सरकार ने 10 साल पुराने अखलाक अहमद लिंचिंग केस को वापस लेने की अर्ज़ी दे दी थी. घबराकर उन्होंने अपने वकील को फोन किया, लेकिन उनके पास भी कोई जानकारी नहीं थी.
मोहम्मद, 52 साल, अखलाक के छोटे भाई हैं.
जान मोहम्मद ने कहा, “मैंने पूरा वीकेंड डर में गुज़ारा. मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी अपने भाई के लिए लड़ते हुए बिता दी, उसे इंसाफ दिलाने के लिए. अगर वे केस वापस ले लें तो? बहुत कम लोग होते हैं जो ताकतवरों के खिलाफ लड़ने की हिम्मत रखते हैं, हम उनमें से थे.”
2015 में अखलाक मोहम्मद की ग्रेटर नोएडा के उनके गांव दादरी में भीड़ ने हत्या कर दी थी. उन पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने गाय को काटा और उसका मांस अपने फ्रिज में रखा. यह मॉब लिंचिंग का मामला पूरे उत्तर भारत को हिला देने वाला था. यह वह केस बन गया जिसने बढ़ती ‘गौरक्षा हिंसा’ को सामने ला दिया, जहां मुसलमानों को गाय काटने और बीफ खाने के शक में मार दिया जाता था. इस घटना ने अखलाक के गांव को दो हिस्सों में बांट दिया, राष्ट्रीय राजनीति को झकझोर दिया और नफरती अपराधों पर कई सालों तक बहस छेड़ दी.
10 साल बाद, जबकि ट्रायल धीरे-धीरे चल रहा था और सभी 18 आरोपी खुले घूम रहे हैं, यूपी सरकार का केस वापस लेने का फैसला मृतक परिवार को फिर से डर और चिंता में डाल रहा है. उनके 10 साल के संघर्ष को जैसे झटका लग गया है. अखलाक की हत्या ने राज्य की भूमिका पर सवाल उठाए थे — खासकर उन अल्पसंख्यकों के लिए जो सालों अदालतों में न्याय के लिए लड़ते रहे.

एक दशक बीत जाने के बाद भी गांव के लोगों के बीच की खाई नहीं भरी है. जगह पर अभी भी एक डरावनी खामोशी छाई रहती है. यहां हिंदू और मुस्लिम बच्चे अब भी साथ में क्रिकेट नहीं खेलते.
एक क्रिमिनल वकील स्वाती खन्ना ने कहा, “अगर प्रॉसिक्यूशन ने केस वापस लेने की मांग की है और अगर कोर्ट इसे पब्लिक इंटरेस्ट में मंजूरी दे देता है, तो यह भविष्य में कई ऐसे केसों के लिए खतरनाक मिसाल बन जाएगी जहां गौरक्षकों ने मुसलमानों को निशाना बनाया है.” स्वाती ने दिल्ली दंगों में कई लोगों का केस लड़ा है. उन्होंने कहा, “हम कैसे उन लोगों को खुली छूट दे सकते हैं जो धर्म के आधार पर लोगों को मारते हैं?”
सरकारी वकील ने अपने कारण बताए हैं.

एडीजीसी (गौतम बुद्ध नगर) भग सिंह भाटी ने कहा, “हमने 15 अक्टूबर को संबंधित कोर्ट में अखलाक अहमद के केस को लेकर सरकार की तरफ से जारी की गई केस वापसी की अर्जी दाखिल कर दी है. कोर्ट ने अभी इस अर्जी पर आदेश नहीं दिया है. इस मामले की सुनवाई की अगली तारीख 12 दिसंबर तय की गई है.”
गांव अब कहां है
दस साल बाद, बसहड़ा में, एक धूप वाली सर्दियों की दोपहर में गांव शांत दिखता है. परिवार अब भी अपनी गाय-बछड़ों को चराते नज़र आते हैं. गांव के एक कोने में हिंदू और मुस्लिम बच्चे अपनी-अपनी बस्तियों में क्रिकेट खेलते हैं. दोनों के बीच लगभग कोई मेलजोल नहीं है. यही वह रास्ता है जहां से भीड़ 10 साल पहले अखलाक के घर की ओर दौड़ी थी. जो गांव कभी गन्ने के खेतों से भरा होता था, अब धीरे-धीरे एक धूलभरा कस्बा बन गया है.
संकीर्ण गलियों में घर हैं, जिनके गेट हमेशा खुले रहते हैं. इन दस सालों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दूरी साफ दिखती है—खासकर इस केस के मामले में. सभी 18 आरोपी, जिनमें नाबालिग भी शामिल थे, इसी गांव के हैं. अखलाक वह पड़ोसी थे जिनके साथ बहुत से लोग बड़े हुए. किसी के लिए वह भाई जैसे थे, किसी के लिए चाचा जैसे.
अखलाक के घर से तीन घर छोड़कर अरुण रहता था. उसे भी अखलाक की हत्या वाले मामले में गिरफ्तार किया गया था. अरुण के घर का गेट भी हमेशा खुला रहता है. यहां एक संयुक्त परिवार सालों से यह एक ही लाइन दोहराता आया है: “अरुण ने कुछ नहीं किया. वह बेगुनाह था.”
परिवार ने यह बताने से इनकार कर दिया कि उन्हें कैसे और क्यों पता है कि अरुण बेगुनाह था.

धूप में अपने चार कमरों वाले घर के बाहर खड़ी अरुण की पत्नी रचना, 32, सितंबर 2015 की घटना को याद नहीं करना चाहती.
वे खींझती हैं, “दस साल हो गए. मेरे पति ने डेढ़ साल जेल में बिताए. उससे पहले वह एक वेटरनरी क्लिनिक में काम करते थे, बाद में उनकी नौकरी चली गई.”
रचना को पूरा यकीन है कि अरुण को झूठे आरोपों में फंसाया गया और उनके घर से कोई सबूत भी नहीं मिला.
वे बहुत प्रैक्टिस किए गए अंदाज़ में कहती हैं, “मेरे पति ने अखलाक को नहीं मारा, कोई साबित नहीं कर सकता. इस केस ने हमारी ज़िंदगी बर्बाद कर दी, मीडिया को और क्या चाहिए?”
अरुण के ठीक सामने संदीप का घर है. वह भी अखलाक की हत्या में शामिल होने के आरोप में जेल गया था. जब वह अपने खेत के लिए खाद लेने गया हुआ था, उसकी मां कुसुम अपने बेटे के लिए अचार के लिए हरी मिर्च काट रही थी.
संदीप उस वक्त 18 साल का था जब उसे जेल भेजा गया था. पीड़ित परिवार ने उसे भीड़ में शामिल एक व्यक्ति के रूप में पहचाना, लेकिन कुसुम ने कहा कि “घटना वाली रात वह सो रहा था.”
दो साल बाद जब वह जेल से लौटा, तो न कॉलेज जाना चाहता था और न ही काम.
कुसुम ने कहा, “मुझे उस रात एक तेज़ आवाज़ याद है.” उन्होंने आगे कहा कि जब अखलाक की हत्या हुई, वह सो रही थीं. “मेरे बेटे को तेज़ बुखार था, उसने किसी को नहीं मारा, उसे फंसाया गया.”
कुसुम ने सितंबर की वे हफ्ते पुलिस थानों में बिताए, पुलिस को समझाते हुए कि संदीप का इस घटना से कोई संबंध नहीं है.

अपने बेटे का बचाव करते हुए कुसुम ने यह भी कहा, “बालक से गलती हो जाती है”, लेकिन वे इससे आगे कुछ नहीं बोलीं.
अरुण और संदीप के अलावा, कई अन्य आरोपी छोटे-मोटे काम करते हैं, जबकि कुछ ने इस मामले से राजनीतिक करियर बनाने की कोशिश की.
रूपेंद्र राव, जो आरोपी था, उसने उत्तर प्रदेश नव निर्माण सेना के टिकट पर नोएडा से लोकसभा चुनाव भी लड़ा.
आरोपियों को “गौ रक्षक” कहकर भी सम्मानित किया गया.
बसहड़ा के परिवार अपनी ज़िंदगी फिर से शुरू कर चुके हैं. उनके पास खेत हैं, मशीनें हैं जिन्हें ठीक करना है, बच्चे हैं जिन्हें स्कूल भेजना है. लेकिन यह केस गांव की गलियों से कभी गया नहीं. गांव में अखलाक और बीफ से जुड़े अफवाहों की बातें अभी भी होती हैं, लेकिन किसी को यह नहीं पता कि जांच कहां तक पहुंची है.
सालों तक, युवा लड़कों ने नौकरी के फॉर्म में “बीसारा/बसहड़ा” लिखने से बचा. कुछ का कहना है कि गांव का नाम लिखते ही उन्हें रिजेक्ट कर दिया जाता था. गांव के लोग बताते हैं कि पास के गांव वाले बसहड़ा को “अखलाक का मोहल्ला” और “अपराधियों का गांव” बुलाने लगे थे. कई हिंदू और मुस्लिम परिवार महीनों तक रिश्तेदारों के घर रहे, यह तय नहीं कर पा रहे थे कि सांप्रदायिक तनाव के बाद वापस लौटें या नहीं.
प्रधान के कार्यालय के बाहर इंतज़ार कर रहे 23 साल के कॉलेज स्टूडेंय रवि ने कहा, “उस हादसे के बाद, हर घर में राजनीति होने लगी.” रवि बचपन से अखलाक की हत्या की कहानियां सुन रहे हैं. अफवाहें बहुत वक्त से चली आ रही हैं.
संजय राणा, 49, जो अब अर्थमूवर कॉन्ट्रैक्टर हैं, 2010 से 2016 तक बसहड़ा के प्रधान थे. अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने गांव को एक शांत बस्ती से बदलकर राजनीतिक तनाव वाले इलाके में बदलते देखा.
संजय जिनका घर गांव से 2 किमी दूर है, बताते हैं, “जब मुझे खबर मिली कि किसी ने बसहड़ा में गाय काटी है, मैं दुआ कर रहा था कि तनाव दंगे तक न पहुंचे.”
जब तक पुलिस पहुंची, बहुत कुछ बदल चुका था.
संजय याद करते हैं कि कम से कम 3,000 लोग वहां इकट्ठा थे—चिल्लाते हुए, रोते हुए, गुस्से में. “गांव जैसे गायब हो गया था. हमने बड़ी मुश्किल से लोगों को हटाया, फिर हमने दानिश को सुरक्षित निकाला.
उन्होंने कहा, “पूरी भीड़ युवाओं की थी और उनका कंट्रोल खो गया था. मुझे उन्हें शांत करना पड़ा. बहुत आक्रोश था.”
न्याय के लिए एक भाई की लड़ाई
पिछले 10 साल में जान मोहम्मद की ज़िंदगी कोर्ट की तारीखों के इर्द-गिर्द घूमती रही है. दादरी की एक प्राइवेट फैक्ट्री में सीनियर टेक्नीशियन के तौर पर काम करते हुए, जान हर सुनवाई में पहुंचने के लिए बार-बार छुट्टियां लेते थे. उन्हें अब तारीखों की गिनती भी याद नहीं. कुछ सुनवाई सिर्फ पांच मिनट चलीं, कई बार तारीख आगे बढ़ गई, लेकिन उन्होंने कभी कोई तारीख मिस नहीं की.
उन्हें 2015 की हर बात याद है. 25 सितंबर को परिवार बकरीद मनाने के लिए जमा हुआ था. घर में मेहमान थे, लेकिन तीन दिन बाद सबकुछ बिखर गया. अखलाक के परिवार को वह घर छोड़ना पड़ा जिसमें वे पीढ़ियों से रह रहे थे. वे सिर्फ वही सामान ले जा पाए जो उठा सके.
जब मंदिर से ऐलान हुआ, तो भीड़ गली में घुसी और सीधे अखलाक के घर में जा पहुंची. उस समय अखलाक और उनका परिवार खाना खाकर सोने ही वाले थे.

उन्होंने कहा, “जिन लोगों ने उसे मारा, वो वही लोग थे जिनके साथ हम बड़े हुए. उन्होंने अखलाक पर हमला किया, उनकी पत्नी को मारा, उनके बेटे को आंगन में घसीटा, मेरी मां को बाथरूम में बंद कर दिया. जब तक मैं पहुंचा, सब खत्म हो चुका था. अखलाक नहीं रहा.”
उस रात के बाद गांव का माहौल पूरी तरह बदल गया.
जान ने कहा, “गांव दुश्मनी से भर गया, हमें धमकियां मिलने लगीं. उन्होंने कहा कि तुम्हें भी मार दिया जाएगा.”
17 अक्टूबर को परिवार ने रिश्तेदारों से पैसे जुटाए, जितना सामान उठा सके उठाया और गाजियाबाद के मुरादनगर में किराए के कमरों में रहने लगे.
“हम एक ही रात में अनाथ हो गए.”
अखलाक के लिए लड़ना कोई विकल्प नहीं था. यह जान और उसके परिवार के लिए मजबूरी थी. उन्होंने कहा, “अगर हम यहां रहते, तो मुश्किल होता.” उन्होंने तुरंत कानूनी लड़ाई शुरू की. “मुझे नहीं पता था सिस्टम कैसे चलता है. मैंने लड़ाई लड़ी और लड़ी, लेकिन अब डर लगता है कि सिस्टम ने मुझे और मेरे जैसे बहुतों को धोखा दे दिया.”
जान कई-कई घंटे कोर्ट में इंतज़ार करते, सफर के पैसे जोड़ते, सैकड़ों पन्नों के केस डॉक्यूमेंट की फोटो-कॉपी करवाते और वकील की फीस देते. 10 साल में उन्होंने 8–10 लाख रुपये खर्च किए, ज्यादातर अपनी बचत से और कुछ उधार लेकर.
उन्होंने कहा, “हमने कभी नारे नहीं लगाए, सड़क पर विरोध नहीं किया, मुआवज़ा नहीं मांगा. हमने किसी का ध्यान खींचने की कोशिश नहीं की, हम सिर्फ कानूनी तरीके से न्याय चाहते थे.”
यह केस उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है और परिवार ने जो कुछ दे सकते थे, दे दिया, लेकिन इतने सालों बाद भी जान के मन में एक पछतावा है—कि वह उस रात अपने भाई के पास नहीं थे.
उन्होंने कहा, “मुझे देर वाली बस पकड़कर घर पहुंच जाना चाहिए था. मैं भीड़ का सामना कर सकता था. अखलाक की आखिरी तस्वीर मेरे पास उसकी टूटी हुई खोपड़ी की है. मैंने उसे ‘अस्सलाम वालेकुम’ कहा था, लेकिन वह जवाब नहीं दे पाया.”
अगर यह केस वापस लिया गया, तो जान के मुताबिक, अल्पसंख्यकों से जुड़े केस धीरे-धीरे न्याय व्यवस्था से गायब हो जाएंगे.
जान ने कहा, “अगर आरोपियों को माफ कर दिया गया, तो अगला अपराध करने वालों को और हिम्मत मिलेगी.” उन्होंने कहा, “भारत ने कई अखलाक देखे हैं. हम कब रुकेंगे?”
राज्य का कानूनी पक्ष और मिसाल
आंखों-देखे गवाहों के बयानों में फर्क, जहां उन्होंने अलग-अलग बयान दिए कि घटना के वक्त कितने आरोपी मौजूद थे—यह वापसी आवेदन में बताई गई वजहों में से एक है. सबसे बड़ी वजह यह है कि संविधान “हर नागरिक को बराबर सुरक्षा देता है, चाहे वह किसी भी केस में वादी हो, प्रतिवादी हो या आरोपी.”
आवेदन में लिखा है कि “भारतीय नागरिक के रूप में, हर व्यक्ति को भारतीय संविधान की सुरक्षा मिलती है. उनके अधिकार माननीय अदालत द्वारा सुरक्षित हैं.”
मामला फिलहाल गौतम बुद्ध नगर की फास्ट-ट्रैक कोर्ट, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत में लंबित है.
अभियोजन पक्ष ने यह भी कहा है कि “केस डायरी में कोई ऐसा सबूत नहीं है” जो यह दिखाता हो कि अखलाक के परिवार और आरोपियों के बीच “कोई पुरानी दुश्मनी या रंजिश या शत्रुता” थी.
वापसी आवेदन में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि “समाज में बड़ी स्तर पर सामाजिक सद्भाव बहाल करने के उद्देश्य से” और 26 अगस्त 2025 को विशेष सचिव, न्याय अनुभाग-5 (क्रिमिनल) द्वारा जारी सरकारी आदेश के अनुसार, राज्य सरकार धारा 321 सीआरपीसी के तहत केस वापस लेने की अनुमति चाहती है.
प्रोसिक्यूटर का यह अनुरोध आने से ही केस खत्म नहीं हो जाता. सुरजपुर अदालत को अपने स्तर पर तय करना होगा कि केस वापस लेना न्याय के हित में है या नहीं. अदालत को यह भी देखना होगा कि ट्रायल किस स्थिति में है और अब तक कौन-कौन से सबूत दर्ज हो चुके हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने शियोनंदन पासवान, राजेंद्र कुमार जैन और स्टेट ऑफ पंजाब बनाम यूनियन ऑफ इंडिया जैसे कई फैसलों में कहा है कि अदालतों को यह सुनिश्चित करना होगा कि केस वापस लेना राजनीतिक कारणों या किसी बाहरी दबाव में आरोपियों को बचाने की कोशिश न हो.
अगली सुनवाई में, अदालत शिकायतकर्ता, पीड़ित या किसी भी “पीड़ित व्यक्ति” की आपत्तियां भी सुन सकती है.
अखलाक के परिवार को पूरा अधिकार है कि वे सुरजपुर अदालत में लिखित आपत्ति देकर केस वापसी का विरोध करें. अतीत में अदालतों ने हत्या, दंगे और सांप्रदायिक हिंसा जैसे मामलों में राज्य सरकार की वापसी की मांग ठुकराई है—जब पीड़ित परिवारों ने इसका विरोध किया.
एक राष्ट्रीय सुर्खी
अखलाक की मौत कुछ ही दिनों में एक राष्ट्रीय सुर्खी बन गई. महीनों तक सैटेलाइट वैन गांव की तंग गलियों में खड़ी रहीं. सभी पार्टियों के नेता बड़े-बड़े काफिलों में आए. फेसबुक और इंस्टाग्राम पर तस्वीरें शेयर हुईं. कई लेखक हत्या के विरोध में अपने अवॉर्ड वापस कर गए.
भारत एक साल पहले ही बदल चुका था. नरेंद्र मोदी 2014 में सत्ता में आए, और कई लोगों के लिए यह घटना गाय-रक्षा और मुस्लिम पहचान पर एक नई, तेज बहस की शुरुआत थी.
हत्या के कुछ ही हफ्तों बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुप्पी तोड़ी.

मोदी ने अक्टूबर 2015 में बिहार के नवादा की एक चुनाव रैली में कहा, “हिंदुओं को तय करना चाहिए कि उन्हें मुसलमानों से लड़ना है या गरीबी से. मुसलमानों को तय करना चाहिए कि उन्हें हिंदुओं से लड़ना है या गरीबी से. दोनों को मिलकर गरीबी से लड़ना चाहिए. देश एकजुट रहना चाहिए, सिर्फ साम्प्रदायिक सद्भाव और भाईचारा ही देश को आगे ले जाएगा. लोगों को नेताओं के विवादित बयान नज़रअंदाज़ करने चाहिए, क्योंकि वे राजनीतिक फायदा लेने के लिए ऐसा कर रहे हैं.”
जांच ने भी अपने घाव झेले हैं. इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह, शुरुआती जांच करने वाले पहले आईओ, बाद में बुलंदशहर हिंसा में मारे गए. आज भी उनके नाम पर दादरी थाने में सन्नाटा छा जाता है.
एक पुलिसवाले ने मुस्कुराते हुए कहा, “हो गए 10 साल उस केस को, अब क्या लिखोगे?”
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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