बिहार में एनडीए की ज़बरदस्त जीत ने उन सबकी उम्मीदों को हिला दिया, जिनके अनुमान सबसे आशावादी एग्ज़िट पोल पर टिके थे. यह तो लगभग तय माना जा रहा था कि एनडीए जीतेगा. सिर्फ एग्ज़िट पोल ही नहीं, बल्कि ज़्यादातर पत्रकार जो बिहार घूमकर आए, वो भी यही कह रहे थे. यहां तक कि कांग्रेस नेतृत्व ने भी बिहार को लगभग छोड़ दिया था, शायद यही वजह है कि नतीजे आते समय कांग्रेस के बड़े नेताओं ने कोई उम्मीद नहीं जताई.
लेकिन इतना बड़ा लैंडस्लाइड? इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी.
तो फिर हुआ क्या? अब जब नतीजे आ गए हैं, तो तरह–तरह की व्याख्याएं सामने आएंगी, लेकिन याद रखना चाहिए कि जो लोग आज बताएंगे कि एनडीए कैसे जीता, वे भी पहले इससे बिल्कुल अनजान थे.
चुनाव की मुख्य बातें
इस चुनाव की कई असाधारण बातें हैं. पहली है रिकॉर्ड मतदान. दुनिया के ज़्यादातर लोकतंत्रों में (भारत सहित) ज़्यादा मतदान का मतलब होता है कि वोटर नाराज़ हैं. लोग इसलिए अधिक संख्या में वोट डालने निकलते हैं ताकि सरकार को गिरा सकें, लेकिन इस बार ज़्यादा संख्या में लोग सरकार के काम को मंज़ूरी देने के लिए निकले. यह लगभग कभी नहीं देखा गया.
दूसरी बात है महिलाओं का वोट. सभी सर्वे हमेशा से दिखाते रहे हैं कि महिला वोटर नीतीश कुमार को पसंद करती हैं. इस बार चुनाव आयोग ने बताया कि महिलाओं ने पहले से ज़्यादा संख्या में वोट डाले (कई सीटों पर महिलाओं ने पुरुषों से ज़्यादा वोट किए). एग्ज़िट पोल भी बताते हैं कि ज़्यादातर महिलाओं ने हमेशा की तरह कुमार को ही वोट दिया.
लेकिन इस बार इतने ज़्यादा महिलाओं ने नीतीश कुमार को क्यों चुना? एक जवाब यह है कि चुनाव से ठीक पहले दी गई आर्थिक मदद ने उन्हें खुश किया. लेकिन क्या सिर्फ़ यही वजह है?
तीसरी असाधारण बात यह है कि इस नतीजे ने वोटर व्यवहार के सारे नियम उलट दिए. आमतौर पर माना जाता है कि अगर सरकार लोगों की ज़िंदगी नहीं सुधारे, तो लोग उसे हटा देते हैं.
बिहार भारत का सबसे गरीब राज्य है. कुछ विकास कार्यों के बावजूद, इसकी प्रति व्यक्ति आय भारत में सबसे कम है. उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र में साल 2024 में प्रति व्यक्ति आय 2.78 लाख रुपये थी. बिहार में यह सिर्फ 69,321 रुपये थी. और स्थिर कीमतों पर प्रति व्यक्ति आय तो सिर्फ़ 33,966 रुपये थी.
बेरोज़गारी बहुत बड़ी समस्या है. युवा नाराज़ हैं और रोज़गार के लिए दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है. इतनी आर्थिक मुश्किलों के बीच उम्मीद की जाती कि लोग सरकार के खिलाफ वोट देंगे, लेकिन नीतीश कुमार, जिन्होंने 20 साल से इस आर्थिक संकट के बीच सरकार चलाई, उन्हें भारी बहुमत मिला.
और चौथी है नीतीश कुमार की अपनी सफलता. मैं उनकी मानसिक या शारीरिक अवस्था पर टिप्पणी नहीं करना चाहता, लेकिन यह कहना ठीक होगा कि उनकी ऊर्जा और सेहत शायद जो बाइडन के मुकाबले भी कम दिखती है, जिन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव से हटना पड़ा था.
फिर भी, बिहार के वोटरों को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा और उन्होंने कुमार को भारी बहुमत से फिर चुन लिया.
नतीजों की सबसे लोकप्रिय व्याख्या यह है कि बिहार अभी भी जाति के आधार पर वोट देता है. एनडीए ने जातिगत समीकरण ठीक से साधे और जीत गया. महागठबंधन को इतनी “यादव–प्रधान” छवि मिली कि बाकी जातियां उससे दूर हो गईं.
यह बातें सही हो सकती हैं, लेकिन इससे बिहार के भविष्य के बारे में क्या पता चलता है? अगर वोटर हर दूसरी बात छोड़कर सिर्फ पहचान (जाति) के आधार पर वोट करते रहेंगे, तो क्या बिहार कभी आर्थिक रूप से आगे बढ़ पाएगा? या फिर यह हमेशा भारत का सबसे गरीब राज्य बना रहेगा?
कुछ संकेत बदलते माहौल की तरफ भी इशारा करते हैं. एक्सिस के एग्ज़िट पोल—जिसने एनडीए की जीत सही बताई, से पता चला कि युवा वोटर समृद्धि और नौकरियों (या उनकी कमी) को लेकर बुजुर्गों और मध्यम आयु वर्ग से ज़्यादा चिंतित हैं. अगले चुनाव तक युवा वोटरों की संख्या बढ़ेगी, तो नतीजों पर इसका असर पड़ सकता है.
एक और बदलाव तय है. बिहार की राजनीति में जो दो बड़े नेता रहे, वे मंडल राजनीति से उभरे. लालू प्रसाद यादव तो लगभग राजनीति से हट चुके हैं और नीतीश कुमार भी शायद अगले चुनाव तक सक्रिय न रहें.
तो बिहार नई राजनीति के दौर में प्रवेश करेगा. क्या पोस्ट–लालू–नीतीश दौर में फोकस बदलेगा? क्या नई पीढ़ी आर्थिक मुद्दों पर ज्यादा जोर देगी? और क्या बीजेपी—जो बिहार में पहले ही बड़ी ताकत है—जाति की जगह धर्म आधारित पहचान की राजनीति को आगे बढ़ाएगी?
देखना दिलचस्प होगा.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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