चेन्नई: सोमवार की उमस भरी शाम को एमजीआर चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन का प्लेटफॉर्म एक अनकहे दर्द की गवाही दे रहा था. तिरुप्पुर के होजरी एक्सपोर्ट हब से आए सैकड़ों प्रवासी मजदूर बैग, ट्रॉली और बिस्तर समेटे, थके कदमों और बुझी उम्मीदों के साथ ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे. अमेरिकी द्वारा भारत पर लगाए गए 50 फीसदी टैरिफ का असर सीधे इनकी ज़िंदगी पर पड़ा है—जिन्होंने तिरुप्पुर को अपनी रोज़गार की मंज़िल बनाया था. गंगा कावेरी एक्सप्रेस में चढ़ते हुए वे केवल घर का रास्ता नहीं पकड़ रहे, बल्कि पीछे छूटते सपनों और टूटी उम्मीदों को भी साथ लिए जा रहे हैं.
तिरुप्पुर के कारखानों में ऑर्डर बंद हो चुके हैं, माल स्टॉक में अटका है, और मालिक अब फालतू बैठे मज़दूरों की तनख्वाह नहीं दे पा रहे. प्रवासी मजदूर इस कीमत-संवेदनशील उद्योग से सबसे पहले बाहर कर दिए जाते हैं—वो भी दिवाली से करीब एक महीना पहले. उद्योग का अनुमान है कि करीब आधे प्रवासी मजदूरों की नौकरी चली गई है.
बिहार के समस्तीपुर ज़िले के कुलदीप ने कहा, “पहले हफ्ते में छह दिन काम मिलता था. अब मुश्किल से दो दिन मिलता है.” हाथ में ट्रॉली बैग लिए उन्होंने कहा, “जिन दिनों काम पर जाते भी हैं, तब भी काम पूरा दिन भरने लायक नहीं होता. किराया और खाना आमदनी से ज़्यादा हो गया है. ऐसे में घर जाना ही बेहतर है, जब तक हालात सुधर नहीं जाते.”
उनकी उम्मीद बस इतनी है कि ट्रंप और मोदी सरकारें ऐसा व्यापार समझौता कर लें जिससे तिरुप्पुर की इंडस्ट्री न बिखरे.
गंगा कावेरी एक्सप्रेस जैसे ही चेन्नई सेंट्रल से निकली, मजदूरों के बैग के साथ उनकी निराशा और जीविका की चिंता भी घर जा रही थी. कुछ को भरोसा है कि हालात सुधरेंगे तो वे वापस लौट आएंगे, लेकिन कुछ अब निश्चित नहीं हैं.
मैंने सोचा था बेटी को तिरुप्पुर में इंग्लिश-मीडियम स्कूल में पढ़ाऊंगा. अब तो गांव लौटकर उसे सरकारी स्कूल में डालना होगा— दिलीप कुमार, बिहार से आए वस्त्रकर्मी
तिरुप्पुर टेक्सटाइल उद्योग, जो भारत के एक-तिहाई टेक्सटाइल निर्यात का सप्लायर है, टैरिफ लागू होने के बाद से ही संकट में है. तिरुप्पुर एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन (टीईए) के अनुसार, 2,500 निर्यात इकाइयों में से करीब 20 फीसदी बंद हो चुकी हैं और आधी ने कामकाज घटा दिया है.
झारखंड से आए दर्जियों का एक समूह, जो करीब सात साल से तिरुप्पुर में काम कर रहा था, वह भी कुलदीप जैसी कहानी सुनाता है.
झारखंड के एक दर्ज़ी पठान कुमार ने कहा, “हम यहां सपने लेकर आए थे, छोटी-सी ज़िंदगी बनाई, लेकिन अब सब बिखर रहा है. मालिक कहते हैं कि उनके पास काम नहीं है. खाली बैठकर क्या करें?”

अमेरिका तिरुप्पुर का सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार है. अकेले यह शहर भारत के 90% कॉटन निटवेअर और कुल निटवेअर एक्सपोर्ट का 55% हिस्सा देता है. 2024-25 में तिरुप्पुर से 39,618 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ, जिसमें से 30-35% अमेरिका भेजा गया.
करुमठामपट्टी (तिरुप्पुर) के कारोबारी एस. कृष्णमूर्ति ने कहा, “हमारा कारोबार करीब 40% घट गया है. अमेरिका से ऑर्डर लगभग बंद हैं. जब डिमांड ही नहीं है, तो फैक्ट्रियां पूरी क्षमता पर कैसे चलें.”
टीईए का कहना है कि 2,500 निर्यात इकाइयों में से 50% ने अपने आधे कर्मचारी निकाल दिए हैं.
संस्थापक ए. सक्थिवेल ने कहा, “संकट वास्तविक है. कई निर्यातकों को अपने अतिरिक्त यूनिट बंद करने पड़े हैं क्योंकि बढ़े हुए टैरिफ के चलते वे अमेरिकी ग्राहकों को सामान नहीं दे पा रहे हैं.”
प्रवासी मजदूरों के लिए इसका मतलब है—या तो कम दिनों का काम और कम वेतन, या फिर शहर छोड़कर जीविका की तलाश.
उत्तर प्रदेश के 27 साल के अथीप एक हफ्ता पहले तिरुप्पुर छोड़कर चेन्नई आए थ, उन्हें निर्माण स्थल पर पेंटिंग का काम मिल गया, लेकिन तनख्वाह और हालात बहुत खराब हैं.
कई मजदूरों ने कहा कि यह संकट कोविड जैसा ही है.
कुलदीप ने कहा, “फर्क इतना है कि इस बार हमारे पास पब्लिक ट्रांसपोर्ट और घर लौटने के लिए पैसे हैं.”
राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक तिरुप्पुर जिले में 2.1 लाख पंजीकृत प्रवासी मजदूर हैं, जो पूरे राज्य में सबसे ज़्यादा है. ट्रेड यूनियन का कहना है कि असली संख्या करीब 3 लाख है.
सीपीआईएम से संबद्ध सीटू (सीआईटीयू) के जिला महासचिव जी. संपत ने कहा कि तिरुप्पुर के 5 लाख मजदूरों में आधे से ज्यादा बिहार, झारखंड, ओडिशा और यूपी से आते हैं.
उन्होंने कहा, “ये मजदूर सिलाई, इस्त्री, पैकिंग जैसे ज़्यादातर काम करते हैं, जबकि स्थानीय लोग सुपरवाइजरी भूमिकाओं में रहते हैं. जब ऑर्डर रुकते हैं, तो सबसे पहले प्रवासियों पर असर पड़ता है.”
बड़े पैमाने पर पलायन
चेन्नई सेंट्रल पर जैसे ही गंगा कावेरी एक्सप्रेस रवाना होने को तैयार हुई, कई मजदूर तिरुप्पुर में अपना भविष्य बनाने के अधूरे सपनों को याद कर रहे थे.
बिहार के दिलीप कुमार जिनकी दो बेटियां हैं, उन्होंने कहा, “मैंने सोचा था कि मेरी बेटी तिरुप्पुर में इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ेगी. अब हमें गांव लौटकर उसे सरकारी स्कूल में डालना होगा.”
कुछ लोग कर्ज़ और अपने गांव में काम मिलने की चिंता में थे.
24 साल के विक्रम सिंह (उत्तर प्रदेश) ने कहा, “मैंने बाइक खरीदने और घर पैसे भेजने के लिए 50 हज़ार रुपये उधार लिए थे. अब समझ नहीं आ रहा कि यह पैसा कैसे लौटाऊं.”
भीड़ में महिलाएं बहुत कम थीं. अपनी बच्ची को गोद में लिए नंदिता देवी बोलीं, “मैंने सोचा था कि तिरुप्पुर में हमें स्थिर आय और सुकूनभरी ज़िंदगी मिलेगी, लेकिन अब तो गुज़ारा ही मुश्किल हो गया है. दो वक्त की रोटी और काम के लिए फिर इधर-उधर भटकना पड़ रहा है.”
मज़दूर यूनियन के जिला महासचिव जी. संपत ने कहा, “यह सिर्फ उद्योग की बात नहीं है, बल्कि उन लाखों परिवारों का मामला है जो इन मज़दूरी पर टिकी ज़िंदगी जीते हैं. अगर मज़दूर हमेशा के लिए गांव लौट गए तो इस श्रमशक्ति को वापस बनाने में सालों लग जाएंगे.”
जो लोग तिरुप्पुर में रह भी गए, वे अब कपड़ा उद्योग से बाहर काम तलाश रहे हैं. कोई कंस्ट्रक्शन में चला गया तो कोई दूसरे शहरों की ओर.
मैनपावर एजेंसी के मालिक आर. संथोष कुमार ने कहा, “अब मैं प्रवासी मजदूरों को टेक्सटाइल यूनिट्स में नहीं भेज पा रहा हूं, क्योंकि सभी ने उत्पादन घटा दिया है. आज ही मैंने 50 लोगों को बिहार वापस भेजा. कुछ ने नौकरी की इच्छा जताई तो मैंने उन्हें चेन्नई और कोयंबटूर में कंस्ट्रक्शन काम के लिए भेजा.”

मैनपावर एजेंसियों के मुताबिक, 40 साल से ऊपर के मज़दूर घर लौटने की सोच रहे हैं, जबकि 20-30 साल के युवा चेन्नई और कोयंबटूर में वैकल्पिक नौकरियां ढूंढ रहे हैं.
ऐसा ही एक मामला है 27 साल के अथीप का, जो उत्तर प्रदेश से हैं. वे पिछले हफ्ते तिरुप्पुर छोड़कर चेन्नई आए और कंस्ट्रक्शन साइट पर पेंटिंग का काम ढूंढ लिया, लेकिन न वेतन संतोषजनक है और न हालात.
अथीप ने कहा, “तिरुप्पुर में मुझे रोज़ाना 700 से 900 रुपये तक मिल जाते थे. यहां पेंटिंग में कम पैसा मिलता है क्योंकि मैं इस काम में नया हूं. मुझे लगता है गांव लौट जाना बेहतर है, बजाय इसके कि नए काम और जगह में यूं ही संघर्ष करूं.”
मज़दूर संगठनों का कहना है कि अथीप की कहानी अकेली नहीं है, बल्कि यह एक बड़े पलायन का हिस्सा है, जो दिखाता है कि स्थायी रोज़गार जाते ही प्रवासी मजदूर कितने असुरक्षित हो जाते हैं.
निर्यातक और एसोसिएशन चेतावनी दे रहे हैं कि अगर राहत नहीं मिली तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे. तिरुप्पुर एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन का अनुमान है कि करीब 20% नौकरियां खत्म हो सकती हैं.
संपत ने कहा, “इन मज़दूरों के पास बचत नहीं होती. वे किराए के कमरों में रहते हैं और हर हफ्ते बेरोज़गारी के साथ उनका कर्ज़ बढ़ता जाता है. यही वजह है कि आज चेन्नई और तिरुप्पुर से निकलने वाली ट्रेनें मज़दूरों से भरी हुई हैं.”
छोटे यूनिट मालिक एस. कृष्णामूर्ति ने कहा, “हम मशीनें चालू रखने के लिए छोटे ऑर्डर ले रहे हैं, लेकिन यह टिकाऊ नहीं है. हर बिना बिक्री वाला पीस हमारे लिए बोझ है और स्टॉक बढ़ता जा रहा है.”
यूनियनों ने राज्य और केंद्र दोनों सरकारों से तुरंत कदम उठाने की मांग की है. उनकी मांग है कि मज़दूरों के लिए वेतन सहायता, उद्योगों के लिए बिजली पर सब्सिडी और अमेरिका से बातचीत की जाए.
संपत ने दोहराया, “यह सिर्फ उद्योग का नहीं, लाखों परिवारों के भविष्य का सवाल है. अगर मज़दूर हमेशा के लिए लौट गए, तो श्रमशक्ति फिर से तैयार करने में सालों लग जाएंगे.”
उत्पादन में कटौती
पल्लादम बेल्ट में आरआरके ग्रुप की पांच फैक्ट्रियों में से दो बंद हो चुकी हैं. करीब 2,000 मज़दूरों में से आधे को नौकरी से निकालना पड़ा है.
आरआरके ग्रुप के जनरल मैनेजर जयकुमार ने कहा कि कंपनी घरेलू ऑर्डर और अमेरिका के अलावा दूसरे देशों से आए निर्यात ऑर्डर पूरे करने की कोशिश कर रही है.
जयकुमार ने कहा, “लेकिन इतने कम ऑर्डर के लिए हम सभी यूनिट्स को पूरी क्षमता से नहीं चला सकते. इसलिए हमें मजबूरी में दो यूनिट्स बंद करनी पड़ीं और बाकी तीन यूनिट्स में उत्पादन घटाना पड़ा.”
छोटे यूनिट मालिक जैसे एस. कृष्णामूर्ति भी आधी से कम क्षमता पर चल रहे हैं.
कृष्णामूर्ति ने कहा, “हम सिर्फ मशीनें चालू रखने के लिए छोटे ऑर्डर ले रहे हैं, लेकिन यह टिकाऊ नहीं है. हर बिना बिक्री वाला पीस हमारे लिए बोझ है और स्टॉक बढ़ता जा रहा है.”
तिरुप्पुर के निर्यातकों को मिलने वाले कॉन्ट्रैक्ट अब बांग्लादेश और वियतनाम जैसे प्रतिस्पर्धी देशों के पास जाने की आशंका है, जिन्हें कम टैरिफ का फायदा मिलता है.के.एम. सुब्रमण्यम, अध्यक्ष, टीईए
सपोर्टिंग इंडस्ट्रीज जैसे डाइंग यूनिट, टेलरिंग यूनिट, ट्रांसपोर्ट और ट्रेडर्स भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.
तिरुप्पुर के छोटे सप्लायर एम. रामचंद्रन ने कहा, “मैं पहले तीन फैक्ट्रियों को बटन सप्लाई करता था. अब सिर्फ एक ही फैक्ट्री बुलाती है, वो भी कभी-कभार.”
निर्यातक और एसोसिएशन चेतावनी दे रहे हैं कि अगर जल्दी राहत नहीं मिली तो इसके दूरगामी नतीजे होंगे. टीईए का अनुमान है कि हालात ऐसे ही रहे तो करीब 20% नौकरियां खत्म हो सकती हैं.
सुब्रमण्यम ने कहा, “तिरुप्पुर की आधी वर्कफोर्स प्रवासी मजदूरों की है. ऑर्डर घटते ही वही सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं. अगर टैरिफ वापस नहीं लिया गया या सरकार से मदद नहीं मिली तो हम सिर्फ मजदूर ही नहीं, बल्कि अपनी मेहनत से बनाए गए निर्यात बाज़ार भी खो देंगे.”

टीईए का अनुमान है कि अगर संकट जल्दी खत्म नहीं हुआ तो हर साल 14,000 करोड़ रुपये का नुकसान होगा.
सुब्रमण्यम ने फिर दोहराया, “तिरुप्पुर के निर्यातकों को जो कॉन्ट्रैक्ट मिलते थे, वे अब बांग्लादेश और वियतनाम को मिलने लगे हैं, क्योंकि वहां टैरिफ बहुत कम है.”
हालांकि, निर्यातकों को उम्मीद है कि हालात जल्द सामान्य हो जाएंगे क्योंकि दोनों देशों (भारत-अमेरिका) के बीच बातचीत चल रही है.
कुछ निर्यातकों ने कहा कि अमेरिकी खरीदारों की तरफ से पूछताछ दोबारा शुरू हो गई है, लेकिन ऑर्डर की मात्रा अभी तय नहीं है.
टीईए सदस्य राजा शन्मुगसुंदरम ने कहा, “हमें उम्मीद है कि जल्द ही ऑर्डर मिलेंगे, लेकिन जब तक टैरिफ का मसला हल नहीं होता, सिर्फ पूछताछ से हमारी हालत नहीं सुधरेगी.”
शन्मुगसुंदरम के मुताबिक, मौजूदा संकट कोविड-19 लॉकडाउन से भी गहरा महसूस हो रहा है.
उन्होंने कहा, “कोविड के समय हमें पता था कि लॉकडाउन खत्म होते ही मांग लौट आएगी, लेकिन अब हमें नहीं पता कि हमारा बाजार कब वापस आएगा.”
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