उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ ज़िले का धारचूला उपखंड और नेपाल के सुदूरपश्चिम प्रांत के नौ ज़िलों में से एक धारचूला, दरअसल कभी एक ही बस्ती थे, जिनके बीच से काली नदी बहती थी.
1814-1816 के दो साल लंबे एंग्लो-नेपाली युद्ध या गोरखा युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल साम्राज्य के बीच सुगौली संधि हुई, जिसमें काली नदी को ब्रिटिश भारत और नेपाल की सीमा मान लिया गया.
इतिहास में झांकने पर कहा जा सकता है कि यह असल में एक मनमाना विभाजन था क्योंकि यह इलाका कभी कुमाऊं की चंद वंश की अंतिम चौकी था. दोनों पड़ोसी ‘सीमाई कस्बों’ की भाषा, संस्कृति, विवाह परंपराएं और जातीय पहचान लगभग एक जैसी हैं. भारत और नेपाल के बीच नागरिकों के आवागमन पर कोई रोक नहीं है और दोनों तरफ के निवासियों में वैवाहिक संबंध आम बात हैं.
बेनिडिक्ट एंडरसन की किताब Imagined Communities: Reflections on the Origin and Spread of Nationalism शायद इससे बेहतर उदाहरण नहीं दे सकती कि घरेलू और वैश्विक राजनीति किस तरह साझा हितों और चिंताओं वाले समुदायों को प्रभावित करती है.
जब सुगौली संधि पर हस्ताक्षर हुए, उस समय यह इलाका बहुत कम आबादी वाला सीमांत क्षेत्र था, जहां व्यापारी और चरवाहे ट्रांसह्यूमेंस (मौसमी आवागमन) की परंपरा निभाते थे. दो सदियों में यह सीमांत इलाका स्थायी बस्तियों वाला सीमा क्षेत्र बन गया. 2008 में नेपाल में राजशाही समाप्त होने के बाद नए गणराज्य ने इस क्षेत्र पर अपना दावा और ज़ोर से उठाना शुरू कर दिया. रिकॉर्ड के लिए संधि के करीब 100 साल बाद 1911 के अल्मोड़ा डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में, जो आधिकारिक सर्वेक्षणों पर आधारित था, काली नदी का वर्णन इस तरह किया गया कि यह “लिपुलेख दर्रे से निकलती है” और नेपाल की सीमा “केवल कालापानी शिविर स्थल से थोड़ी नीचे” जाकर बनाती है.
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निशाने पर
धारचूला का लिपुलेख इस समय चर्चा में है क्योंकि ट्रंप द्वारा भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने के बाद भारत और चीन के नए बने साझा हितों के केंद्र में यह जगह आ गई है. भारत-चीन व्यापार फिर से शुरू करने की घोषणा में हिमालय की तीन सीमाई दर्रों का ज़िक्र था — उत्तराखंड का लिपुलेख, हिमाचल प्रदेश का शिपकी ला और सिक्किम का नाथू ला, लेकिन सुर्खियों में सिर्फ लिपुलेख रहा, क्योंकि नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने इस मुद्दे पर चीन के सामने जोरदार विरोध दर्ज कराया. हालांकि, चीन ने इसमें पड़ने से इनकार किया और नेपाल को कहा कि यह मामला वह भारत के साथ द्विपक्षीय तौर पर सुलझाए.
रिकॉर्ड के लिए बता दें कि लिपुलेख दर्रे से भारत-चीन व्यापार समझौता 1954 का है, लेकिन पुराने लोग कहते हैं कि यह समझौता सिर्फ उन परंपरागत अधिकारों और विशेषाधिकारों को औपचारिक रूप देता था, जिनका सदियों से भारत-नेपाल-तिब्बत की त्रिजंक्शन पर रहने वाले रं, खास, कुमाऊनी, डोट्याली और भूटिया समुदाय इस्तेमाल करते आए थे.
उत्तराखंड के पूर्व मुख्य सचिव एन.एस. नपलच्याल याद करते हैं कि उनके पूर्वज तिब्बत के गार्तोक तक सैकड़ों खच्चरों और दर्जनों बोझा ढोने वालों के साथ व्यापारिक यात्राएं करते थे. व्यापार की शर्तें बेहद फायदेमंद होती थीं—वे भारत से गेहूं, चाय, शॉल, कंबल, बुने हुए कपड़े, तंबाकू और बर्तन लेकर जाते, बदले में तिब्बत से ऊन और सेंधा नमक लाते, उस सेंधा नमक को नेपाल ले जाते और वापसी में वहां से चावल, बाजरा, शहद, जड़ी-बूटियां और मेवे लेकर लौटते.
लेकिन 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद व्यापार पूरी तरह ठप हो गया. इसके साथ ही ऊन कातने और कालीन, कंबल व गरम कपड़े बुनने की परंपरा भी खत्म हो गई. कई ऊंचाई पर बसे गांव खाली करने पड़े, जब कताई-बुनाई की परंपरा खत्म हुई तो पुरुषों को रोज़गार के लिए दूसरे स्थानों की ओर जाना पड़ा. संकट से उबरने में मदद करने के लिए कभी समृद्ध और उद्यमी माने जाने वाले इस समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया गया ताकि उन्हें शिक्षा और रोज़गार में अवसर मिल सके.
तीन दशकों के अंतराल के बाद 1992 में लिपुलेख दर्रे और शिपकी ला से भारत-चीन सीमा व्यापार दोबारा शुरू हुआ और 2006 में नाथू ला भी खोला गया, लेकिन व्यापार की मात्रा पहले जैसी नहीं रही—क्योंकि इन तीन दशकों में जिन बाज़ारों को ये जोड़ते थे वे अब अपने-अपने इलाकों में हाईवे से बेहतर तरीके से जुड़े थे. साथ ही लोगों की पसंद भी बदल चुकी थी, जहां पहले घरेलू भोजन के लिए कच्चे कृषि उत्पादों की ज़रूरत थी, अब पैकेज्ड फूड और रेडी-टू-ईट (आरटीई) भोजन ज़्यादा लोकप्रिय हो गया था.
करीब एक दशक पहले जब इस कॉलम लेखक ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) के तकलाकोट का दौरा किया, तो वहां सड़क किनारे की दुकानों पर सबसे ज़्यादा विज्ञापित उत्पाद नेपाल का ‘वाई वाई नूडल्स’ था.
चिंताएं और मांगें
लिपुलेख व्यापार दोबारा शुरू होने की घोषणा के बाद धारचूला में स्वाभाविक रूप से बड़ी उत्सुकता देखी गई. व्यापारियों के संगठन ने भी व्यापार व्यवस्था को ‘ट्रक, बार्टर और एक्सचेंज’ से (जहां लेन-देन लगभग 25,000 रुपये की खेपों में होता था) बदलकर रुपये-चीनी युआन प्रणाली में अपग्रेड किए जाने का स्वागत किया, लेकिन इस उत्साह के बीच एक तात्कालिक चिंता, दो मांगें और एक आशंका भी है.
पहले बात करें सीमा के व्यापारियों की तात्कालिक चिंता की. यह उन माल की सुरक्षित वापसी को लेकर है जिन्हें 2020 में कोविड-19 और सीमा पर झड़पों की वजह से अचानक, अनिश्चितकाल के लिए सीमा बंद हो जाने पर उन्हें तकलाकोट में ही छोड़ना पड़ा था. जब दो दर्जन से ज़्यादा व्यापारी जल्दबाजी में तकलाकोट से लौटे, तो उनके पास अपनी खेप — मिश्री, गुड़, ऊन, तंबाकू, चाय, पारंपरिक प्रोसेस्ड फूड, कपड़े, एल्यूमिनियम और स्टील के बर्तन, और हाथ से बने खिलौने — अस्थायी गोदामों में छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.
संभावना है कि जल्दी खराब होने वाला सामान तो नष्ट हो गया होगा, लेकिन ऊनी कपड़े और बर्तन अब भी वापस मिल सकते हैं. अब बात करें दो मांगों की जिनमें पहली है, उनके पिछले व्यापारिक रिकॉर्ड के आधार पर एक नई क्रेडिट लाइन मंज़ूर करने की, ताकि वे नए सीज़न के लिए नई खेप खरीदकर फिर से शुरुआत कर सकें. दूसरी मांग है उचित ढांचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर) खड़ा करने की, जैसे पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना ज़िले में भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थित पेट्रापोल.
उनकी सबसे बड़ी चिंता तकलाकोट के पुराने बाज़ार की जगह नए टर्मिनल मार्केट का आना है, जहां भारतीय और नेपाली व्यापारी सामान लाते थे और अदला-बदली करते थे. यह नया मार्केट अत्याधुनिक सुविधाओं वाला है — तौल, क्वालिटी जांच, थोक और खुदरा आउटलेट सब मौजूद हैं. पिछले साल जब नेपाल ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के साथ व्यापार फिर शुरू किया, तो भारतीय व्यापारियों को डर है कि “सबसे अच्छी सुविधाएं शायद उनके (नेपाली व्यापारियों) हिस्से में चली गई हों.” उन्हें नेपाल में अपने अनौपचारिक संपर्कों से यह भी पता चला है कि नए किराए बेहद महंगे हैं, जबकि पहले व्यापारी अस्थायी तंबू गाड़ते थे या तकलाकोट के चहल-पहल भरे बाज़ार में निजी जगह किराए पर लेते थे, अब सरकार ने यह अनिवार्य कर दिया है कि सारा व्यापार सिर्फ तयशुदा परिसर में ही होगा.
फिर भी धारचूला में आम माहौल सकारात्मक है और सीमा खोलने तथा कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग शुरू करने का समर्थन केवल ज़मीनी स्तर और कूटनीतिक मंच से ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक गुरु सद्गुरु की तरफ से भी आ रहा है. उन्होंने भारत-चीन संबंधों को फिर से पटरी पर लाने के समर्थन में कहा, “हम अभी बनाए गए भौगोलिक बॉर्डर को तो हटा नहीं सकते, लेकिन उन्हें धीरे-धीरे इतना आसान ज़रूर बना सकते हैं कि लोग आसानी से आ-जा सकें और कारोबार व व्यापार, खासकर ज़मीनी व्यापार, बेहतर ढंग से हो सके.”
संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स साहित्य महोत्सव के निदेशक हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक भी रहे हैं. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.
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