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Wednesday, 20 November, 2024
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हिंदी के वर्चस्व को छोड़िए, असल मुद्दा भाषा की ताकत और ताकत की भाषा के बीच है

अपने हिंदी दिवस के भाषण में, अमित शाह ने कहा हमारी भाषायी विविधता तो अपनी जगह ठीक है लेकिन हमें राष्ट्रीय एकता के लिए किसी एक भाषा को अपनाने की जरुरत है और ये भूमिका सिर्फ हिन्दी निभा सकती है.

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मैं हमेशा हिन्दी दिवस के मौके का इस्तेमाल हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की दशा के बारे में कुछ ना कुछ कहने में करता हूं. वैसे मैं भाषाविद नहीं हूंं और न ही हिंदी का विद्वान.  लेकिन कुछ आपबीती और कुछ राजनैतिक संस्कार के चलते इस सवाल पर सोचता रहता हूंं.

मैं एक छोटे शहर से हूं, एक ऐसे परिवार से जिसे आप निम्न मध्यमवर्गीय परिवार कह सकते हैं. लेकिन एक न एक कारण से वर्गीय भेदभाव के पैर तले दबने से बचा रहा. मैं ओबीसी समुदाय से हूं लेकिन मेरे जीवन में कुछ ऐसे संयोग रहे की मैं जाति के दंश के प्रत्यक्ष अनुभव से बचा रहा. लेकिन सांस्कृतिक भेदभाव क्या होता है, ये मैं कुछ जानता हूं. दिल्ली के अंग्रेजीदां तबके में, चाहे वो उदारवादी या फिर वामपंथी,  ‘हिन्दी मीडियम टाइप‘ को क्या कुछ झेलना होता है, ये मैं समझता हूं. शायद इस अनुभव और राममनोहर लोहिया के लेखन से गुजरने के कारण मैं भाषा की सत्ता और सत्ता की भाषा को लेकर कुछ अधिक संवेदनशील हो गया हूं.

इस आधार पर मैं अंग्रेजी के वर्चस्व की तुलना दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद से करता रहा हूंं. मैं बारंबार एक सी बातें कहने से अब उकता चुका हूं. सो इस बार हिन्दी दिवस के मौके पर कुछ कहने से परहेज किया. लेकिन विधि का विधान देखिए कि इधर मैंने हिन्दी दिवस पर कुछ कहने से परहेज किया और उधर अमित शाह ने भाषण दे डाला.


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मजे की बात देखिये कि पूरा देश एक ऐसे भाषण की चीरफाड़ में लगा है जिसमेंं कुछ भी काबिलेगौर नहीं था. अगर भाषण के अवसर तथा वक्ता को भूल जाएंं तो इस भाषण को हिन्दी दिवस के मौके पर रस्मी तौर पर होने वाली एक सरकारी किस्म की कवायद मानकर चला जा सकता था.

भाषाविद प्रोफेसर गणेश देवी ने ठीक ध्यान दिलाया है कि भाषा को संस्कृति या फिर शिक्षा मंत्रालय के दायरे में शामिल न करते हुए विधि-व्यवस्था की देखरेख करने वाले मंत्रालय में शामिल करना अपने आप में बेहूदगी है. तिस पर माननीय मंत्रीजी के भाषण ने मसले को और ज्यादा अटपटा बना दिया. उन्होंने दावा किया कि भारत की सारी भाषाएं यूरोप की सारी भाषाओं से श्रेष्ठ हैं. आखिर क्यों? और कैसे? मेरा ध्यान मंत्री जी के भाषण में आये एक शब्द ‘लघुताग्रंथि’ की तरफ गया. मंत्री जी ने इस शब्द का प्रयोग एक से ज्यादा दफे किया और एक अचरज में डालती गर्वोक्ति सुनायी कि : जो लोग अंग्रेजी हुकूमत के गुलाम रह चुके हैं उनमें सिर्फ हम भारतीय लोग ही हैं जिन्होंने अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजियत को हराने में कामयाबी पायी है. पता नहीं मंत्री जी किस मुल्क में रहते हैं?

उन्होंने स्वर्गीय सुषमा स्वराज का नाम लिया और उनके हवाले से कहा कि हिन्दी दुनिया के 20 फीसद लोगों की भाषा है. विकिपीडिया में लिखा है कि हिन्दी दुनिया के 4.4 प्रतिशत लोगों की भाषा है, वैसे सही आंकड़ा तकरीबन 6 फीसद का है. मंत्रीजी ने नाम गिनाये और कहा कि गोपालकृष्ण गोखले हिन्दी के हिमायती थे. अब ये तथ्य तो मेरे लिए एकदम ही नया है और मैं इधर-उधर की किताबों को पलटने में लगा हूं कि इसका कोई प्रमाण कहीं मिल जाये!

मंत्रीजी ने लोहिया का नाम लिया और कहा कि लोहिया के मुताबिक ‘हिन्दी के बिना लोकराज संभव नहीं है.’ दरअसल लोहिया ने कहा था ‘लोकभाषा के बिना लोकराज संभव नहीं है.’ मंत्रीजी ने जब आह्वान किया कि किसी भी बाहरी प्रभाव (आप जानते हैं कि यहां बाहरी प्रभाव से मंत्रीजी की मुराद क्या है) से मुक्त हिन्दी का उपयोग किया जाय तो मैं बरबस मुस्कुरा उठा. मंत्रीजी की वाक्य-संरचना खुद ही गुजराती भाषा वाली थी और उच्चारण तो खैर गुजराती भाषा के असर वाला होना ही था.

इन तमाम बातों में कोई हर्जा नहीं, इन्हें हिन्दी-दिवस पर होने वाली रस्मअदायगी के तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन मंत्रीजी की एक बात आपत्तिजनक कही जायेगी. उन्होंने कहा कि हमारी भाषायी विविधता तो अपनी जगह ठीक है लेकिन हमें राष्ट्रीय एकता के लिए किसी एक भाषा को अपनाने की जरूरत है और ये भूमिका सिर्फ हिन्दी निभा सकती है.

यों मंत्री जी ने अपनी तरफ से सतर्कता बरती और हिन्दी को ‘राष्ट्रभाषा’ कहने से परहेज किया लेकिन बिना कहे भी उन्होंने दरअसल हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में जता दिया. अब इस बात को गाहे-बगाहे उछाला जाने वाला जुमला भर करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि मंत्री जी ने यही बात हिन्दी-दिवस के मौके पर अपने औपचारिक और लिखित भाषण में भी दोहरायी है. ये बात किसी साधारण अधिकारी की जुबान से नहीं निकली बल्कि इस बात को कहने वाला वो व्यक्ति हैंं जिसे शासन और सत्ता के गलियारे में प्रधानमंत्री के बाद ठीक दूसरे नंबर का अधिकारी व्यक्ति माना जा रहा है. और, ये बात उस वक्त कही गई है जब सरकार ने धारा 370 को तकरीबन समाप्त कर दिया है, जम्मू-कश्मीर के दो फाड़ कर दिये हैं और ये संकल्प व्यक्त किया है कि राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) पर पूरे देश में अमल किया जायेगा.

सो, राष्ट्रीय एकता के लिए हिन्दी को एकमात्र भाषा बनाने के प्रस्ताव के साथ एक विशेष संदर्भ जुड़ा हुआ है और इसी कारण इस बयान की आलोचना स्वाभाविक थी. ऐसे में कई लोगों ने यह याद दिला दिया कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है और न ही इसकी हमें जरूरत है.


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ये विचार कि कोई देश एक भाषा के बूते एकता के सूत्र में बंधता है, दरअसल 19वीं सदी के यूरोप में प्रचलित एक रूढ़ि है और इस रूढ़ि को कब का दफना दिया जाना चाहिए था.

भारतीय राष्ट्रवाद की मौलिकता कही जायेगी कि वह इस रूढ़ि को तिलांजलि देने में कामयाब रहा. यों हिन्दी में कोई सुरखाब के पर नहीं लगे जो कि उसे भारत की अन्य भाषाओं से श्रेष्ठ माना जाये. सच्चाई तो ये है कन्नड़ और तमिल सरीखी भारतीय भाषाओं की तुलना में हिन्दी अपेक्षाकृत नयी है और इस नाते कुछ गरीब भी. हिन्दी एक विशेष भूमिका निभा सकती है, वो कुछ भाषाओं को आपस में जोड़ने वाले पुल का काम कर सकती है लेकिन सारी भाषाओं के बीच ऐसे किसी सेतु की भूमिका निभाने में हिन्दी सक्षम नहीं.

हिन्दी ने अरुणाचल की जनजातियों को आपस में जोड़ने का काम किया है लेकिन मुझे नहीं लगता कि किसी मलयाली को किसी तमिल से बातचीत करने के लिए हिन्दी की मध्यस्थता की जरूरत है. हिन्दी को दरअसल अन्य भारतीय भाषा बोलने वालों का विश्वास अर्जित करना होगा, वो ये साधिकार मांग नहीं सकती. हिंदी अगर दूसरी भारतीय भाषाओंं की सास बनने की कोशिश करेगी तो घर तोड़ेगी, अगर छोटी बहन बनकर सबको जोड़ेगी तो सबसे आशीष पायेगी. और हिन्दी ऐसा तब ही कर सकती है जब वो अशुद्ध होने को तैयार हो, अन्य भारतीय तथा गैर-भारतीय भाषाओं से ज्यादा से ज्यादा शब्द और प्रसंग लेने को तैयार हो. विनोबा भावे के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहें तो हिन्दी किसी नदी के समान शुद्ध होकर नहीं रह सकती बल्कि उसे फैलकर समुद्र के समान होना होगा. लेकिन ये बात समाज, मीडिया और बाजार पर छोड़ दी जानी चाहिए. सरकारी तौर पर हिन्दी थोपने का प्रयास हमारे राष्ट्रवाद के जज्बे के खिलाफ है और ऐसा करने के नुकसान उठाने पड़ सकते हैं.

मुझे इस बात की खुशी है कि हिन्दी दिवस के मौके पर थोड़ी बहस हुई. मुझे अच्छा लगा कि कम से कम कुछ नामचीन हस्तियों तथा राजनेताओं ने एक-भाषा-एक राष्ट्र के विचार पर खुलेआम सवाल उठाये. लेकिन मुझे हताशा इस बात से है कि बहस बस इसी मुकाम तक आकर ठहर गई, सबसे बड़ा सवाल किसी ने नहीं उठाया.

मैं हताश हूं कि हम अक्सर ऐसे ही मुकाम पर आकर थम जाते हैं और इससे आगे का सवाल नहीं पूछते कि : क्या हिन्दी के थोपे जाने का सवाल ही हमारे वक्त की सबसे अहम चुनौती है? राजभाषा समितियों की झूठी ठसक के बाहर क्या हिन्दी इस दशा में है कि वो पूरे देश को अपने दबदबे में ले सके ?

हमें बस घर से निकलकर सड़क पर चंद कदम चलने की जरूरत है. आपको दिख जायेगा कि चारो तरफ इंग्लिश सिखाने के कोर्स की सूचना और विज्ञापन करते कितने बिलबोर्ड्स टंगे हुए हैं. आपको दिखेगा कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बच्चों की भीड़ से अटे पड़े हैं. इससे भी अगर आपका जी नहीं मानता तो फिर किसी नौउम्र हिन्दीभाषी से बात करके देखिए जो हिन्दी के दो वाक्य ठीक से नहीं लिख सकता, जो टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने की जिद करता है.

उत्तर भारत में हिन्दी की दशा पर अगर आप नजर डाल लेंगे तो फिर हिन्दी के दबदबे की बात आपको अपने आप में मजाक लगने लगेगी. क्या हम इस देश के सबसे बड़े भाषायी सच यानि अंग्रेजी के वर्चस्व के बारे में बात कर सकते हैं? क्या हम मानने को तैयार हैं कि लिंग, वर्ग और जाति के समान भाषा का भी रिश्ता गैर-बराबरी, अपवर्जन और अन्याय से है ? क्या हम इस सच का सामना करने को तैयार हैं कि हमारे देश में अंग्रेजी/गैर-अंग्रेजी का विभाजन दरअसल एक अनौपचारिक रंगभेद की ही तरह है, किस हमारे यहांं अंग्रेजी न जानने वाले के साथ वैसा ही बर्ताव होता है जैसा की दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत के साथ होता था?


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हम अपनी भाषा-नीति की असली चुनौती के बारे में कब चर्चा करना शुरू करेंगे? अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की तेजी से बढ़ती इस विषबेल से हम कब निपटेंगे जहां न तो बच्चा और उसके मांं-बाप अंग्रेजी जानते हैं, न ही शिक्षकों को कायदे से अंग्रेजी भाषा आती है? शिक्षण की माध्यम-भाषा बच्चों की घरेलू भाषा के करीब हो, ये काम हमसे कब सध सकेगा? हम कैसे सुनिश्चित करेंगे कि अंग्रेजी भाषा तक हर बच्चे की पहुंच समान हो और लोकतांत्रिक रीति से हो?

हम आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं को इतना सक्षम कैसे बनायें कि उन भाषाओं में तकनीक और विज्ञान की शिक्षा असरदार ढंग से दी जा सके? हम गैर-अनुसूचित भाषाओं और हजारों बोलियों को किस तरह बचायें और बलवान बनायें? भाषायी रंगभेद के शिकार लोग कब अपने मसले पर बहस की शुरुआत अपनी शब्दावली में करेंगे? या फिर हिन्दी के दबदबे पर बहस के बहाने हम एक बार फिर इन कठिन सवालों से कन्नी काटकर निकल रहे हैं?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

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