एकबारगी तो उन्हें ऐसा लगा कि वे कोई बुरा सपना देख रही हैं, जो ऊंचे पहाड़ों से आ रही ठंडी हवा के साथ उनके दिमाग को जकड़ रहा था. जैसे रूखे बालों, बर्बर पंजों और नाखूनों वाला कोई राक्षस जंगल से किसी दंतकथा के बुरे पात्र की तरह घर-घर घूमता हुआ बच्चों और उनकी मांओं का खून पी रहा हो. विद्या देवी उस अंधेरी रात में धीरे-धीरे चल रहे उस मनोविज्ञानिक किस्म के कार्निवाल को देख रही थीं, जिसमें एक भी गोली नहीं दागी गई. 22 बच्चे, महिलाएं और पुरुष एक-एक कर कत्ल कर दिए गए, उनका गला काट दिया गया; जो सात लोग अपने घरों में छिप गए थे उन्हें ज़िंदा जला दिया गया.
अप्रैल 1988 में हुए उस कत्ले-आम के दो दिन बाद तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी और मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला प्रानकोट और डाकीकोट में हुए उस हत्याकांड का मुआयना करने पहुंचे. उन्होंने शवों के बीच विद्या देवी को बैठे पाया, जो बिलकुल निश्चेष्ट, शून्य में ताक रही थीं. पता चला कि स्थानीय पुलिस पहाड़ों के बीच पैदल रास्ते से अभी तक वहां नहीं पहुंच पाई थी.
खुफिया विभाग के अधिकारियों का कहना था कि शिवकोटी में वैष्णो देवी तीर्थयात्री रजिस्ट्रेशन सेंटर के पास 10 लोगों की हत्या करने वाले जिहादी गूल और गुलाबगढ़ के ऊंचे जंगलों की ओर लौटते हुए निश्चित ही प्रानकोट और धक्कीकोट से गुजरे होंगे.
प्रानकोट में हत्याएं करने वालों को रास्ता दिखाने वाले स्थानीय जिहादी मंजूर अहमद को 2003 में उम्रकैद की सज़ा सुना दी गई. उन हत्यारों का कोई पता नहीं चल सका, लेकिन माना जाता है कि वे लश्करे तय्यबा गिरोह के थे. कश्मीर में इसी तरह के सांप्रदायिक कत्ले-आम करने वाले दर्जनों हत्यारों का कोई पता नहीं चल पाया है. चट्टीसिंहपुरा के 36 सिखों की हत्या का इकरार करने वाले लश्कर के गुर्गे मुहम्मद सुहैल मलिक को सबूतों के अभाव के कारण बरी कर दिया गया और 2015 में पाकिस्तान रवाना कर दिया गया.
कश्मीर विधानसभा का चुनाव सिर पर है और पाकिस्तानी आईएसआई ने रियासी हत्याकांड के जरिए साफ संदेश दे दिया है. 2021 के बाद से लश्करे तय्यबा और जैश-ए-मुहम्मद बार-बार यह साबित करते रहे हैं कि वह अपना लगभग कोई आदमी गंवाए बिना भारतीय सैनिकों की घेराबंदी करके हत्याएं कर सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरी बार शपथ ग्रहण से चंद मिनट पहले किया गया रियासी हत्याकांड आईएसआई की ओर से साफ चेतावनी है कि वह कश्मीर में भारत की मुश्किलें और बढ़ा सकता है और जबरदस्त राजनीतिक नुकसान पहुंचा सकता है.
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उभरता जिहाद
चुनाव अभियान के दौरान मोदी जब पाकिस्तान को यह याद दिलाते घूम रहे थे कि जिहादियों को वे उनके घर में घुस कर मार सकते हैं और यह वादा कर रहे थे कि वे उस मुल्क को “चूड़ियां पहनने” पर मजबूर कर देंगे, तभी सीमा पार से भी एक चुनौती उभर रही थी जिसकी ओर कम ध्यान गया. लश्कर-ए-तैय्यबा के कमांडरों ने सोपोर में भारतीय सेना द्वारा मारे गए जिहादी अब्दुल वहाब की याद में एक रैली की. रैली में लगाए गए एक पोस्टर में कहा गया था— ‘शहीद हमें याद दिला रहे हैं कि उन्होंने अपने खून की जो क़ुरबानी दी है उसे मत भूलना’.
कश्मीर क्षेत्र के जैश-ए-मुहम्मद के चीफ मसूद इलियास कश्मीरी (जिसका कुख्यात अल-कायदा से जुड़े जिहादी मुहम्मद इलियास कश्मीरी से कोई संबंध नहीं है) सहित सैकड़ों जिहादियों ने मीरपुर और दूसरे शहरों में जुलूस निकाले और भारत के खिलाफ जिहादी कार्रवाइयों में तेजी लाने की मांग की. भारतीय ‘नेशनल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी’ ने कश्मीरी पर आरोप लगाया है कि उसने अपने कमांडर हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के साथ मिलकर 2022 में मोदी को निशाना बनाते हुए एक हमला किया था.
2019 के पुलवामा संकट के बाद जेश ने 2022 की गर्मियों में पहली सार्वजनिक रैली की, जिसमें जिहादियों ने मारे गए आतंकवादी हाफ़िज़ अर्सलान की याद में हवा में गोलियां दागी. ‘दिप्रिंट’ ने उस रैली का एक ऑडियो टेप हासिल किया है जिससे पता चलता है कि कश्मीरी ने 2021 में श्रीनगर में पुलिस पर हमले की ज़िम्मेदारी ली थी. इस टेप में चंदे के लिए भी अपील की गई है ताकि वे करीब 7 लाख रुपये मूल्य के एसॉल्ट राफल खरीद सकें.
रैली में कश्मीरी ने पाकिस्तानी सेना की अप्रत्याशित खुली आलोचना करते हुए कहा : “अपनी जान की क़ुरबानी देने वाले मुजाहिदीन को फूल चढ़ाए जा रहे हैं और उनकी याद में एक मिनट का मौन रखा जा रहा है. लेकिन हमारे लीडर हिंदुस्तानी फौज का मुक़ाबला करने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं.”
कश्मीर में अपनी कार्रवाइयों के बारे में लश्कर अब काफी खुल कर बोलने लगा है. रावलकोट में कथित रूप से भारतीय खुफिया एजेंसी द्वारा एक सीनियर लश्कर जिहादी की हत्या के बाद इस संगठन ने दावा किया कि उसने कोकरनाग में जवाबी हमला करते हुए तीन भारतीय सैनिकों को एक मुठभेड़ में मार गिराया. कभी दक्षिणी कश्मीर लश्कर का चीफ रहे, लाहौर के साजिद जट्ट के नेतृत्व में यह आतंकवादी गुट भारतीय सैनिकों पर कई बड़े हमले करने में सफल रहा है.
चुनावी नारों से बेशक यह संकेत मिलता है कि भारत की नयी सरकार आतंकवाद के फिर से हो रहे इस उभार को दबाने के अपने उपायों को लागू करेगी. यह बोलना तो आसान है परंतु करना मुश्किल है.
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पुलवामा के सबक
आइएसआइ के एक अधिकारी, रईस पोलो खिलाड़ी इफसंदयार अली ख़ान पटौदी 2018 की गर्मियों में भारतीय खुफिया संगठन ‘रॉ’ के एक अधिकारी आर. कुमार से लंदन के एक होटल में मिले. पाकिस्तान की ओर हाथ बढ़ाने के प्रधानमंत्री मोदी के प्रयास विफल रहे थे, तब भारत ने उरी में नियंत्रण रेखा के पार जाकर हमले किए थे. जैसा कि एक विशेषज्ञ मनोज जोशी कहते हैं, आईएसआई ने इसका कई फिदायीन हमलों के रूप में जवाब दिया था. उक्त गुप्त बैठक जवाबी हमलों और हत्याओं को बंद करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा की ओर से किए गए प्रयासों का फल थी.
लेकिन ये प्रयास 2019 में तब नाकाम रहे जब जैश की ओर से पुलवामा में किए गए बम धमाके में केंद्रीय पुलिस बल के 40 लोग मारे गए. भारत ने नियंत्रण रेखा के पार जाकर बालाकोट में जैश के अड्डे पर हवाई हमला करके जवाब दिया. जवाब में पाकिस्तान ने अपने लड़ाकू विमानों को भेजा, जो राजौरी में 19वीं इनफैन्ट्री के मुख्यालय पर लगभग हमला करने ही वाले थे.
पाकिस्तान के मांगला स्थित आइ स्ट्राइक कोर के पूर्व कमांडर, ले.जनरल तारीक ख़ान ने कहा, “2001-2002 के बाद से भारत ने दबाव डालने के जो भी प्रयास किए उसने परमाणु क्षमता के बूते युद्ध को टालने की हमारे नजरिए को कमजोर किया.” इसलिए, भारत के हमलों को चुनौती देने में नाकामी पाकिस्तान को “एक असंतुलित पारंपरिक खतरे के मामले में ज्यादा-से-ज्यादा कमजोर बनाती जाएगी”.
वैसे, दोनों देश पूर्ण युद्ध के कगार से वापस लौटे और गुप्त सूत्रों के प्रयासों के कारण फरवरी में नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम हो पाया. जनरल बाजवा ने जिहादी गतिविधियों पर लगाम लगाने का अपना वादा निभाया. जैश के मुखिया मसूद अज़हर अल्वी को हिरासत में लिया गया. बहावलपुर में संगठन के मुख्यालय को सरकार के नियंत्रण में ले लिया गया और उसके सैन्य प्रशिक्षण अड्डों को खाली कराया गया.
अब जैश के लड़ाकों को उत्तर की ओर ध्यान देने के लिए गुप्त रूप से प्रोत्साहित किया गया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के मॉनीटरों ने मई 2022 में खबर दी कि जैश तालिबान की देखरेख में अफगानिस्तान के नांगरहार में आठ ट्रेनिंग कैंप चला रहा है. बताया जाता है कि दूसरे लड़ाकों के साथ कश्मीरी को भी अफगानिस्तान भेजा गया था, जहां वह कई महीने जेल में बंद रहा और 2021 में काबुल के पतन के बाद जेल से छूता.
अपने प्रयासों के एवज में बाजवा ने भारत से कश्मीर में राजनीतिक रियायतों की मांग की, जिनमें एक यह थी कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35ए फिर से बहाल किया जाए, जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को राज्य में जमीन खरीदने के लिए ‘स्थायी निवासी” की पात्रता प्रदान करने का अधिकार हासिल था.
लेकिन भारत कोई समझौता करने में दिलचस्पी नहीं रखता था. भारत में रणनीतिकारों का मानना है कि पाकिस्तान की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ने उसे कश्मीर को लेकर कोई संकट खड़ा करने का जोखिम उठाने से रोक दिया, क्योंकि इससे निवेश हासिल करने और विदेशी मुद्रा भंडार को सामान्य स्थिति में लाने की उसकी उम्मीदों को झटका लगता. भारत यह भी मानता था कि आतंकवाद को वित्तीय मदद पर नजर रखने वाला बहुराष्ट्रीय ‘फाइनांशियल एक्शन टास्क फोर्स’ पाकिस्तान पर अंकुश रखेगा.
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कश्मीर पर दांव
भारतीय खुफिया अधिकारियों का मानना है कि भारत को लेकर अपनी नीति पर अपने कोर कमांडरों से मिले विरोध, और वार्ता मेज पर कोई राजनीतिक रियायत न मिलने के कारण जनरल बाजवा ने सीमा पार जिहादी ऑपरेशनों पर रोक लगाने में जल्दी ही कुछ ढील दे दी. माना जाता है कि नवंबर 2022 में सेनाध्यक्ष का पद संभालने वाले जनरल आसिम मुनीर ने और जिहादी कार्रवाइयों की मंजूरी दे दी, जिसका नतीजा रियासे हत्याकांड के रूप में भी सामने आया है.
पाकिस्तान अब अपना यह सोच जाहिर कर रहा है कि उसे नहीं लगता कि भारत में लड़ाई लड़ने का माद्दा है, पुलवामा बमकांड जैसी वारदात के कारण तो नहीं ही.
आइएसआइ को मालूम है कि जबकि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव करीब आ रहा है, भारत वहां नयी राजनीतिक चुनौतियों से रू-ब-रू है. लोकसभा चुनाव में अलगाववादी नेता शेख अब्दुल राशिद की जीत, यह अभियान कि भारत कश्मीर में इस्लामिक धारा को खतरा पहुंचा रहा है, और सोशल मीडिया पर एक धर्म विरोधी पोस्ट को लेकर विवाद, ये सब अनसुलझे टकरावों के कायम रहने की ओर संकेत करते हैं.
अनुभव यही बताता है कि पाकिस्तान मतिभ्रम का शिकार नहीं है. 1998 में जो सांप्रदायिक हत्याएं शुरू हुईं उन्होंने एनडीए सरकार की राष्ट्रवादी साख को भारी चोट पहुंचाई, और उसे पूरे जम्मू में ‘अशांत क्षेत्र अधिनियम’ लागू करने पर मजबूर होना पड़ा. पहाड़ी गांवों से हजारों हिंदू शरणार्थी पलायन कर गए, सांप्रदायिक तनाव गहरा होता गया और कश्मीर में हिंदुओं-मुसलमानों के बीच खाई चौड़ी होती गई. उस क्षेत्र में अतिरिक्त सेना भेजे जाने के बावजूद हत्याएं 2001-2002 के सैन्य संकट तक जारी रहीं.
भारत पर दबाव बढ़ाने के लिए जिहादियों का इस्तेमाल कितना भारी जोखिम भरा है, यह समझने के लिए बहुत दिमाग खर्च करने की जरूरत नहीं है. दस ज़िंदगियों को खत्म करने वाली गोलियां आसानी से बड़ी कीमत वसूल सकती थीं, और राजनीतिक संकट का सामना कर रही गठबंधन सरकार जवाबी कार्रवाई करने के लालच में फंस सकती है.
1998 में हुए रियासी हत्याकांड के बाद तीन संकट उभरे— करगिल युद्ध, 2001-2002 में सीमा पर सेनाओं का जमावड़ा, और बालाकोट. इन सबने परमाणु शक्ति से लैस दो देशों को युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया. अब पिछले सप्ताह हुआ हत्याकांड यही दिखाता है कि दोनों देश खतरनाक गतिरोध में फंसे हैं. दोनों देशों को समझ लेना चाहिए कि उनके नेता जो कल्पना करते हैं, कहीं उससे पहले ही उनके बीच चौथा युद्ध न छिड़ जाए.
(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है.)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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