नई दिल्ली: दिल्ली आबकारी नीति में कथित घोटाले के सिलसिले में दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी इस हफ्ते उर्दू प्रेस में सुर्खियों में बनी रही. दो प्रमुख उर्दू अख़बारों — सियासत और रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा — के संपादकीय में दावा किया गया कि यह कार्रवाई सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के चुनावी नुकसान के डर के कारण थी, जो अब AAP को हो सकता है.
23 मार्च को एक संपादकीय में सहारा ने कहा कि कार्यकर्ता से नेता बने केजरीवाल ने न केवल दिल्ली में बल्कि गोवा और गुजरात में भी भाजपा से लड़ाई लड़ी थी और एक मजबूत विपक्षी आवाज़ बनकर उभरे थे. इसमें कहा गया, इसलिए उन्हें राजनीतिक क्षेत्र से हटाना समीचीन हो गया.
संपादकीय में कहा गया, “उनकी गिरफ्तारी इस बात का सबूत है कि भाजपा (और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन), जो अब दावा कर रही है कि वो 400 सीटों का आंकड़ा पार कर जाएगी, परेशान है.”
इसके मुताबिक, दूसरा कारण चुनाव के दौरान आप का कांग्रेस के साथ गठबंधन था. “शुरुआत में विपक्ष को एकजुट होने से रोका गया (और) पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी को गिरफ्तार करने की धमकी दी गई. अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी ऐसा ही डर दिखाया (कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के परिणामों का) और सीट-बंटवारे पर कोई समझौता नहीं किया जा सका.” इसमें कहा गया है कि ऐसी परिस्थितियों में, “निष्पक्ष चुनाव की उम्मीद नहीं की जा सकती”.
जबकि चुनावों से पहले विभिन्न राजनीतिक दलों में चल रही गतिविधियों को प्रमुखता से कवरेज मिलती रही, कुछ संपादकीयों में सार्वजनिक चर्चा में भारत के अल्पसंख्यकों — विशेष रूप से मुसलमानों — के लिए घटती जगह के बारे में भी चिंता व्यक्त की गई.
दिप्रिंट आपके लिए इस हफ्ते उर्दू प्रेस में पहले पन्ने पर सुर्खियां बटोरने और संपादकीय में शामिल सभी खबरों का एक राउंड-अप लेकर आया है.
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केजरीवाल की गिरफ्तारी
केजरीवाल की गिरफ्तारी और उसके बाद उनकी पार्टी द्वारा किया गया विरोध प्रदर्शन इस हफ्ते उर्दू प्रेस में छाया रहा.
23 मार्च को अपने संपादकीय में सहारा की तरह, सियासत ने भी माना कि गिरफ्तारी इसलिए हुई क्योंकि दिल्ली के सीएम और उनकी AAP दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में भाजपा के लिए परेशानी पैदा कर रहे थे.
संपादकीय में कहा गया, “अरविंद केजरीवाल ज़मीनी स्तर पर एक लोकप्रिय नेता हैं. उनकी सार्वजनिक छवि भी अच्छी है. भाजपा को चिंता थी कि जब अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के साथ लोगों के पास जाएंगे, तो वह भाजपा की सीटों की संख्या कम कर देंगे. भाजपा चाहती है कि कोई मुकाबला न रहे.”
संसदीय चुनाव
इस हफ्ते विभिन्न खेमों में राजनीतिक घटनाक्रमों से उर्दू प्रेस में हलचल मची रही.
29 मार्च को एक संपादकीय में सहारा ने कहा कि मौजूदा सरकार इस बात को आगे बढ़ा रही है कि अल्पसंख्यक खतरनाक हैं, सच्चाई यह है कि आज़ादी के 75 साल बाद भी वे दोयम दर्जे के नागरिक बने हुए हैं.
संपादकीय में पूछा गया, “क्या इस संदर्भ में यह नहीं समझा जाना चाहिए कि अल्पसंख्यकों — मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, आदि — को उनके संवैधानिक अधिकारों तक पहुंच होनी चाहिए, उनके शैक्षणिक संस्थानों, रोज़गार और शिक्षा पर नियंत्रण होना चाहिए? किसी को अल्पसंख्यक कहकर भेदभाव कैसे किया जा सकता है?”
अल्पसंख्यकों के बारे में भी बोलते हुए सहारा के 25 मार्च के संपादकीय में राजनीतिक दलों से मुसलमानों को टिकट देने को प्राथमिकता देने का आग्रह किया गया है — जो हिंदुओं के बाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समूह है. इस संपादकीय में कहा गया है कि पार्टियों को मुस्लिम उम्मीदवारों का समर्थन करने के लिए रणनीति बनानी चाहिए और समाज के सभी वर्गों के लिए समान अवसर बनाने की दिशा में काम करना चाहिए, साथ ही गैर-मुस्लिम मतदाताओं को भी “वास्तव में निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया के लिए” मुस्लिम उम्मीदवारों का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
सियासत ने अपना 26 मार्च का संपादकीय भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के संघर्षों को समर्पित किया, जो अभी भी पिछले नवंबर में विधानसभा चुनावों में मिली चुनावी हार से जूझ रहा है.
इस बीच 28 मार्च को सहारा के संपादकीय में सत्तारूढ़ भाजपा पर विपक्षी दलों को निशाना बनाने के लिए राज्य मशीनरी का उपयोग करने का आरोप लगाया गया. यह पिछले महीने कांग्रेस पार्टी के आरोप के संदर्भ में आया था कि उसके बैंक खाते आयकर अधिकारियों द्वारा फ्रीज कर दिए गए थे.
“विपक्ष की राह रोकने की साजिश” शीर्षक वाले संपादकीय में कहा गया है, जहां कांग्रेस के खाते फ्रीज कर दिए गए हैं, जिससे उसे चंदा मिलने से रोका जा रहा है. वहीं, भाजपा ने प्रचार पर अरबों रुपये खर्च करने की योजना बनाई है, जिससे निष्पक्ष, पारदर्शी और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया बाधित होगी.
इसमें कहा गया है, “भारत के निर्वाचन आयोग को सभी राजनीतिक दलों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए, अन्यथा चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बजाय तमाशा बनने का जोखिम होगा.”
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
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