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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमत‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार’ की बात कर उदयनिधि का बचाव करना बंद करें, हम फ्रांस नहीं हैं

‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार’ की बात कर उदयनिधि का बचाव करना बंद करें, हम फ्रांस नहीं हैं

किसी आस्था को निशाना बनाना एक असहिष्णु काम है. यह मानसिकता उस स्थिति के बराबर एक आश्चर्यजनक स्थिति बनाती जहां धार्मिक बहुमत नास्तिक व्यक्तियों के प्रति असहिष्णु है.

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तमिलनाडु के खेल और युवा मामलों के मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने जब घोषणा की कि सनातन धर्म का “उन्मूलन” कर दिया जाना चाहिए, तो हममें से कई लोग हतप्रभ और चिंतित हो गए. उनका सनातन धर्म की तुलना “डेंगू, मलेरिया और कोविड” से करना किसी भड़काऊ बयान से कम नहीं था.

अगली प्रतिक्रियाओं में तमिलनाडु सरकार के भीतर स्पष्टीकरण की मांग से लेकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की ओर से निंदा तक शामिल थी. बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने इस बयान को भारत की विशाल सनातन धर्म को मानने वालों के ‘नरसंहार’ के भयावह आह्वान के समान बताया. उदयनिधि के बयान के बाद INDIA गठबंधन के भीतर भी असमति देखने को मिली. इससे पता चलता है कि यह कितना परेशान करने वाला बयान था. आग में घी डालते हुए, अयोध्या के द्रष्टा परमहंस आचार्य ने एक चौंकाने वाली घोषणा की. उन्होंने घोषणा की कि उदयनिधि को मारने वालों को 10 करोड़ रुपये का इनाम दिया जाएगा.

इस बयान पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया भी आई, जिन्होंने कहा कि इस तरह के “मुद्दे को तथ्यों” के आधार पर “उचित प्रतिक्रिया” की जरूरत है. उदयनिधि के समर्थक उनके बयान को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला बता कर बचाव कर रहे हैं. हालांकि, उन्हें यह याद रखना जरूरी है कि संविधान फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता मॉडल का पालन नहीं करता है, जो सार्वजनिक क्षेत्र से सभी धार्मिक मूल्यों को प्रतिबंधित करता है, बल्कि सभी धर्मों का सम्मान करता है और किसी भी आस्था के दुरुपयोग पर रोक लगाता है. हालांकि, पवित्र मान्यताओं के बारे में सार्वजनिक चर्चाओं पर अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं. इस उदाहरण में यह स्पष्ट है कि उदयनिधि का बयान कोई विद्वान द्वारा दिया गया प्रवचन नहीं था. यह हिंदू धर्म के बारे में भावनात्मक रूप से की गई एक अपमानजनक टिप्पणी थी.


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फ्री स्पीच बनाम हेट स्पीच

फ्री स्पीच को लेकर आइए एक बात स्पष्ट कर दें: अप्रतिबंधित अभिव्यक्ति का समर्थन और उदयनिधि के विचारों का समर्थन करने वाले एक जैसे नहीं हैं. वे पूरी ताकत से इसका का बचाव करते हैं कि कोई भी दंडात्मक उपाय या कानूनी बाधाएं भाषण को नहीं रोकनी चाहिए, भले ही भाषण में बोले गए बातों में तर्क और योग्यता हो या न हो. लेकिन भारत जैसे विशाल, सांस्कृतिक रूप से विविध देश में इस सिद्धांत को लागू करने की व्यावहारिकता कई चुनौतियों का सामना करती है. इसके अतिरिक्त, इस बात पर बहस भी विवादास्पद है कि क्या घृणा फैलाने वाले भाषण को भारत में भी वही सुरक्षा मिलनी चाहिए जो संयुक्त राज्य अमेरिका में मिलती है. भारत के विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के लिए इसकी व्यावहारिकता का आकलन करना व्यक्तिगत राय का मामला है, जो स्पष्ट रूप से भावुक और विविध है.

अप्रतिबंधित अभिव्यक्ति के समर्थकों को कानूनी सज़ा से परे इसके परिणामों के बारे में भी सोचना चाहिए. ऐसे माहौल में जहां इस्लामोफोबिया और ईशनिंदा के आरोप इतने आम हो गए हैं, व्यक्ति खुद को विवादों में उलझा हुआ और समाज में अलग-थलग पा सकता है. ऐसी परिस्थितियों में, सबके लिए समान अवसर बनाना एक अत्यधिक कठिन हो जाता है, जिससे यह मौलिक प्रश्न उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी पर समान रूप से लागू की जा सकती है.

इसके अलावा, किसी धार्मिक समुदाय के भीतर सामाजिक मुद्दों और प्रतिगामी प्रथाओं पर चर्चा में शामिल होने और स्वयं आस्था के खिलाफ सक्रिय रूप से वकालत करने के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है. किसी आस्था को निशाना बनाना एक असहिष्णु दृष्टिकोण है. यह मानसिकता उस स्थिति के समानान्तर एक आश्चर्यजनक स्थिति को दिखाती है जहां धार्मिक बहुमत नास्तिक व्यक्तियों के प्रति असहिष्णु है.


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सनातन धर्म और इसकी स्वीकृति

इतिहास हमें भयावह स्मरण दिलाता है कि जो नेता धर्म को ख़तरे के रूप में देखते हैं वे राक्षसी प्रवृतियों में खुद को बदल सकते हैं. जोसेफ स्टालिन इसका एक उदाहरण है. जैसा कि द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के सह-लेखक कार्ल मार्क्स ने साहसपूर्वक कहा था: “साम्यवाद वहीं से शुरू होता है जहां नास्तिकता शुरू होती है.” 1928 में, स्टालिन ने “गॉडलेस फाइव-ईयर प्लान” नामक एक अभियान के माध्यम से तत्कालीन सोवियत संघ पर उग्रवादी नास्तिकता थोपने के मिशन पर शुरुआत की थी.

अमेरिकी इतिहासकार टिमोथी डी. स्नाइडर ने एक चौंकाने वाले रहस्य का खुलासा किया था कि स्टालिन ने जानबूझकर लगभग 6 मिलियन व्यक्तियों की हत्या करवाई. हलांकि, यह आश्चर्यजनक रूप से 9 मिलियन तक बढ़ जाती है जब उनके द्वारा किए अन्य संभावित हत्याओं को ध्यान में रखा जाता है. इससे पता चलता है कि ऐसी विचारधाराएं किस भयावह स्थिति तक जा सकती है. यह हम याद दिलाता है कि अत्यधिक पीड़ा के बावजूद भी, व्यक्तियों और समाजों को विश्वास, विचारधारा और शक्ति की जटिल परस्पर क्रिया से जूझना होगा.

एक भारतीय पसमांदा मुस्लिम के रूप में, मैं हिंदू धर्म को विश्वासों और प्रथाओं की एक प्रणाली के रूप में देखती हूं जो सुंदरता को समाहित करती है. यह एक ऐसी प्रणाली है जो विचारों के एक समूह के पालन की बात नहीं करती है. यह एक ऐसा धर्म है जो पंथ से परे है और संस्कृति की समृद्ध छवि को अपनाता है. सनातन धर्म के विशाल फलक में सामाजिक न्याय के सिद्धांतों की गहरी स्वीकृति है. कानूनी और नीतिगत सुधारों के माध्यम से, इस प्रणाली के अनुयायियों ने हमारे समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इसके अलावा, हिंदू धर्म सभी धर्मों को सहअस्तित्व और अपने साथ पनपने के लिए स्थान देता है. मेरा दृढ़ विश्वास है कि भारत का धर्मनिरपेक्ष और विविध ताना-बाना उसके हिंदू बहुमत के कारण है, जिसने लगातार सहिष्णुता और बहुलवाद का समर्थन किया है. यह देश की ताकत, एकता और सह-अस्तित्व की स्थायी भावना का एक प्रमाण है जो हमारी महान भूमि को परिभाषित करता है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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