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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतलिबरल्स मुस्लिम महिलाओं की वकालत करने से कतराते हैं, ‘मेड इन हेवेन’ एक अच्छी पहल है

लिबरल्स मुस्लिम महिलाओं की वकालत करने से कतराते हैं, ‘मेड इन हेवेन’ एक अच्छी पहल है

शाह बानो से लेकर अमेज़न प्राइम के ‘मेड इन हेवेन’ एपिसोड तक, शरिया कानून के तहत मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा को आखिरकार भारत में एक मंच मिल गया है.

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ज़ोया अख्तर और रीमा कागती की सीरीज़ ‘मेड इन हेवेन’ का नया सीज़न, जो अमेज़न प्राइम वीडियो पर रिलीज़ किया गया था, एक मनोरम कथा बुनने के लिए रिश्तों और सामाजिक मानदंडों की जटिल टेपेस्ट्री में गहराई से उतरता है.

मेरा ध्यान छठे एपिसोड, वारियर प्रिंसेस ने खींचा. एपिसोड की केंद्रीय कहानी शहनाज़ (दीया मिर्ज़ा) और उसके पति वसीम (परवीन डबास) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपनी दूसरी शादी की तैयारी कर रहे हैं. भूमिका के लिए नियत, मिर्ज़ा ने उल्लेखनीय योग्यता के साथ शहनाज़ का अवतार लिया — एक शालीन और शिष्ट महिला, जो अपने पति के व्यवहार से तंग आ गई थी, जो इस्लामी विशेषाधिकार के भीतर, एक छोटी, सुनहरे बालों वाली अल्बानियाई पत्नी से निकाह कर लेता है. संयम के मुखौटे के बावजूद, अपमान के बोझ और उसके जीवन में भारी बदलावों के कारण शहनाज़ की ताकत लगातार कम हो रही है. जैसे-जैसे सीरीज़ आगे बढ़ती है, उसका मुखौटा ढहना शुरू हो जाता है, जिससे उसके पीछे छिपी भावनाएं सामने आ जाती हैं.

कहानी उस बिखरी हुई दुनिया को दर्शाती है जिसमें हम रहते हैं. यह वास्तविक जीवन के साथ अस्थिर समानताएं उजागर करती है. उन ‘औचित्यों’ पर प्रकाश डालती है जो मुसलमान कथित तौर पर बहुविवाह को सामान्य साबित करने के लिए अपनाते हैं — यानी शरिया कानून और आंकड़ों का हवाला देते हैं, जो इसके प्रसार को कम करते दिखाई देते हैं. अपनी सास को अपना दर्द बताने का शहनाज़ का मार्मिक संघर्ष उसी बचाव के साथ पूरा होता है. अनीता कंवल द्वारा अभिनीत नगमा का किरदार यह दावा करने के लिए इस्लामी कानून का हवाला देती हैं कि बहुविवाह कानूनी है.

बतौर मुस्लिम महिला, मैंने कभी भी अपने जेंडर के कारण खुद को कमतर नहीं समझा. इसलिए मुझे ऐसे तर्क बहुत उलझाने वाले लगते हैं. क्या ऐतिहासिक रूप से पुरुषों द्वारा नियंत्रित शरिया के तहत किसी की पत्नी को बदलने के भत्ते को केवल इसलिए स्वीकार करना उचित है क्योंकि यह पुरुषों के अधिकार के अनुरूप है? फिर भी, जब महिलाएं शरीयत द्वारा उन्हें दिए गए अधिकारों के बारे में आवाज़ उठाती हैं, जैसे कि पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी, हालांकि, पुरुषों के बराबर नहीं, तो महिलाओं को वो असमान हिस्सा देने में भी पुरुषों में अनिच्छा क्यों होती है? इस्लामी मूल्यों के प्रतिकूल होने के बावजूद दहेज प्रथा क्यों कायम है? आपराधिक न्याय का प्रश्न भी उतना ही प्रासंगिक है — भारतीय मुस्लिम पुरुषों ने सामूहिक रूप से शरिया सिद्धांतों के अनुसार दंडों की बहाली की वकालत क्यों नहीं की?


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कानूनी कठिनाइयां

शरिया मुस्लिम समाज के लिए तभी सार्थक प्रतीत होता है जब यह पुरुषों की श्रेष्ठता को कायम रखता है और उन्हें ऐसे विशेषाधिकार प्रदान करता है जो महिलाओं के खिलाफ अन्याय को कायम रखते हैं. शहनाज़ आज की दुनिया में ऐसी मानसिकता की प्रासंगिकता पर भावुकता से सवाल उठाती हैं. हृदय-विदारक वाक्पटुता के साथ, वो गुलामी और बहुविवाह जैसे एक बार कानूनी अन्याय और वर्तमान के विकसित आदर्शों के बीच समानताएं चित्रित करती हैं, जो बहादुरी से स्थापित मानदंडों को चुनौती देती है.

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अपने विरोध के बावजूद, नगमा वसीम की पसंद के प्रति उदासीन है और संभावित उपाय के रूप में तलाक का सुझाव देती है. शहनाज को अच्छी तरह से पता है कि तलाक के बाद उनके युवा बेटों की कस्टडी की चुनौती सामने आएगी, जिससे पहले से ही जटिल भावनात्मक परिदृश्य में तीव्रता की एक और परत जुड़ जाएगी. दुख की बात है कि जब मुस्लिम महिलाएं तलाक के बारे में सोचती हैं तो इस परिस्थिति का अक्सर हेरफेर के साधन के रूप में उपयोग किया जाता है. शरिया द्वारा स्वीकृत प्रावधान, उचित मेहर को अस्वीकार करना, हेरफेर की रणनीति के रूप में भी उपयोग किया जाता है.

लेकिन जब पुरुष अपने फायदे के लिए शरिया का फायदा उठाते हैं, तो पाखंडी समाज चुप्पी साध लेता है.

‘मेड इन हेवेन’ एपिसोड मुस्लिम महिलाओं द्वारा सहन की जाने वाली कानूनी कठिनाइयों की सतह पर प्रकाश डालता है. मुझे खुशी है कि इस शो ने मुस्लिम महिलाओं के दर्द, आघात और असमानता को स्वीकार करने की दिशा में पहला कदम उठाया है, जिनकी कुछ कहानियां हम पहले से ही जानते हैं.

ऐसा एक किस्सा शाह बानो का है. 1975 में 62-वर्षीय महिला और उनके पांच बच्चों को उसके पति, मोहम्मद अहमद खान — एक संपन्न और प्रसिद्ध वकील ने शादी के 14 साल बाद छोड़ दिया था. तीन साल पहले उसने एक छोटी उम्र की महिला को अपनी दूसरी पत्नी बना लिया. बानो गुज़र-बसर की मांग के लिए कोर्ट गईं और जीत गईं. 2011 में हिंदुस्तान टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में शाह बानो के बेटे, जमील ने अपनी मां के गंभीर दुर्व्यवहार की जानकारी दी थी. वे वित्तीय कठिनाइयों और शर्मिंदगी की एक ज्वलंत तस्वीर पेश करता है जो उसकी मां को इस कठिन अवधि के दौरान झेलनी पड़ी थी. उन्होंने कहा, “मेरी मां के साथ अन्याय हुआ, गंभीर अन्याय हुआ”.


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बदलाव की चिंगारी

एक ऑब्जर्वेशन जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह है सीरीज़ में असमान समाजों के बीच काल्पनिक तुलनाओं से वास्तविक परहेज. यह स्पष्ट हो जाता है कि मुस्लिम समाज अपनी खामियों को पहचानने, अन्याय को दूर करने और कानूनी लड़ाई में शामिल होने के कठिन कार्य से जूझ रहा है, जबकि अन्य समाज अधिक सामाजिक स्तर पर चुनौतियों से जूझ रहे हैं. सीरीज़ एक व्यापक जाल बिछाती है, विभिन्न समाजों और उनके मुद्दों को संबोधित करती है, साथ ही झूठी तुल्यता के बिना एक ईमानदार और स्पष्ट दृष्टिकोण बनाए रखती है.

इसके अलावा न्याय की खोज के लिए प्रतिबद्ध होने के दौरान शहनाज़ द्वारा बोला गया एक डायलॉग — “मैं बस मुस्लिम नहीं हूं, मैं इस देश की सिटीज़न हूं” — गहरा प्रभाव डालता है. यह शक्तिशाली घोषणा बड़ा संदेश देती है — कि आस्था गहरी व्यक्तिगत यात्रा है. यह उन्हें धर्म के संकीर्ण दायरे से परे दुनिया को देखने के लिए प्रोत्साहित करता है. यह खूबसूरती से इस विचार को रेखांकित करता है कि हर किसी के पास राष्ट्र के जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेने का अंतर्निहित अधिकार है, जिसमें न केवल उनकी धार्मिक पहचान बल्कि अन्य पहचानों की समृद्ध टेपेस्ट्री भी शामिल है जो उन्हें बनाती है कि वे कौन हैं.

वैश्विक उदारवादी समुदाय, बुद्धिजीवियों और कलाकारों के साथ मेरी शिकायतें मुस्लिम महिलाओं की वकालत करने और मुस्लिम समुदाय के भीतर असमानता, अन्याय, भेदभाव, हानिकारक सांस्कृतिक प्रथाओं और प्रतिगामी मानसिकता को संबोधित करने में उनकी कमियों पर केंद्रित हैं. इस दिखावटी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में आजादी के 76 साल बाद भी यह उलझन बनी हुई है कि मुस्लिम महिलाएं पितृसत्ता की पकड़ में क्यों फंसी हुई हैं. क्या हम भारत की उपेक्षित बेटियां हैं?

हालांकि, यह विशेष प्रकरण बदलते रुख का संकेत देता प्रतीत होता है.

जब मैंने देखा कि मुस्लिम समाज को आखिरकार अपनी जगह मिल गई है तो राहत की एक किरण मुझ पर छा गई. यह बहुत देर से और बहुत कम मात्रा में आता है, लेकिन यह निर्विवाद रूप से एक शुरुआत है. यह परिवर्तन की एक चिंगारी का प्रतीक है जिसे हम कायम रख सकते हैं, भले ही हमारी आगे की यात्रा व्यापक और चुनौतीपूर्ण बनी हुई है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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