scorecardresearch
Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमतकेरल स्टोरी से 72 हूरें तक — हिंदी फिल्मों की इस्लाम में दिलचस्पी, मुसलमानों को इसमें शामिल होना चाहिए

केरल स्टोरी से 72 हूरें तक — हिंदी फिल्मों की इस्लाम में दिलचस्पी, मुसलमानों को इसमें शामिल होना चाहिए

मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि अगर वे परज़ानिया जैसी फिल्मों की सराहना करते हैं, जो हिंदुओं का गलत तरीके से सामान्यीकरण करती हैं, तो उन्हें उन फिल्मों का विरोध भी नहीं करना चाहिए जो उनका सामान्यीकरण करती हैं.

Text Size:

एक लेखक के रूप में मुझे विचारोत्तेजक विचारों को गहराई से समझने के लिए सिनेमा और दृश्य कला की शक्ति बहुत मूल्यवान लगती है. संजय पूरण सिंह चौहान की नई फिल्म, 72 हूरें, एक ऐसी फिल्म है जो मुस्लिम पहचान, इस्लामी आतंकवाद और संस्थागत प्रचार की जटिलताओं की पड़ताल करती है. सात जुलाई को रिलीज़ हुई ये फिल्म बताती है कि कैसे मुस्लिम मौलवी इस विचार का प्रचार करते हैं कि जिहाद या आत्मघाती हमलों के जरिए शहादत हासिल की जा सकती है और स्वर्ग में 72 कुंवारी अप्सराओं का इनाम दिया जाता है. फिल्म को मुसलमानों को रूढ़िवादी बताने और नफरत फैलाने वाले भाषण को प्रोत्साहित करने के लिए आलोचना मिली है.

हालांकि, इस्लामवादियों और आतंकवादी समूह के विचारकों और विद्वानों पर केंद्रित फिल्म को ध्यान में रखते हुए, इस फिल्म को सूक्ष्म परिप्रेक्ष्य से देखना महत्वपूर्ण है.

आइए एक बात स्पष्ट करें – जब तक कला का एक काम दुनिया भर के 200 करोड़ मुसलमानों का सामान्यीकरण नहीं करता है और इसके बजाय इस्लामवादियों, आतंकवादी समूह के विचारकों और चरमपंथी मान्यताओं का प्रचार करने वाले विद्वानों पर ध्यान केंद्रित करता है, तब तक धर्म के ठेकेदारों (अनुयायियों) को इससे कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन ऐसे मामले में जहां कुछ मुसलमान इसकी अलग तरह से व्याख्या करते हैं और कलाकृति के परिसर का विरोध करते हैं, यह केवल कला को सेंसर करने के बजाय गहराई से सोचने की मांग करता है.

इस्लामवादियों और कम्युनिस्टों के लिए इस्लाम के आसपास किसी भी प्रकार के आलोचनात्मक प्रवचन को मुसलमानों पर हमले के रूप में चित्रित करना असामान्य नहीं है. इससे हमें चरमपंथी विचारधाराओं की खोज और इस्लाम की निंदा के बीच अंतर करने की आवश्यकता होती है. आलोचनात्मक संवाद में शामिल होकर और कलाकृति की बारीकियों को समझकर, मुसलमान सामाजिक-सांस्कृतिक बहस में अधिक उत्पादक योगदान दे सकते हैं.


यह भी पढ़ें: ‘इंडिया वीज़ा नहीं देता कफन क्या देगा’, JNU में नैरेटिव को सेट करने में असफल रही फिल्म ‘72 हूरें’


विवादों में फंस गए

2007 की पाकिस्तानी फिल्म ‘‘खुदा के लिए’’ ने आतंकवाद के विचारों, मुस्लिम समुदाय के सामान्यीकरण को संबोधित किया और यहां तक कि संवेदनशीलता और परिपक्वता के साथ धर्मशास्त्र की व्याख्या भी की. इस्लामी कट्टरवाद और मुस्लिम अनुभव की वास्तविकताओं के अनुरूप, फिल्म ने आतंकवाद के पीड़ितों को ईमानदारी से चित्रित किया और ये भी कि कैसे निर्दोष मुसलमान, चरमपंथ और पादरी वर्ग के विरोध के घेरे में फंसकर, अपने विश्वास को आगे बढ़ाते हैं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि यदि वे ‘‘परज़ानिया’’ (2005) जैसी फिल्मों की सराहना करते हैं, जो काफी हद तक हिंदुओं को नकारात्मक रूप से सामान्यीकृत करती है, तो उन्हें उन विरोधी फिल्मों का भी विरोध करना चाहिए जो उन्हें नकारात्मक रूप से सामान्यीकृत करती हैं. कोई भी किसी फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए तब तक बहस नहीं कर सकता जब तक वह स्पष्ट रूप से किसी समूह या व्यक्ति के खिलाफ हिंसा को उकसाती न हो. भारत की जिम्मेदारी है कि वह संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की रक्षा करे.

‘‘फिराक’’ (2008), ‘‘फना’’ (2006), ‘‘माई नेम इज़ खान’’ (2010), ‘‘द कश्मीर फाइल्स’’ (2022), और ‘‘द केरला स्टोरी’’ (2023) जैसी फिल्मों पर विचार करें, जिन्हें वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों समूहों ने निशाना बनाया था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए क्या यह उचित है कि हम उन पर प्रतिबंध लगाएं? क्या हमें विभिन्न समुदायों के बीच संवाद और समझ को बढ़ावा नहीं देना चाहिए?


यह भी पढ़ें: सिर्फ ‘केरला स्टोरी’ नहीं—बीते 10 साल में 28 भारतीय महिलाएं IS में गई, जिन्हें नसीब हुई मौत या सज़ा


एक आदर्श बदलाव

पिछले कुछ वर्षों में ‘‘द कश्मीर फाइल्स’’, ‘‘द केरला स्टोरी’’ और अब, ‘‘72 हूरें’’ की रिलीज़ के साथ, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एक उल्लेखनीय बदलाव आया है. पहले फिल्में ज्यादातर बहुसंख्यक हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करती थीं (हालांकि आलोचकों को यह विवादास्पद भी लगेगा), लेकिन अब, वो भारत में दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय – मुसलमानों में भी दिलचस्पी लेती हैं. कुछ लोगों का तर्क है कि यह बदलाव एक सुधार है, क्योंकि बॉलीवुड ने पहले हिंदू समुदाय के भीतर उग्रवाद को उजागर किया था और हिंदू सांप्रदायिकता के खिलाफ बात की थी. अब यह मुस्लिम समुदाय के बारे में असुविधाजनक सच्चाइयों को संबोधित करने से नहीं कतरा रहा है.

कहानी में यह बदलाव वर्तमान समय को दर्शाता है जब एक दर्शन और राजनीतिक विचारधारा के रूप में हिंदुत्व प्रमुखता प्राप्त कर रहा है और कई राजनीतिक अभियानों का केंद्रीय सिद्धांत बन गया है. समर्थक इसे एक सभ्यतागत पुनरुत्थान के रूप में देखते हैं जो भारत में धर्मनिरपेक्षता को संतुलित करता है, जबकि आलोचक इसे अन्य धर्मों के लिए सीधे खतरे के रूप में देखते हैं.

मैं हिंदुत्व की बढ़ती लोकप्रियता को दो विपरीत विचारों के बीच भारत की आत्मा को प्रस्तुत करने के एक सुनहरे अवसर के रूप में देखती हूं, जो समाज में अधिक योगदान दे सकता है. मेल-मिलाप के लिए कड़वी सच्चाईयों पर चर्चा करते हुए भी खुले और ईमानदार संवाद की दरकार होती है, ताकि पुरानी बातों को शांत किया जा सके. यह दृष्टिकोण सभी समुदायों को एक-दूसरे के साथ अपने मतभेदों को आत्मविश्वास से व्यक्त करने और सांप्रदायिक वैमनस्य को दूर करने की अनुमति देता है.

फिल्में आसान लक्ष्य हैं

पहले भी ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहां मुस्लिम नेतृत्व ने किताबों, आर्ट या फिल्मों पर सेंसरशिप की मांग की है, जिन्हें वे ईशनिंदा या विवादास्पद मानते हैं, जैसे कमल हासन की ‘‘विश्वरूपम’’ (2013) और मणिरत्नम की ‘‘रोज़ा’’ (1992). अतीत में हिंदू बुद्धिजीवियों, सुधारकों, विचारकों और कलाकारों ने समुदाय में प्रचलित उनकी प्रथाओं के आलोचनात्मक चित्रण की खोज की है, लेकिन मुस्लिम समुदाय के भीतर इस आत्म-आलोचना और खुलेपन की कमी रही है; विरोधी विचारों को अक्सर धमकियों का सामना करना पड़ता है.

यह गैर आलोचनात्मक विरोध कुछ हिंदू चरमपंथियों के बीच भी स्पष्ट है, जो ‘‘वॉटर’’ और ‘‘परज़ानिया’’ जैसी फिल्मों के बहिष्कार का आह्वान करते हैं.

इसलिए, कई मायनों में विरोध की अप्रत्याशितता के कारण फिल्में आसान लक्ष्य बन गई हैं.

कला पर प्रतिबंध न केवल तानाशाही की भावना को दर्शाता है बल्कि आत्मनिरीक्षण और वैकल्पिक दृष्टिकोण पर विचार करने की अनिच्छा को भी दर्शाता है. फलदायी संचार एक मुक्त समाज को कायम रखने और रचनात्मक संस्कृति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. इतिहास में विभिन्न रूपों में कलाकृतियां – साहित्य, रंगमंच, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत और नृत्य – ने विचारों, भावनाओं, सामाजिक प्रगति को व्यक्त करने, मानवता के लिए नई संभावनाओं की कल्पना करने, समस्या-समाधान और मानव जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए शक्तिशाली उपकरण के रूप में काम किया है.

क्या भारत, जिसमें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और यहूदी शामिल हैं, अपनी विविध आबादी के साथ एक सामूहिक और विकसित मानसिकता विकसित कर सकता है जहां बिना किसी प्रतिक्रिया के डर के आलोचनात्मक तर्क की सराहना की जाती है? या क्या हिंदुओं से हमेशा यह अपेक्षा की जाएगी कि वे अपने समुदाय के भीतर की गलतियों की आलोचनात्मक जांच करते समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मशाल थामे रहें?

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वे ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक वीकली यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: 4,300 भारतीय मुस्लिम महिलाएं बिना पुरुषों के अकेले जाएंगी हज, मेरे लिए क्या हैं इसके मायने


 

share & View comments