नई दिल्ली: श्रीलंका ने जबरदस्त उथल-पुथल का सामना किया है. 2019 के ईस्टर संडे बम धमाकों ने देश के पर्यटन उद्योग को ढहा दिया, जो इसके सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 12 प्रतिशत है और एक समय, इसकी विदेशी मुद्रा आय का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत था. बमबारी के बाद 2020 में कोविड-19 महामारी आई, जिससे उद्योग को एक और बड़ा झटका लगा.
फिर आर्थिक संकट आया, जो एक द्वीप राष्ट्र के लिए अकल्पनीय लग रहा था जिसने 2009 में अपने तीन दशक लंबे गृह युद्ध को निश्चित रूप से समाप्त कर दिया था और छह साल बाद विश्व बैंक द्वारा इसे “विकास की सफलता की कहानी” के रूप में सराहा गया था. फिर भी 2022 में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई, इसका विदेशी मुद्रा भंडार 50 मिलियन डॉलर के निचले स्तर पर पहुंच गया और यह इतिहास में पहली बार डिफाल्टर हो गया. ईंधन के लिए लंबी कतारों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब प्रसारित हुईं क्योंकि देश लगभग 50 अरब डॉलर के कर्ज से जूझ रहा था. जैसे ही सरकार गिर गई और सड़कों पर अकल्पनीय ढंग से विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया और तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और मालदीव भाग गए.
आर्थिक संकट, सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल और राजनीतिक उथल-पुथल जैसे इस तूफान के दौरान ही जनता ने नहीं, बल्कि श्रीलंका की संसद ने देश का नेतृत्व करने के लिए रानिल विक्रमसिंघे को नया राष्ट्रपति चुना. विक्रमसिंघे की पहली भारत यात्रा इस साल 20-21 जुलाई को उनके राष्ट्रपति पद की पहली वर्षगांठ पर हुई थी. और इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए ही नेबरहुड फर्स्ट सीरीज़ में 29 जुलाई को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ‘राजपक्षे के बाद श्रीलंका: रिकवरी या स्टैंडस्टिल’ पर चर्चा की गई.
यूनाइटेड नेशनल पार्टी के एकमात्र संसद सदस्य, राष्ट्रपति विक्रमसिंघे पांच बार प्रधानमंत्री का पद संभाल चुके हैं. वह पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के नेतृत्व वाली श्रीलंकाई संसद की सबसे बड़ी पार्टी श्रीलंका पोडुजना पेरामुना (एसएलपीपी) के समर्थन से सत्ता में आए, जिन्होंने 2022 में अपनी सरकार के खिलाफ देश की अर्थव्यवस्था को संभाल न पाने को लेकर लगभग आधे साल तक जनता के गुस्से का सामना किया.
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भारत-श्रीलंका समीकरण पर भरोसा
चार साल से अधिक समय से इस श्रृंखला की अध्यक्षता कर रहे मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) अशोक के मेहता ने दिप्रिंट को बताया, “चर्चाएं हमेशा देश-आधारित होती हैं.” मेहता के अनुसार, यह भारत की विदेश नीति के एक प्रमुख घटक- पड़ोसी प्रथम की नीति पर आधारित है.
डेढ़ घंटे की चर्चा में ज्यादातर बात ‘विश्वास’ के सवाल से जूझने में बीता- खासकर कि क्या श्रीलंका में स्थानीय आबादी एक भागीदार के रूप में भारत पर भरोसा करती है. अनुभवी पत्रकार और फॉरेन कॉरेस्पोंडेंट्स क्लब ऑफ साउथ एशिया के अध्यक्ष एस वेंकट नारायण ने अपने अनुभव से बताया कि कैसे एक आम श्रीलंकाई जरूरत के समय देश में आकर मदद करने की भारत की इच्छा की सराहना करता है.
भारत और श्रीलंका के बीच जटिल संबंध रहे हैं. भारत के मुख्य सूचना आयुक्त और श्रीलंका में भारत के पूर्व उच्चायुक्त राजदूत यश सिन्हा ने कहा कि “विश्वास एक दोतरफा रास्ता है” और भारत को ऑपरेशन पूमलाई जैसे कुछ मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए- राहत आपूर्ति अभियान जो 1987 में प्रथम ईलम युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना ने हमले से घिरे जाफना शहर में चलाया था.
श्रीलंकाई सशस्त्र बलों ने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) को हराने के प्रयासों में जाफना की नाकेबंदी कर दी थी. भारत द्वारा की गई आपूर्ति ने श्रीलंका के गृहयुद्ध में मूकदर्शक बने न रहने के उसके इरादे का संकेत दिया.
बमुश्किल दो महीने बाद, गृह युद्ध को समाप्त करने के लिए भारत-श्रीलंका समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिससे इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (आईपीकेएफ) को श्रीलंका में तैनात करने की अनुमति मिल गई. श्रीलंकाई गृहयुद्ध के दौरान भारत की कार्रवाइयों के अलावा, एक आर्थिक भागीदार के रूप में इसकी गंभीरता पर भी सवाल उठाया गया.
मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस के रिसर्च फेलो गुलबिन सुल्ताना ने कहा, “श्रीलंका ने शिकायत की है कि भारत ने (त्रिंकोमाली) तेल टैंक फार्मों को विकसित करने के लिए कुछ नहीं किया है.” जिसने आगे के सवाल के लिए माहौल तैयार किया: क्या भारत पर भरोसा किया जाए और क्या यह श्रीलंका के लिए एक ईमानदार और विश्वसनीय आर्थिक भागीदार साबित होगा?
2003 में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने अपनी सहायक कंपनी, लंका इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन या लंका आईओसी के माध्यम से त्रिंकोमाली तेल टैंक फार्म का अधिग्रहण कर लिया. वाइस एडमिरल (सेवानिवृत्त) अनूप सिंह ने कहा, त्रिंकोमाली को कभी दुनिया का सबसे बड़ा तेल टैंक फार्म कहा जाता था. अधिग्रहण के बावजूद, लंका आईओसी के 99 टैंकों में से केवल 14 को 2022 तक चालू किया गया था.
पूर्व राष्ट्रपति महिंदा और गोटबाया राजपक्षे ने संकेत दिया था कि श्रीलंकाई सरकार लंका आईओसी से इन तेल भंडारण टैंकों को फिर से हासिल कर लेगी और भारत के साथ समझौते को रद्द कर देगी. आखिरकार, 2022 में भारत और श्रीलंका की सरकारें संयुक्त रूप से फार्म विकसित करने के लिए एक समझौते पर सहमत हुईं.
सिंह ने कहा, “तेल भंडारण टैंक त्रिंकोमाली बंदरगाह के निकट होने के कारण महत्वपूर्ण हैं, जो कि “दुनिया का चौथा सबसे बड़ा प्राकृतिक बंदरगाह है…और चार तरफ से संरक्षित है.” ये बंदरगाह विमान वाहक पोतों का भार उठा सकता है और भू-सुरक्षा के लिए इसका रणनीतिक महत्व है.
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भारत और चीन के बीच फंसा है श्रीलंका
जैसे-जैसे चर्चा आगे बढ़ी, ध्यान श्रीलंका की संभावनाओं पर चीन के प्रभाव की ओर केंद्रित हो गया. सिन्हा ने स्पष्ट किया कि चीन “यहां रहने के लिए” है और निकट भविष्य में यहीं रहेगा.
इस बात पर टिप्पणी करते हुए कि कैसे चीन श्रीलंका के साथ आर्थिक संबंधों से कहीं अधिक का निर्माण कर रहा है, एक श्रोता सदस्य ने बताया कि वह द्वीप राष्ट्र के साथ एक सांस्कृतिक गठबंधन बनाने के लिए बौद्ध मठों और भिक्षुओं को वित्त पोषण कर रहा है- एक ऐसा क्षेत्र जिसका लाभ उठाने अब तक भारत ने नहीं उठाया है.
लेकिन सिन्हा ने तुरंत असहमति जताते हुए कहा कि भारत “एक सक्षम सांस्कृतिक भागीदार” रहा है, जो कैंडी में नृत्य अकादमियों और अनुराधापुरा में भिक्षुओं के लिए आवास का वित्तपोषण करता है. फिर भी, आम सहमति यह थी कि चीन की गहरी पकड़ और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) विदेश नीति के उपकरण हैं जिनसे भारत को निपटना होगा.
भारत और चीन के बीच इस रस्साकशी के बीच, निगाहें तेजी से श्रीलंका की ओर चली गईं: द्वीप राष्ट्र आखिरकार किसका पक्ष लेगा? सिंह ने एक दिलचस्प जवाबी सवाल उठाया: कोलंबो को इसके लिए मजबूर क्यों किया जाए?
भारत और चीन के साथ अपने संबंधों को श्रीलंका कैसे देखता है, इसे समझाते हुए मेहता ने कहा, “हर श्रीलंकाई नेता ने हमेशा कहा है कि वे एक रिश्तेदार की तरह सुरक्षा प्रदान करने के लिए भारत की ओर देखते हैं, जबकि वे अपनी अर्थव्यवस्था के लिए चीन की ओर एक मित्र की तरह देखते हैं.”
(संपादन: कृष्ण मुरारी)
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