scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतअमेरिका मोदी के लिए रेड कार्पेट बिछा रहा है. लेकिन व्हाइट हाउस जानता है कि भारतीय पीएम मनमानी करते हैं

अमेरिका मोदी के लिए रेड कार्पेट बिछा रहा है. लेकिन व्हाइट हाउस जानता है कि भारतीय पीएम मनमानी करते हैं

भारत अमेरिकी दिग्गजों का निवेश और प्रौद्योगिकियां चाहता है, लेकिन मोदी की यात्रा उस तरह का 'टर्निंग प्वाइंट' नहीं होगी, जिसकी कल्पना निक्सन-किसिंजर की जोड़ी ने 1970 के दशक में चीन के लिए की थी.

Text Size:

केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का दावा है कि 21 जून से शुरू हो रही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की आधिकारिक यात्रा भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों को एक अगले स्तर पर ले जाएगी.

अधिकारी के अनुसार, “यूएसए के साथ देश के संबंध अच्छे होंगे” लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध पर भारत के रुख में कुछ बदलाव नहीं होगा.

यात्रा के बाद, विश्व मामलों के मूवर्स और शेकर्स यह आकलन करेंगे कि आने वाले वर्षों में वैश्विक मामलों में भारत का मध्यमार्गी रवैया मजबूत या कमजोर होगा.

भारत के कई प्रतिष्ठान जोर दे कर कह रहे हैं कि पश्चिमी आलोचकों को नई दिल्ली को अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की 1972 की चीन यात्रा के चश्मे से नहीं देखना चाहिए, क्योंकि रिचर्ड की उस यात्रा के बाद अमेरिकी कंपनियों द्वारा चीन में भारी निवेश किया गया जिसने चीन और अंततः दुनिया का भाग्य बदल दिया.

मोदी की आगामी यात्रा दूर-दूर तक वैसी दिखाई नहीं दे रही है जैसी की अमेरिका के व्यापार मॉडल के साथ चीन के लिए थी. ना ही यह अमेरिका के साथ किसी यूरोपीय देश की साझेदारी का बोध करा रही है.

भारत भविष्य की कंपनियों जैसे Google, Microsoft और CISCO की ओर देख रहा है, और यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में शोध करने वाली कंपनियों के साथ भी जुड़ना चाहता है. यह अमेरिकी दिग्गजों के निवेश और प्रौद्योगिकियों को चाहता है, लेकिन यह यात्रा भारत के लिए “टर्निंग प्वाइंट” नहीं होगी, जैसा कि निक्सन-किसिंजर की जोड़ी ने 1970 के दशक में चीन के लिए सोचा था.

यह मौजूदा सामरिक स्थितियों में गहराई हासिल करने और एक नई और हाइअर ऑरबिट में प्रवेश कर रहा है. यह एक गैर-चीन, गैर-पश्चिम जैसा संबंध है जहां भौगोलिक वास्तविकताएं और आर्थिक लेन-देन की जरूरतें मिलती हैं.


यह भी पढ़ें: BRICS करेंसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर अमेरिकी पकड़ कमजोर कर सकती है, भारत को अपनी भूमिका तय करनी होगी


प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका निर्धारित करना

इसमें एक यक्ष प्रश्न है: भारत के बिना अमेरिका कैसे भारत-प्रशांत क्षेत्र में महत्वाकांक्षी योजना बना सकता है? यह यात्रा भारत-प्रशांत क्षेत्र में भी भारत की दीर्घकालिक भूमिका का दायरा तय करने मैं मदद करेगी

भारतीय कूटनीति के लिए, वाशिंगटन यात्रा कसौटी पर उतरने का मामला है जो यह दिखाएगा कि कैसे तेजी से बदलते अंतरराष्ट्रीय मंच पर मोदी व्यापार, प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष और रक्षा में भारत के महत्वपूर्ण हितों को संतुलित करते हैं.

वाशिंगटन में इस सप्ताह होने वाला भारत-अमेरिका का उच्चस्तरीय शिखर सम्मेलन नई दिल्ली के फरवरी 2022 के रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद पहला है. पीएम मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने आक्रामक आक्रमण के लिए रूस की निंदा करने से व्यावहारिक रूप से इनकार कर दिया और रूस-यूक्रेन युद्ध पर संयुक्त राष्ट्र में मतदान से दूर रहे.

रूसी आक्रमण के बाद से, भारत ने मॉस्को के खिलाफ पश्चिम के प्रतिबंधों में शामिल होने से लगातार इनकार किया है. हालांकि, इसने बार-बार युद्धविराम की मांग की है और युद्ध को समाप्त करने के लिए उपचारात्मक उपायों का समर्थन करने पर सहमत हुआ है. भारत ने “परमाणु खतरों की अस्वीकार्यता” के बारे में भी जोरदार ढंग से बात की है.

जब जर्मनी और पड़ोसी देशों को अपने कूटनीतिक रुख के कारण रूसी तेल की आपूर्ति में रुकावटों का सामना करना पड़ा, तो भारत ने अपनी ईंधन खरीद बढ़ा दी, वह भी रियायती मूल्य पर. मोदी की आधिकारिक यात्रा इसी पृष्ठभूमि में हो रही है.

चीन की इस यात्रा पर पैनी नजर रहेगी. बीजिंग नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच तेजी से बढ़ते घटनाक्रम से खुश नहीं होगा. यहां तक कि यूरोप भी , थोड़ी जलन के साथ देखेगा, राष्ट्रपति बाइडेन कैसे पीएम मोदी की अगवानी करेंगे जब की मोदी ने  रूस-यूक्रेन युद्ध पर “तटस्थ रुख” अपनाया है, जो अमेरिकी हितों के लिए हानिकारक है.

कई पर्यवेक्षकों ने यह याद किया है कि जयशंकर ने भारत द्वारा रूसी तेल की खरीद का बचाव करते हुए केवल यूरोपीय आलोचकों को जवाब दिया है, यह तर्क देते हुए कि यूरोप को इस मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए कि “इसकी समस्याएं दुनिया की समस्याएं हैं”. जयशंकर ने अमेरिका को एक बार भी सीधे तौर पर काउंटर नहीं किया है. अमेरिका ने भी सार्वजनिक बयान देने से परहेज किया है. यूक्रेन युद्ध का अंत अमेरिका को दिखाएगा कि यूरोप अकेले नतीजे को नहीं संभाल सकता.

भारत और अमेरिका ने अच्छा आकलन किया है

यूरोप और भारत को रूसी तेल आपूर्ति पर विवाद के संबंध में अमेरिकी दृष्टिकोण में अंतर को भारत समझ गया है. रूस के साथ भारत के तेल सौदे के बारे में बात करते समय अमेरिका ने चालाकि अपनाते हुए शांत रहा है क्योंकि वह नाटो देश में शामिल नहीं है. और वह भारत-रूस संबंधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को अच्छी तरह से जानता है. भारत द्वारा रूसी तेल की खरीद से अंतरराष्ट्रीय मूल्य नियंत्रण तंत्र की निगरानी में मदद मिल रही है.

अमेरिकी कूटनीति चाहती है कि यूरोप रूसी तेल के खिलाफ प्रतिबंधों का पालन जरूर करे.अमेरिकियों का लंबे समय से इरादा था की यूरोप रूसी तेल आपूर्ति में कटौती करे

अब तक, यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद भारत के तेल संकट के प्रबंधन के खिलाफ अमेरिकी विदेश विभाग की ओर से कोई कठोर टिप्पणी नहीं की गई है.

जब मोदी के कट्टर आलोचक द इकोनॉमिस्ट भारत को “अमेरिका का नया सबसे अच्छा दोस्त” बताता है तो वो बेवजह नहीं है.

भारत और अमेरिका दोनों ने एक-दूसरे की मौजूदा स्थिति का अच्छी तरह आकलन किया है. अमेरिका ने महसूस किया है कि पीएम मोदी ख़ुद की ही सुनेंगे जिन्होंने वैचारिक “युद्ध-विरोधी” रुख अपनाने के लिए पश्चिमी दबाव को दरकिनार कर अपने देश की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए “सस्ता तेल” सुनिश्चित किया है.

भारत सरकार को लगता है कि उसने रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद एक अवसर आने पर विश्व मंच पर अपने “तटस्थ गुटनिरपेक्ष रुख” की ठोस साख स्थापित करने के अवसर को जब्त कर लिया है.

इसने 21वीं सदी की दुनिया को संदेश दिया है, जैसा कि जयशंकर ने हाल ही में एक इन्टरव्यू में कहा था, “आपके पास एक ऐसा भारत है जो कई भौगोलिक क्षेत्रों में कई अवसरों को देख रहा है, अक्सर ऐसी राजनीति जिसमें विरोधाभासी हित होते हैं. और यह सभी मोर्चों पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है.”

हालांकि, यदि कोई भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों में चल रहे परिवर्तन की सीमा को मापना चाहता है, तो 22 जून को शाम 7.30 बजे व्हाइट हाउस में पीएम मोदी के आगमन पर नज़र रखें. दावा किया जा रहा है कि व्हाइट हाउस में “भारतीय परिवार” का भव्य स्वागत होगा. लगभग 7,000 भारतीय अमेरिकियों के भाग लेने की संभावना है. व्हाइट हाउस में इस तरह के राजनयिक कार्निवाल दुर्लभ हैं.

अंतरराष्ट्रीय मामलों में एक बार दोनों पक्षों में सत्ताधारी नेतृत्व के साथ संबंधों की उपयोगिता का विवेकपूर्ण मूल्यांकन हो जाने के बाद, प्रमुख खिलाड़ियों को परस्पर व्यक्तिगत केमिस्ट्री ठीक करने में देर नहीं लगाती.

यह स्पष्ट है कि वाशिंगटन ने 2002 के बाद से मोदी को समझने का जो अभियान शरु किया था वो अंत मैं आज पीएम के सन्मान मैं रेड कार्पेट बिछाकर समाप्त हो रहा है.

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

शीला भट्ट दिल्ली की वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह ट्वीट करती है @sheela2010. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.


यह भी पढ़ें: जनरल इलेक्ट्रिक जेट डील भारत-अमेरिका के भरोसे की परीक्षा, दांव पर महत्वपूर्ण तकनीक


 

share & View comments