नई दिल्ली: कांग्रेस नेता राहुल गांधी की इस महीने की शुरुआत में हुई अमेरिका की छह दिवसीय यात्रा और वहां उनके द्वारा दिए गए बयान और बातचीत की अधिकतर दक्षिणपंथी हिंदुवादी प्रकाशनों में चर्चा हुई.
राहुल गांधी की यात्रा के दौरान ही ऑपरेशन ब्लू स्टार की 39वीं बरसी थी. ऑपरेशन ब्लू स्टार में भारतीय सशस्त्र बलों ने सिख चरमपंथी जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके अनुयायियों को बाहर निकालने के लिए 1984 में अमृतसर में स्वर्ण मंदिर पर धावा बोला था.
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस ऑपरेशन का आदेश दिया था और बाद में उसी साल उनके सिख अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी थी. इंदिरा की हत्या के कारण 1984 में सिख विरोधी दंगे हुए थे.
पिछले बुधवार को वनइंडिया के लिए ‘राहुल रिफ्यूज टू लर्न फ्रॉम हिस्ट्री’ शीर्षक वाले एक लेख में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक पूर्व सांसद बलबीर पुंज ने जी.बी.एस सिद्धू की किताब ‘द खालिस्तान कॉन्सपिरेसी: ए फॉर्मर रॉ ऑफिसर अनरावेल्स द पाथ टू’ का हवाला देते हुए दंगों में कांग्रेस की भूमिका की ओर इशारा किया.
पुंज ने लिखा, “क्या हमने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ की ओर ले जाने वाली घटनाओं की सीरीज़ और उसके दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों से कोई सबक सीखा है?”
सिखों के लिए एक अलग राज्य खालिस्तान की मांग का ज़िक्र करते हुए, उन्होंने पूछा, “जनवरी 1980 में कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद ही पंजाब और विदेशों में खालिस्तान समर्थक गतिविधियों में अचानक तेज़ी क्यों आई?”
पुंज ने आगे कहा, “असली कारण कुछ वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं द्वारा जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में लौटने के तुरंत बाद लिया गया एक सचेत निर्णय था. अगले चुनाव (जनवरी 1985 से पहले) जीतने के लिए पहले खालिस्तान को एक मुद्दा बनाया गया और फिर भिंडरावाले का इस्तेमाल किया गया.”
उन्होंने कहा, “इसकी कीमत उन्होंने और देश, दोनों ने चुकाई, लेकिन यह दुर्भावना परिवार में अभी भी चल रही है. राहुल भारत के खिलाफ विदेश में शेखी बघारते हैं. ‘टुकड़े-टुकड़े’ गैंग के साथ उनके करीबी संबंध हैं. एक राष्ट्र के रूप में भारत के अस्तित्व पर सवाल उठाने वाले कम्युनिस्ट क्लिच के बारे में उनका बार-बार बोलना यह दिखाता है कि उन्होंने अपने पिता (राजीव गांधी) और दादी (इंदिरा गांधी) के दुखद अनुभव से कुछ भी नहीं सीखा है.”
एक अन्य दक्षिणपंथी लेखक मिन्हाज मर्चेंट ने शुक्रवार को ओपेन मैगज़ीन में लिखे एक कॉलम में राहुल गांधी के “हार्ड-लेफ्ट” आइडिया पर प्रकाश डाला और पूछा कि क्या कांग्रेस राष्ट्रीय मूड को गलत तरीके से पढ़ रही है.
उन्होंने लिखा, “राहुल ने अपनी राजनीतिक पिच में दो नई चीज़ों को जोड़ा है. पहला, अल्पसंख्यकवाद दूसरा, कल्याणवाद. कर्नाटक की जीत इन्हीं दो स्तंभों पर टिकी थी. मुसलमान जो कर्नाटक के कुल मतदाताओं का 13 प्रतिशत हैं, ने जनता दल (सेक्युलर) को छोड़कर कांग्रेस के लिए बड़े पैमाने पर मतदान किया. इस बीच कल्याणवाद ने यह सुनिश्चित किया कि कांग्रेस अपने मूल हिंदू जाति के मतदाता आधार को बनाए रखे.”
मर्चेंट ने आगे लिखा, “यदि भारत के सबसे धनी राज्यों में से एक कर्नाटक में अल्पसंख्यकवाद और कल्याणवाद काम कर सकता है, तो इसे 2024 में राष्ट्रीय स्तर पर क्यों नहीं काम करना चाहिए? कांग्रेस नेतृत्व का मानना है कि वह ऐसा कर सकता है. इसलिए राहुल पर कट्टर-वाम, अल्पसंख्यक-झुकाव, कल्याण-उन्मुख स्थिति से केंद्र-वाम की ओर बढ़ने का कोई दबाव नहीं है. हालांकि, यह एक गलत अनुमान साबित हो सकता है.”
उन्होंने तर्क दिया कि कांग्रेस राष्ट्रीय मनोदशा को गलत तरीके से पढ़ रही है क्योंकि भारत एक महत्वाकांक्षी देश था. वह लिखते हैं, “औसत भारतीय बड़े व्यवसाय को नापसंद नहीं करते हैं. इसमें से अधिकतर सशक्त कर्मचारी हैं और एक दिन खुद एक बड़ा उद्यमी बनना चाहता है.”
मर्चेंट ने अपने लेख में निष्कर्ष निकाला कि “भारत जैसे राजनीतिक रूप से रूढ़िवादी देश में”, राहुल का “हार्ड-लेफ्ट जुआ” 2024 में मुश्किल में पड़ सकता है. बता दें कि 2024 में देश में आम चुनाव होने वाले हैं.
यह भी पढ़ें: ‘चुनाव जीतने के लिए मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व काफी नहीं’- कर्नाटक के नतीजों पर हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस
‘मोदी के राज में बदल गया है भारत’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र में छपे एक संपादकीय में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया है कि भले ही अंतरराष्ट्रीय संगठन भारत के प्रति “दयालु होने के लिए नहीं जाने जाते”, लेकिन सभी मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत बदल गया है.
विश्व बैंक ने अपने नवीनतम इंडिया डेवलपमेंट अपडेट में कहा, “भारतीय अर्थव्यवस्था बाहरी झटकों को झेलने के लिए हमेशा तैयार रही है. इनमें से अधिकांश संयुक्त राज्य-प्रभुत्व वाली एजेंसियां भारत या वर्तमान व्यवस्था के प्रति दयालु होने के लिए नहीं जानी जाती हैं. फिर भी, वे सभी मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेतृत्व में भारत बदल गया है. भारत एशिया और वैश्विक विकास में प्रमुख स्थान बनाने की कोशिश कर रहा है.”
भारत के नए संसद भवन का उदाहरण देते हुए इसमें कहा गया है कि मोदी सरकार ने हमेशा देश की सभ्यतागत जड़ों को मजबूत करने की कोशिश की है.
इसमें आगे लिखा गया है, “हीनता और औपनिवेशिक चश्मे की भावना हमारे मानस और बौद्धिक वातावरण में रची-बसी है. मोदी सरकार ने इस भावना को कमजोर करने की कोशिश की और समग्र विकास के लिए भारतीय आबादी को पूरी तरह प्रोत्साहित किया है.”
संपादकीय में लिखा गया है, “बेशक, विपक्ष द्वारा राजनीतिक स्थिति, निहित स्वार्थों के लिए नाराज़गी और भारत विरोधी ताकतों द्वारा विरोध होगा. सदियों की गलती को नौ साल में कोई नहीं सुधार सकता. ग्रामीण विकास, कृषि और पर्यावरण के मोर्चे पर और सुधार और वितरण की उम्मीद है, लेकिन तथ्यों के आधार पर कार्रवाई के पीछे की मंशा पर सवाल उठाना कठिन है.”
चीन का ‘तिब्बत में सांस्कृतिक नरसंहार’
ऑर्गेनाइज़र में एक लेख में लेखक और वरिष्ठ पत्रकार विजय क्रांति ने चिंता व्यक्त की कि चीनी राष्ट्रपति “यूरोपीय चर्च के औपनिवेशिक आवासीय विद्यालय प्रणाली को अपनाकर तिब्बत में सांस्कृतिक नरसंहार का तांडव कर रहे थे.”
उन्होंने लिखा, “इस साल फरवरी में संयुक्त राष्ट्र के तीन स्वतंत्र विशेषज्ञों ने बताया कि लगभग दस लाख तिब्बती बच्चों को उनके परिवारों से अलग कर दिया गया है और उन्हें सीसीपी (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) द्वारा संचालित आवासीय विद्यालयों में भेज दिया. विशेषज्ञों ने इस तथ्य पर चिंता व्यक्त की कि इन स्कूलों में इन बच्चों को एक पाठ्यक्रम में मंदारिन चीनी सीखने के लिए मजबूर किया जाता है, जो चीनी संस्कृति और सीसीपी के राजनीतिक प्रचार के इर्द-गिर्द बना है.”
लेख में कहा गया है कि इस साल मार्च में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने “तिब्बत में चीन की जबरदस्ती ‘बोर्डिंग स्कूल प्रणाली’ और तिब्बती संस्कृति को मिटाने के लिए चलाए गए बड़े पैमाने पर अभियान ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित किया था.”
क्रांति ने आगे बताया कि एक संग्रहालय घुमाने के दौरान तिब्बती बच्चों को “यह घोषणा करके कि पुराना तिब्बत मठों और राज्य के बैनर तले सामंती गुलामी के शासन के अधीन था परम पावन दलाई लामा के शासन की निंदा करने के लिए कहा गया था.”
क्रांति ने लिखा, “भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने ‘कॉन्वेंट स्कूल’ प्रणाली का इस्तेमाल किया और भारतीय पीढ़ियों को उनकी मूल भारतीय पहचान से अलग करने के लिए पारंपरिक स्कूल प्रणाली को बदल दिया. आज के तिब्बत में यह सांस्कृतिक नरसंहार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाया जा रहा है.”
यह भी पढ़ें: कांग्रेस, BJP और JD (S) के सितारों से परे, छोटी पार्टी के खिलाड़ी और निर्दलीयों ने कर्नाटक में बड़ी जीत हासिल की
कर्नाटक में कांग्रेस द्वारा ‘फ्रीबीज़’ की कीमत
ऑर्गेनाइज़र के एक अन्य लेख में लेखक रवि पोखरना और श्रेया गांगुली ने तर्क दिया कि कर्नाटक में मुफ्त बिजली का कांग्रेस का वादा “वित्तीय समेकन की दिशा में राज्य के हालिया प्रयासों को पटरी से उतार सकता है”.
इस साल मई में हुए राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कर्नाटक को बीजेपी से छीन लिया था. इसने जनवरी में चुनाव प्रचार के दौरान घोषणा की कि ‘गृह ज्योति’ योजना के तहत पात्र परिवारों को प्रति माह 200 यूनिट तक मुफ्त बिजली की गारंटी दी जाएगी.
पोखरना और गांगुली ने लिखा, “बिजली सब्सिडी पर उच्च खर्च न केवल राज्य के वित्तीय स्वास्थ्य को खतरे में डालता है, यह अन्य डोमेन में सामाजिक कार्यक्रमों के लिए उपलब्ध धन को सीमित करके पर्याप्त अवसर लागत लगाता है. वास्तव में, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए कर्नाटक का बजट आवंटन सभी राज्यों द्वारा इन क्षेत्रों में औसत आवंटन से कम है.”
उन्होंने कहा कि तर्कसंगत बिजली मूल्य निर्धारण से प्रस्थान उपभोक्ताओं को वास्तविक आर्थिक लागत के खराब संकेत भेजता है, जिससे अक्षम ऊर्जा खपत होती है.
उन्होंने कहा, “कम बिजली मूल्य निर्धारण बेकार खपत को प्रोत्साहित करता है, जिसका नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव पड़ता है. इसके अतिरिक्त, कम कीमत वाली बिजली भी किसानों द्वारा भूजल के अत्यधिक उपयोग से जुड़ी है. सरकारी खजाने पर उनके द्वारा डाले जाने वाले बोझ को कम करने के लिए, राज्य टैरिफ शेड्यूल में उच्च क्रॉस-सब्सिडी को शामिल करके बिजली मुफ्त में देने का विकल्प चुन सकते हैं.”
लेखकों के अनुसार, जब से कर्नाटक में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार सत्ता में आई है, इस बात पर चर्चा की जा रही थी कि जब राज्य पहले से ही राजकोषीय घाटे का सामना कर रहा है तो वह अपने चुनावी वादे को कैसे पूरा करेगा.
लेखकों ने कहा, “अब सरकार ने राज्य में बिजली की कीमतों में 2.89 रुपये प्रति यूनिट की बढ़ोतरी की है और नागरिकों को जून में 2.89 रुपये प्रति यूनिट की अतिरिक्त राशि का भुगतान करना होगा, अगर वे 200-यूनिट से अधिक स्लैब में आते हैं.”
राम माधव ‘धर्मतंत्र’ पर
द इंडियन एक्सप्रेस में 3 जून के एक लेख में आरएसएस के वरिष्ठ विचारक राम माधव ने ‘धर्मतंत्र’ के विचार का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने कहा कि लोकतंत्र से अलग था और केवल बहुमत का शासन नहीं था.
माधव ने लिखा, “भारत में लोकतंत्र के किसी भी रूप में, चुनाव, बहुमत और अल्पसंख्यक…सभी को एक स्थान पर संयोजित और सुसंगत होना चाहिए. कोई भी जिसकी राय बहुमत से अलग है, भले ही वे अकेला व्यक्ति हो, उसके दृष्टिकोण का सम्मान किया जाना चाहिए और शासन में शामिल किया जाना चाहिए. वे धर्मतंत्र है, लोकतंत्र का भारतीय संस्करण, धर्मतंत्र “हमारे संविधान की सच्ची भावना” थी.”
उन्होंने भारत की आज़ादी के समय को याद किया.
माधव ने कहा, “75 साल पहले यह जवाहरलाल नेहरू ही थे जो स्वतंत्र भारत की सरकार के पहियों पर थे. उन्होंने पहले 17 साल या छह हज़ार दिनों तक सरकार को चलाया, जैसा अमिया राव और बी.जी. राव, उनके अधीन काम करने वाले नौकरशाहों का कहना है. उनके पास भी विकसित भारत के निर्माण का विजन था. माधव ने कहा कि समाजवाद वह रास्ता था जिसे हासिल करने के लिए उन्होंने चुना था.”
इसके बाद उन्होंने पीएम मोदी और हाल ही में भारत के नए संसद भवन के उद्घाटन का ज़िक्र करते हुए कहा, “यदि नेहरू लोकतंत्र और संवैधानिकता में विश्वास करते थे, तो मोदी ने भी जोर देकर कहा था कि ‘लोकतंत्र हमारी प्रेरणा है, हमारा संविधान हमारा संकल्प है’.
माधव ने लिखा, “लेकिन मोदी की दृष्टि, कुछ नेहरूवादी आदर्शों के मुहावरों के बावजूद, स्पष्ट रूप से नेहरू से भिन्न है. बहुत से लोग इसे उस नेहरूवादी दृष्टि के अंत के रूप में देखते हैं. कुछ इसका आनंद लेते हैं जबकि अन्य विलाप करते हैं.”
उनके अनुसार, जबकि “नेहरू ने भारत की सदियों पुरानी सभ्यता की सराहना की, लेकिन अपने धर्म और संस्कृति में इसकी अभिव्यक्ति से घृणा की”, मोदी ने “नई इमारत को आधुनिक और प्राचीन परंपराओं के सह-अस्तित्व के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया, जो कि सेंगोल (राजदंड) के प्रतीक हैं ( जिसे नई संसद में रखा गया है).” उन्होंने कहा कि सेंगोल भी धर्मतंत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं.
माधव ने कहा, “मोदी और सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान इस मामले में अधिकांश देशवासी भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों को धर्मनिरपेक्ष या पुनरुत्थानवादी के रूप में नहीं देखते हैं.”
उन्होंने पूछा, “नेहरू के लोग बहुसंख्यकों के धर्म से घृणा करते हैं और अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता का समर्थन करते हैं. राहुल गांधी द्वारा सेंगोल के सामने ‘साष्टांग प्रणाम’ करने और मुस्लिम लीग को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने की बात को कोई और कैसे समझा सकता है?.”
यह भी पढ़ेंः हिंदू राइट प्रेस ने कहा—सभी अंतर्धार्मिक विवाह लव जिहाद नहीं, लेकिन ‘कठोर तथ्यों’ को नकार नहीं सकते
विहिप ने किया बजरंग दल का बचाव
विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने इस महीने की शुरुआत में जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी के बयान पर प्रतिक्रिया दी थी कि अगर कांग्रेस ने 70 साल पहले (दक्षिणपंथी संगठन) बजरंग दल पर प्रतिबंध लगा दिया होता, तो देश बर्बाद नहीं होता.
मदनी को पिछले महीने मीडिया रिपोर्ट्स में यह कहते हुए उद्धृत किया गया था, “अगर बजरंग दल की मुस्लिम विरोधी नीति नहीं होती, तो (प्रतिबंधित इस्लामवादी संगठन) पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) का उदय नहीं होता. पीएफआई कार्रवाई नहीं बल्कि एक प्रतिक्रिया है.”
विहिप ने अपनी पाक्षिक पत्रिका हिंदू विश्व के संपादकीय में कहा कि मदनी का बयान हिंदू समाज के प्रति उनके पूर्वाग्रह को दर्शाता है.
इसमें कहा गया, “इसी मदनी ने कुछ दिन पहले इस्लाम को हिन्दू धर्म से भी प्राचीन बताया था. हिन्दू धर्म की प्राचीनता और श्रेष्ठता इन्हें हज़म नहीं हो रही है… अपने को हिन्दुओं से श्रेष्ठ दिखाने का जबरन प्रयास किया जा रहा है. ये लोग अपनी षड़यंत्रकारी और घटिया गतिविधियों से हिंदुओं को अपमानित और बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोड़ते.”
संपादकीय में कहा गया, “कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने 1992 में बजरंग दल पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि बजरंग दल असामाजिक गतिविधियों में शामिल नहीं पाया गया था, इसलिए प्रतिबंध हटा लिया गया था.”
संपादकीय में कहा गया, “पीएफआई पर प्रतिबंध से देशद्रोहियों का पूरा समुदाय हिल गया है. बजरंग दल पर हमला कर वे आतंकियों की ढाल बन रहे हैं. पीएफआई की तुलना बजरंग दल से कर आतंकियों को बेगुनाह साबित करने की बार-बार कोशिश की जाती है. द कश्मीर फाइल्स, द केरला स्टोरी और सोशल मीडिया जैसी फिल्मों ने इनका पर्दाफाश कर दिया है. हिंदू समाज पर संगठित हमले को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.”
आरएसएस से संबद्ध स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) ने केंद्र सरकार से अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में भारतीय रुपये के उपयोग को बढ़ावा देने और अधिक देशों को इसे व्यापार मुद्रा के रूप में उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करने का आग्रह किया है.
संगठन के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन ने अपनी वेबसाइट पर जारी एक बयान में कहा कि स्वदेशी जागरण मंच ने सरकार से एक “मजबूत” रुपये के मूल्य वाले बांड बाज़ार को विकसित करने पर विचार करने के लिए कहा था.
इसने कहा, “एसजेएम की राष्ट्रीय परिषद ने सरकार से अधिक देशों को व्यापार मुद्रा के रूप में रुपये का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करने का आग्रह किया. भारत अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर करके ऐसा कर सकता है, जो रुपये-मूल्य वाले व्यापार की अनुमति देगा. 3 जून और 5 जून को पुणे में अपनी दो दिवसीय बैठक में SJM की राष्ट्रीय परिषद द्वारा सिफारिशें की गईं.”
एसजेएम ने कहा, “इसमें रुपये के बाज़ार में अधिक तरलता प्रदान करना और व्यवसायों के लिए रुपये के खाते खोलना आसान बनाना शामिल हो सकता है. इसमें विदेशी निवेशकों को भारतीय रुपए-मूल्यवर्गित संपत्तियों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना भी शामिल हो सकता है. इन कदमों को उठाकर, भारत रुपये को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए अधिक व्यापक रूप से स्वीकृत मुद्रा बनाने में मदद कर सकता है, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और भुगतान के लिए डॉलर पर भारत की निर्भरता को कम कर सकता है, भारतीय अर्थव्यवस्था को डॉलर के मूल्य में उतार-चढ़ाव से बचा सकता है और भारत के निर्यात को बढ़ावा दे सकता है.”
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: भारत में ‘डेमोग्राफिक चेंज’ को लेकर चिंतित हिंदू राइट प्रेस ने उठाया सवाल- क्या है अल्पसंख्यक की परिभाषा