अमीना उस शाम को याद करती है जब उसका पति उस किराए के कमरे की छत पर चढ़ा, जिसमें वो रह रही थी और उसने स्वैच्छिक तलाक या खुला नहीं मांगने पर उसे जान से मारने की धमकी दी. वर्षों के दुर्व्यवहार और धमकियों के बाद, उसने आखिरकार हैदराबाद के पुराने शहर में शाहीन महिला संसाधन और कल्याण संघ से संपर्क किया.
इस विके इस पर प्रतिबंध लगाने के बाद लेकिन ये खुला है. गैर-लाभकारी संगठन (एनजीओ) को 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा विवादास्पद प्रथा पर प्रतिबंध लागू करने के बाद से, कभी भी तत्काल या तीन तलाक, या तलाक-ए-बिद्दत का एक भी मामला नहीं मिला है.
इसके बजाय, इसका कार्यालय अब अमीना जैसी महिलाओं से भरा हुआ है जो खुला तलाक की मांग कर रही हैं, जिसे वकीलों और कार्यकर्ताओं का एक वर्ग “त्रुटिपूर्ण कानून” कहते हैं.
गैर-लाभकारी संस्था की संस्थापक जमीला निशात ने कहा, “यह एक बढ़ती और चिंताजनक प्रवृत्ति है” जिसने महिलाओं को उनके पतियों द्वारा शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किए जाने के मामलों में इस हद तक वृद्धि दर्ज की है कि उन्हें जुदा होने के लिए खुला का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा है. भाजपा और मोदी सरकार में कई लोगों का कहना है कि तीन तलाक की प्रतिगामी प्रथा पर परिवर्तनकारी प्रतिबंध मुस्लिम महिलाओं के सदियों पुराने अन्याय और अत्याचार को कम करेगा. इसके बजाय, हैदराबाद में कई महिलाएं इसके उलट अनुभव कर रही हैं. शॉर्ट-कट तलाक पर प्रतिबंध के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामे में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 2017 में तर्क दिया था कि यह मुस्लिम पुरुषों को अपनी पत्नियों की हत्या करने या उन्हें जिंदा जलाने के लिए मजबूर कर सकता है.
तीन तलाक को आपराधिक बनाने के कदम को कुछ लोगों ने प्रगतिशील बताया था, लेकिन एआईएमआईएम के सांसद असदुद्दीन ओवैसी सहित कई अन्य लोगों ने इसे जल्दबाजी में और गलत तरीके से लिया हुआ फैसला करार दिया था.
निशात कहती हैं, “हमने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां महिलाओं को इतनी बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया था कि वे अपनी मेहर लिए बिना भी शादी से बाहर निकलना चाहती थीं.” इस्लामी शादियों में ‘मेहर’ एक रस्म है, जिसके तहत पति को शादी के समय या उसके बाद पत्नी को सिक्योरिटी के तौर पर नकद या कोई वित्तीय सहायता का भुगतान करना पड़ता है.
2017-2018 में निशात की संस्था ने 38 तलाक के मामले और सिर्फ चार खुला मामलों को निपटाया. अगले साल इसने ऐसे 32 तलाक के मामले और केवल तीन खुला के मामले निपटाए, लेकिन अचानक, 2019 में खुला के मामलों की संख्या 24 हो गई, जबकि तलाक के केवल तीन मामले आए थे और 2020 से मार्च 2023 तक शून्य तलाक के मामले हुए थे, लेकिन खुला के 62 मामले आए थे. यह प्रवृत्ति इसी अवधि के दौरान हैदराबाद में वक्फ बोर्ड द्वारा जारी किए गए खुला प्रमाणपत्रों की बढ़ती संख्या में भी दिखाई पड़ती है. 2021 से 2022 के बीच एक साल में इसमें करीब 35 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी.
तीन तलाक कहने के कानूनी परिणामों के डर से पुरुषों का एक वर्ग अपनी पत्नियों को यह कदम उठाने के लिए मजबूर कर रहा है.
निशात ने दिप्रिंट को बताया, “वे (महिलाएं) हमारे पास आकर कहती हैं कि हमारा खुला करवा दो.”
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प्रताड़ित करने के नए तरीके खोजना
अमीना (26) और ज़ैनब फातिमा (24) के साथ भी ऐसा ही हुआ, जो एक ऐसी शादी को सह रही थीं जो अचानक हिंसक होने लगी.
गर्मी के एक गर्म दिन में ज़ैनब हैदराबाद के पुराने शहर के शाहीन कार्यालय में अपनी बारी का इंतज़ार कर रही थीं. बुर्के में ढकी हुई, उनकी मुट्ठी बंधी हुई है और वो अपने बाएं हाथ को सहला रही हैं. उनके पति ने उनके ऊपर खौलता हुआ दूध डाल दिया था. उसने पुलिस में शिकायत दर्ज करने से इंकार कर दिया, लेकिन संगठन से संपर्क किया. वो तलाक लेना चाहती है. तीन तलाक पर प्रतिबंध लगने के एक साल और उसकी शादी के ढ़ाई साल बाद उस पर दुर्व्यवहार शुरू होने लगा.
ज़ैनब ने बताया, “पहली बार उसने मुझे तब मारा था जब मैंने उससे बहस की थी. कई बार वो कहता है कि वो मुझे छोड़ देगा. वो मुझसे अलग होना चाहता है उसके 2021 में मुझे सुझाव भी दिया कि मैं खुला के लिए अप्लाई कर दू, लेकिन मैंने मना कर दिया. उसके बाद हमारे बीच स्थिति और खराब होने लगी. ”
अमीना के पति भी तीन तलाक प्रथा पर प्रतिबंध का उल्लंघन करने को लेकर सतर्क हैं. इस प्रतिबंध को तोड़ने के बाद, दोषी पाए जाने पर व्यक्ति को 3 साल की जेल की सजा हो सकती है. वह 2018 में दूसरी महिला से शादी करना चाहता था और उसने इसका विरोध किया. वो पहली बार था जब उसके पति ने उसे थप्पड़ मारा था.
अमीना ने बताया, “वह डर गया था कि मैं पुलिस के पास जा सकती हूं और मामला दर्ज करवा सकती हूं. इसलिए, उन्होंने मुझे खुला के लिए अप्लाई करने को मजबूर करना शुरू कर दिया. मैंने मना कर दिया और अकेले रहने लग गई. उन्होंने मेरे बच्चों को मेरे साथ नहीं आने दिया.” आखिरकार अमीना ने अलग होने का फैसला किया और संगठन के पास गई.
मदद के लिए शाहीन एसोसिएशन से संपर्क करने वाली ज्यादातर महिलाएं हैदराबाद के पुराने इलाकों से हैं, लेकिन संगठन राज्य के विभिन्न हिस्सों और यहां तक कि कर्नाटक के पड़ोसी बीदर के मामलों को भी संभालता है.
हालांकि, कई ऐसे मामले भी हैं जब, पुरुषों ने खुला कागजात पर हस्ताक्षर करने के लिए पैसे की मांग की है.
एक्टिविस्ट लुबना सरावथ ने कहा, “सरकार ने यह सोचकर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की कि इससे तत्काल तलाक के मामलों में कमी आएगी, लेकिन पुरुष वैसे भी रास्ता खोज लेंगे. फिर महिलाओं के लिए क्या बचा है?”
परिवार के सदस्यों के समर्थन और काज़ी के कार्यालय से सहानुभूति की कमी के कारण, महिलाएं अकेले ही इस लड़ाई को लड़ती हैं.
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सुलह परीक्षण: परिवार के लिए वक्फ
जब ज़ैनब ने पहली बार काज़ी के कार्यालय में खुला की मांग की और घरेलू हिंसा के बारे में शिकायत की, तो उसे “एडजस्ट” करने के लिए कहा गया.
उन्होंने दावा किया कि काज़ी ने उन्हें कहा, “क्या जब आपका पति आपको प्यार करता है तो आप शिकायत करती हैं, तो आप थोड़ी सी पिटाई क्यों नहीं बर्दाश्त कर सकती हैं.”
काज़ी के कार्यालय में ऐसे तीन ‘काउंसलिंग’ सत्रों के बाद, उसने शाहीन महिला संसाधन और कल्याण संघ से संपर्क किया.
शाहीन जैसे संगठन तलाक को अधिकृत नहीं करते हैं. वे केवल आवेदक और काज़ी के कार्यालय जैसे औपचारिक निकाय के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करते हैं और यह एकमात्र जगह नहीं है जहां एक महिला को खुला के लिए अप्लाई करने के बाद जाना पड़ता है.
खुला मांगने से पहले- और यहां तक कि जब तक तीन तलाक वैध था- पति और पत्नी को कई सुलह के प्रयासों और परिवारों और धार्मिक प्रमुखों के साथ विचार-विमर्श से गुजरना पड़ता है.
जब ये विफल हो जाते थे तो वे औपचारिक अलगाव और लिखित प्रमाण मांगने के लिए काज़ी के पास जाते थे. यह प्रमाण तब तेलंगाना वक्फ बोर्ड को प्रस्तुत किया जाता था, जिसमें महिला अलग होने का आधिकारिक प्रमाण पत्र मांगती है. राज्य में सरकार द्वारा नियुक्त 100 काज़ी हैं.
हालांकि ऐसा माना जाता है कि काज़ी द्वारा कराया गया हर तलाक वक्फ बोर्ड में समाप्त नहीं होता है. वक्फ बोर्ड के एक सूत्र का कहना है कि सर्टिफिकेट पाने वाले बमुश्किल 15 फीसदी जोड़े वक्फ बोर्ड के दफ्तर जाते हैं. बाकी अपना अलग जीवन जीते हैं.
नाम न बताने की शर्त पर वक्फ बोर्ड के एक अधिकारी ने कहा, पिछले साल, तेलंगाना वक्फ बोर्ड ने राज्य भर के आवेदकों के लिए 350 खुला प्रमाणपत्र जारी किए, जो 2021 में जारी किए गए 260 से एक महत्वपूर्ण वृद्धि थी लेकिन 2020 में यह पिछले वर्ष की तुलना में 25 प्रतिशत कम था.
आवेदनों में भी कुछ ऐसा ही चलन है. वक्फ बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, “हमने तलाक आवेदनों में 50 प्रतिशत की गिरावट देखी है, लेकिन खुला आवेदनों में भी इसी तरह की वृद्धि हुई है.”
जमीला ने कहा, हालांकि खुला में महिला (स्वेच्छा से) तलाक के लिए फाइल करती है लेकिन इसे संसाधित करने के लिए पति की सहमति की दरकार पड़ती है.
तेलंगाना में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को भरोसा है कि तीन तलाक पर प्रतिबंध से महिलाओं के खिलाफ अन्याय और अत्याचार के मामलों में कमी आई है.
पूर्व एमएलसी और भाजपा के वरिष्ठ नेता रामचंदर राव ने कहा, “अगर महिलाओं को खुला लेने के लिए मजबूर किया जाता है या उन्हें प्रताड़ित किया जाता है, तब भी उनके पास पुलिस के पास जाने का विकल्प होता है. यह हर समुदाय पर लागू होता है, लेकिन प्रतिबंध ने जो किया है वह तत्काल तलाक पर रोक लगाता है, जहां पुरुष महिलाओं को छोड़ सकते थे.”
2021 तक अकेले हैदराबाद शहर की सीमा के भीतर, पुलिस ने अवैध रूप से तीन तलाक के 50 से अधिक मामले दर्ज किए. इसमें ज्यादातर मामले कथित तौर पर उन महिलाओं द्वारा दायर किए गए जिनकी शादी भारत के बाहर के लोगों से हुई थी. फरवरी 2023 में एक महिला ने आरोप लगाया कि उसके पति ने उसे फोन पर तलाक दे दिया.
भले ही ऐसे मामलों की संख्या कम हो लेकिन भारत में किसी भी अन्य कानून की तरह तीन तलाक कानून का भी दुरुपयोग देखा जा रहा है. कार्यकर्ताओं ने ऐसी घटनाएं भी देखी हैं जिनमें पत्नियां अपने पतियों पर प्रतिबंध लगाती हैं और उन्हें पुलिस केस दर्ज कराने की धमकी देती हैं.
हैदराबाद की सामाजिक कार्यकर्ता खालिदा परवीन कहती हैं, “मेरे पास ऐसे मामले आए हैं जहां महिलाओं का विवाहेतर संबंध रहा है, लेकिन जब पति तलाक चाहता था, तो उन्होंने पुलिस शिकायत दर्ज करने की धमकी दी.”
परवीन आगे कहती हैं, काउंसलिंग पहला कदम है.“हम खुले में जाने के बजाय विवाद को सुलझाने की कोशिश करते हैं.”
भाजपा के सदस्य खुले के बढ़ते अनुरोधों से भी वाकिफ हैं.
राव जो पेशे से एक वकील भी हैं ने कहा, “लेकिन इस मामले से संपर्क करने के कानूनी तरीके अभी भी हैं. कम से कम, उन्हें पहले की तरह नहीं छोड़ा जा रहा है.”
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कानून और अधिकारिता का सवाल
शाहीन एसोसिएशन और ऐसे अन्य संगठनों के दरवाज़े पर दस्तक देने वाली कई महिलाओं को यूं ही छोड़ दिया गया है.
सुप्रीम कोर्ट के 2017 के फैसले में तलाक-ए-बिद्दत (ट्रिपल तलाक) को खारिज करने का मानवाधिकार संगठनों और याचिकाकर्ताओं में शामिल शाह बानो जैसी मुस्लिम महिलाओं ने स्वागत किया था. इसे महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक कदम के रूप में देखा गया.
बहुमत 3:2 के फैसले में पांच-न्यायाधीशों की खंडपीठ ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया और यह कहते हुए इस प्रथा को अवैध घोषित कर दिया कि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है.
फैसले के दो साल बाद बीजेपी की अगुआई वाली एनडीए सरकार ने मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम 2019 को संसद के माध्यम से पारित किया, जिससे इस प्रकार के तलाक को आपराधिक बना दिया गया.
तेलंगाना में एक राजनीतिक दल मजलिस बचाओ तहरीक (एमबीटी) के प्रवक्ता अमजद उल्लाह खान ने कहा, लेकिन जमीन पर कुछ भी नहीं बदला है, प्रतिबंध का शायद ही कोई असर पड़ा है.
उन्होंने कहा, “ऐसा नहीं है कि हम तलाक के मामलों में कमी देख रहे हैं. पुरुषों ने महिलाओं को छोड़ने का एक तरीका खोज लिया है.”
प्रमाण पत्र, मामले और खुला आवेदक जो नहीं दिखाते हैं वह उन महिलाओं की संख्या में वृद्धि है जिन्हें उनके पतियों ने छोड़ दिया है.
अमजद उल्लाह खान ने कहा, “मेरे प्रजा दरबार में, मैं महिलाओं की शिकायत के 10-15 मामलों को देखता हूं कि उनके पति उन्हें छोड़कर गायब हो गए हैं.” ये पुरुष तीन तलाक प्रतिबंध के प्रभाव से डरते हैं, लेकिन नहीं चाहते कि उनकी पत्नियां खुला लें. इसलिए वे अपनी पत्नियों को छोड़ देते हैं, उन्हें शादी में भी रखते हैं — यानी बीच में लटकाएं रखते हैं.
ऐसा नहीं है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. खान ने जोर दिया, “लेकिन प्रतिबंध के बाद से वृद्धि हुई है और यह शहर के किसी विशेष क्षेत्र या लोगों के एक निश्चित आर्थिक वर्ग के लिए विशिष्ट नहीं है, मैं इन मामलों को सभी प्रकार के परिवारों से देख रहा हूं.”
शाहीन की ज़हरा जबीन कहती हैं, अहंकार यहां बीच में आ जाता है.
ज़बीन कहते हैं,“पत्नी पहले खुला लेने के लिए असहमत होती है और जब वो ऐसा कर लेती है तो वे (पति) उसे वापस नहीं लेना चाहते हैं.”
तलाक के तीन सबसे अधिक प्रचलित इस्लामी तरीके ‘तलाक-ए-हसन’,‘तलाक-ए-अहसान’ और ‘तलाक-ए-बिद्दत’ हैं. तलाक के सभी रूपों को सभी समुदायों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है, अपवाद हैं. तलाक-ए-बिद्दत गैरकानूनी है.
लोकप्रिय नैरेटिव के उलट सभी मुस्लिम महिलाओं ने प्रतिबंध का समर्थन नहीं किया.
लापता पारिस्थितिकी तंत्र
मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम का विरोध करने वालों में इसे त्रुटिपूर्ण कानून बताने वालों में एक्टिविस्ट लुबना सरावथ भी थीं.
उन्होंने कहा, “महिलाओं के लिए अधिनियम क्या प्रदान करता है? यह महिलाओं या स्थिति के लिए बिल्कुल कोई समाधान नहीं होने के कारण लोगों पर थोपा गया कानून है.” उनका तर्क है कि यह महिलाओं को बहुत कम सुरक्षा प्रदान की गई और बजाये इसके उन्हें और अधिक दुख में धकेल दिया है.
उन्होंने आगे कहा, “सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कुरान की आयतों का हवाला दिया गया है कि कैसे एक स्थिति (जहां एक जोड़े के बीच गलतफहमी होती है) को संभाला जाना चाहिए. क्या सरकार ने कानून के तहत एक परामर्श प्रकोष्ठ की स्थापना की है या महिलाओं को इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए किसी कानूनी सहायता की अनुमति दी है? कुछ नहीं.”
कम से कम एक दशक से अधिक समय से महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए काम करने वालीं सरावथ ने कहा, काज़ी महिलाओं को खुला चुनने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं क्योंकि वे इस प्रथा के अपराधीकरण के डर से तलाक की प्रक्रिया में उलझना नहीं चाहते हैं.
तेलंगाना वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष मोहम्मद मसीउल्लाह खान इस स्थिति से अवगत हैं.
उन्होंने कहा,“यह हमारे संज्ञान में आया है, लेकिन निकाय ने अभी तक इससे निपटने की योजना की घोषणा नहीं की है. अभी के लिए, धार्मिक प्रमुखों और नेताओं को कथित तौर पर उनके समुदाय में मुस्लिम पुरुषों को “परामर्श” देने के लिए कहा जा रहा है.
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरह, खान ने भी कहा कि न्याय के धीमे पहिए और अनगिनत अदालती सुनवाई जो वर्षों तक चल सकती है, लोगों को कानूनी रास्ता अपनाने के लिए बहुत कम प्रोत्साहित करती है – चाहे भाजपा नेता कुछ भी कहें.
खान कहते हैं, “दोष भारतीय अदालतों और न्यायपालिका का भी है. अलगाव का एक मामला सुलझने में सालों लग जाते हैं, तो लोग उसे निपटाने के लिए वहां क्यों जाएंगे? वे इसे आपस में निपटाना पसंद करेंगे.”
खुला के बाद का जीवन
28-वर्षीय नज़मा खुला प्रमाणपत्र प्राप्त करने के बाद धीरे-धीरे अपने जीवन के टुकड़ों को जोड़ रही है. उनके पति ने उन्हें खुला दाखिल करने के लिए मजबूर किया. अपने जीवन में पहली बार, वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र है—और अकेली हैं.
जमीला कहती हैं कि बमुश्किल 15 फीसदी महिलाएं जिन्हें छोड़ दिया गया है या तलाक दिया जा रहा है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, एक ऐसा दृष्टिकोण जिससे अन्य कार्यकर्ता भी सहमत हैं.
नजमा के लिए पहली चुनौती अपने लिए जगह तलाशने की थी.
उन्होंने बताया, “कोई भी मालिक एक महिला को कमरा देने के लिए तैयार नहीं था.” वो पुराने हैदराबाद में रहना पसंद करती हैं, खासकर उन इलाकों में जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है.
सामाजिक कलंक के कारण मायके के परिवार ने घर में उसका वापस स्वागत करने से इनकार कर दिया. जब उसके पास कमाने और खुद का समर्थन करने का समय आया, तो उसे एहसास हुआ कि एक बच्चे, एक बेटी और एक पत्नी के रूप में वह जीवन भर एक आश्रित रही है.
वह स्कूल भी नहीं जाती थी और नहीं जानती थी कि वह अपना गुज़ारा कैसे करेगी. वह यह भी कहती हैं कि उन्हें उनकी कॉलोनी के कुछ पुरुषों द्वारा ‘प्रस्ताव’ दिया गया था कि वे उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करेंगे. अगर वे उनके यहां घरेलू कामगार के रूप में काम करती हैं.
उन्होंने कहा, “मैं अभी भी संघर्ष करती हूं जब मैं हर रात अकेले सोती हूं. अचानक, मेरे साथ कोई नहीं है, मेरा परिवार भी नहीं. मेरे माता-पिता चाहते थे कि मैं अपने पति के साथ रहूं, चाहे कुछ भी हो और मैं इसके लिए तैयार नहीं थी.”
शुरुआती महीने विशेष रूप से कठिन थे. उन्होंने कहा, “वो भयानक था. मैं अब खुश नहीं हूं, लेकिन मैं निश्चित रूप से लूटे जाने के डर से नहीं जाग रहीं हूं.”
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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