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Friday, 22 November, 2024
होमदेशमहज़ 17 की उम्र में कातिल से क्रूर माफिया और सांसद तक बने अतीक की कहानी राजनीति के अपराधीकरण की मिसाल है

महज़ 17 की उम्र में कातिल से क्रूर माफिया और सांसद तक बने अतीक की कहानी राजनीति के अपराधीकरण की मिसाल है

तमाम तरह के आपराधिक मामले झेल रहे गैंगस्टर अतीक अहमद को पुलिस हिरासत में होने के बावजूद गोली मार दी गई, उसने मौत को अपने करीब आती देख लिया था और वे अपनी आशंकाएं खुलकर जाहिर कर रहा था.

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अतीक अहमद और उसका गिरोह आज सुर्खियों में है. डॉन, गैंगस्टर और अब मृत अतीक अहमद पर एक समय घृणित से घृणित अपराध के आरोपों के साथ तमाम मुमकिन कानूनी धाराओं के तहत 250 से ज्यादा मामले दायर थे. आखिर में उसे उमेश पाल हत्यकांड मामले में सज़ा सुनाई गई. उसके बेटे असद ने इस साल 24 फरवरी को कथित तौर पर उमेश पाल की हत्या कर दी थी.

जैसा कि हमें मालूम है कि पिछले दिनों झांसी में एक ‘एनकाउंटर’ में असद अपने भरोसेमंद ‘शूटर’ मोहम्मद गुलाम के साथ मारा गया.

अतीक वैसा ही था जैसा किसी डॉन को होना चाहिए, जैसा एक बाहुबली को होना चाहिए—एक क्रूर माफिया सरदार!

अतीक लंबे समय से जेल में था. आखिरी बार वे अहमदाबाद के पास साबरमती जेल में था. उसके कई अपराधों के मामले में पूछताछ के लिए उसे पुलिस हिरासत में उत्तर प्रदेश लाया गया था. यह 2007 के उमेश पाल अपहरण कांड के लिए अंतिम सज़ा सुनाए जाने के ठीक बाद की बात है. उसे उम्रकैद की सज़ा दी गई थी.

अगर आपको लगता है कि कहानी जटिल होती जा रही है, तो आगे पढ़िए.

उमेश पाल का अपहरण 2006 में किया गया, मामला 2007 में दायर किया गया. ऐसा क्यों, क्या कहानी केवल अपराध की नहीं बल्कि हिंदी पट्टी की राजनीति की भी है.

यह बहुत उलझी हुई है, इतनी कि कोई भी इस पर ओटीटी सीरियल या फिल्म बना सकता है. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘ओंकारा’, ‘या ‘मिर्ज़ापुर’ जैसी फिल्मों में आपने यह सब देखा है या फिलहाल चल रही फिल्मों में भी देख सकते हैं.

यह सब और इस तरह की राजनीति आप फिल्मों या सीरियलों में देख चुके हैं.

इसलिए, बात को और स्पष्ट करने के लिए बता दें कि उमेश पाल हत्याकांड में पूछताछ करने के लिए उत्तर प्रदेश की पुलिस गैंगस्टर/डॉन/बाहुबली अतीक अहमद को साबरमती जेल से प्रयागराज लाई थी.

अतीक के बेटे और उसके साथी ‘शूटरों’ ने फरवरी में सीसीटीवी कैमरों के सामने उमेश पाल की बड़े नाटकीय ढंग से हत्या कर दी थी.

उनकी हत्या खुद अतीक ने नहीं की थी क्योंकि वे साबरमती जेल में बंद था. अतीक ने कथित तौर पर यह हत्या करवाई थी. जैसा कि मैं बता चुका हूं, यह कहानी आगे और दिलचस्प होती जाएगी.


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जुर्म और सियासत के मेल की कहानी

अतीक की कहानी की शुरुआत कहां से होती है? इस कहानी को मैं इतना जटिल, फिर भी इतना दिलचस्प क्यों पाता हूं और आपको इसे सुनाने को मैं इतना उत्सुक क्यों हूं, इसकी वजह यह है कि यह जुर्म, राजनीति की कहानी है और बतौर रिपोर्टर मैं इन दो क्षेत्रों को कवर करता रहा हूं.

राजनीति पर आज भी मैं लिख रहा हूं, लेकिन हकीकत यह है कि हिंदी पट्टी में राजनीति का अपराधीकरण हमेशा एक बड़ी खबर रही है.

लेकिन, मैं कहूंगा कि मुख्यधारा की अंग्रेज़ी मीडिया ने कुछ हद तक इसे पर्याप्त कवरेज नहीं दी है. यह मैं इसलिए भी कह रहा हूं कि जब मैंने अतीक अहमद के बारे में रिसर्च शुरू की तो मुझे मुख्यधारा की अंग्रेज़ी मीडिया में बहुत सामग्री नहीं मिली. हिंदी मीडिया में बहुत कुछ मिला लेकिन उसके आधार पर आपको कई, कई प्राथमिक सूत्रों तक जाने की जरूरत महसूस होगी.

अब ज़रा अतीक अहमद नाम के इस शख्स के बारे में सोचिए, जो 1962 में पैदा हुआ था. यानी 1979 में जब उसने इलाहाबाद में 10वीं क्लास से भागकर कथित तौर पर अपना पहला ‘शिकार’ किया था तब वे महज़ 17 साल का था. इससे भी अहम बात यह है कि यह अपराध करके वह साफ बच गया था. आज की परिभाषा के मुताबिक वे नाबालिग अपराधी था.

इसी उम्र में उसने कथित तौर पर एक शख्स की हत्या कर दी थी, यूपी की ठेठ भाषा में कहें तो उसने किसी को ‘टपका दिया’ था. इस घटना ने उसे एक तरह से ‘लोकल हीरो’ बना दिया था क्योंकि उस इलाके पर पहले से ही एक माफिया डॉन का ‘राज’ था, जिसे लोग चांद बाबा के नाम से पुकारते थे. उसका असली नाम शौक इलाही था.

शौक इलाही बड़ा सरदार था, जिसे चुनौती देने के लिए 17 साल का एक लड़का उठ खड़ा हुआ था. यह 1979 की बात है. अब मैं 25 साल लंबी छलांग लगाकर आज के समय में आता हूं.

अब आप अपनी कुर्सी की पेटी कस कर बांध लीजिए, क्योंकि हम बार-बार थोड़ा आगे-पीछे करते रहेंगे, क्योंकि यह कहानी भी इसी तरह चलती है.

1979 में, अभी 18 साल का भी नहीं हुआ, महज़ 17 साल का यह लड़का एक कथित हत्याकांड करके कुख्यात हो गया और 25 साल में उसने स्थापित माफिया चांद बाबा को चुनौती देते हुए अपना छोटा माफिया खड़ा कर लिया; 25 साल के अंदर ही वे इलाहाबाद के पास के फूलपुर से सांसद बन गया.

फूलपुर का नाम सुनते ही क्या आपको कुछ याद आता है?

अगर आप 50 साल से कम उम्र के हैं तो शायद यह आपको बहुत महत्वपूर्ण नहीं लगता होगा, लेकिन अगर आप थोड़े ज्यादा उम्रदराज़ हैं या भारतीय राजनीतिक इतिहास को पढ़ते रहे हैं या अपनी स्कूली पाठ्यपुस्तकों में जवाहरलाल नेहरू से संबंधित चैप्टर्स को सावधानी से पढ़ते रहे हों तो आपको मालूम होगा कि फूलपुर नेहरू परिवार का चुनावी क्षेत्र हुआ करता था. जवाहरलाल नेहरू वहां से 1952, 1957, 1962 में चुनाव जीते और 1964 तक सांसद रहे. 27 मई 1964 को उनकी मृत्यु के बाद हुए उप-चुनाव में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने राज्यपाल के पद से इस्तीफा दिया और वहां से उम्मीदवार बनीं और जीत भी गईं.

बाद में, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के जनेश्वर मिश्र फूलपुर से सांसद चुने गए. वी.पी. सिंह ने भी यह सीट जीती. बाद में कमला बहुगुणा भी यहां से सांसद बनीं.

यानी इस मशहूर सीट ने दो प्रधानमंत्री दिए. तीन बार नेहरू को जिताया, एक बार विजयलक्ष्मी पंडित, एक बार वी.पी. सिंह और एक बार हेमवती नंदन बहुगुणा की पत्नी को सांसद बनाया. इसी सीट को इलाहाबाद या प्रयागराज के माफिया सरदार अतीक अहमद ने 2004 में समाजवादी पार्टी (सपा) के टिकट पर जीता.

मुलायम की सपा और अतीक का मेल

अब ज़रा गहरी सांस लेने के बाद इस कहानी की डोर को आगे बढ़ाते हैं, उस मुकाम से जहां पर अतीक अहमद 25 साल में छलांग लगाकर पहुंचा था.

इस बीच, 1989 में उसने पहला चुनाव लड़ा, जिसका एक संदर्भ भी था. आखिर वे उस स्थान पर कब्जा करना चाहता था जिस पर डॉन चांद बाबा (शौक इलाही) का दबदबा था. चांद बाबा भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं रखता था.

अब तक अतीक ने चांद बाबा से उसकी काफी ज़मीन छीन ली थी. अतीक को पहली बार 1986 में गिरफ्तार किया गया था, जब कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. वे उसका दबदबा उसी समय खत्म कर देना चाहते थे, लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी के उच्च स्तर से कोई हस्तक्षेप किया गया, वीर बहादुर सिंह से कहा गया कि वे अतीक को रिहा करवा दें. ऐसा ही हुआ.

तब तक अतीक के खिलाफ कई मामले दायर कर दिए गए थे. उसे पता था कि मुख्यमंत्री उससे चिढ़ते हैं. वे इस दहशत में था कि या तो उसे किसी एनकाउंटर में मार दिया जाएगा या कोई दुश्मन उसे ‘गोली मार देगा’. उसने जानबूझकर ज़मानत तोड़ी ताकि उसे गिरफ्तार किया जाए.

वे जेल की सुरक्षा में चला गया. उसके खिलाफ ‘रासुका’ (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) भी लगा दिया गया, लेकिन दो साल बाद ही वे जेल से बाहर आ गया. वे उस समय बाहर आ गया जब 1989 में चुनाव हो रहे थे.

अब, 1989 के संदर्भ को देखिए. राम जन्मभूमि आंदोलन तेज़ी से फैल रहा था. उत्तर प्रदेश में मुसलमान लोग काफी असुरक्षित महसूस कर रहे थे. अतीक इस भावना का लाभ उठाने के लिए चुनाव में कूद पड़ा. इलाहाबाद पश्चिम चुनाव क्षेत्र के लिए चुनाव में उसका मुकाबला चांद बाबा से था, जिस क्षेत्र पर वे अपना माफिया राज कायम करने के लिए भी मुकाबला कर रहा था.

अतीक अहमद ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत लिया. चांद बाबा की चांदनी खत्म हो गई.

कुछ ही दिनों के अंदर चांद बाबा की हत्या कर दी गई. किसने की, यह कभी पता नहीं चल पाया. अतीक अहमद अब इलाहाबाद पश्चिम क्षेत्र का दादा बन गया. इसके बाद 1991 में भी और 1993 में भी वे निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गया.

अब तक, ज़ाहिर है, मुलायम सिंह यादव की सपा ने उसकी प्रतिभा को पहचान लिया था. वे मुस्लिम वोटों की तलाश में थी, और अतीक एक अच्छी खोज थी. इस समय तक, यूपी में राजनीति का अपराधीकरण अपने चरम को छूने लगा था. 1996 में, मुलायम ने अतीक को सपा में शामिल कर लिया.

1996 के विधानसभा चुनाव में उसी चुनाव क्षेत्र से उसने सपा के समर्थन से चुनाव जीत लिया. यह वो दौर था जब उत्तर प्रदेश में कई चुनाव हुए. इसलिए वे पांच बार विधायक बना. 1989 से 2002 के बीच 13 वर्षों में वे इलाहाबाद पश्चिम क्षेत्र से 5 बार विधायक चुना गया.

पहले तीन चुनाव उसने मुलायम के समर्थन से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीते, चौथा चुनाव सपा के टिकट पर और पांचवां अपना दल के टिकट पर जीता. अपना दल की स्थापना कुर्मी नेता सोने लाल पटेल ने की थी, जिनकी बेटी ने अब इस पार्टी की कमान संभाल ली है, जो अब एनडीए का एक हिस्सा है. अब आपको हिंदी पट्टी की राजनीति की जटिलता का कुछ अंदाज़ा मिल गया होगा.

1999 में, अतीक अपना दल में शामिल हो गया. 1999 से 2003 के बीच वे इसका अध्यक्ष रहा. वहां क्या समीकरण काम कर रहा था?

उदाहरण के लिए, इलाहाबाद पश्चिम क्षेत्र की जनसंख्या, चुनावी समीकरण को देखें. वहां 30 फीसदी मुस्लिम और 15 फीसदी कुर्मी मतदाता और 15 फीसदी पाल नामक एक और ओबीसी जाति मिलकर अपना दल का जनाधार बनाती हैं. इसीलिए, राजू पाल नामक शख्स उसका प्रतिद्वंद्वी बन गया, जिसके साढू उमेश पाल के अपहरण के मामले में अतीक को सज़ा हुई थी और जिसकी हत्या कथित तौर पर उसके बेटे ने इलाहाबाद में की थी.

2003-04 आते-आते अतीक को एहसास हो गया कि उसे अब अपना दल से हाथ जोड़ लेने चाहिए. राजनीतिक माहौल और मिजाज़ दोनों बदल रहे थे, मुलायम बुलंदी पर पहुंच रहे थे. वे (अतीक) मुलायम के साथ हो गया.

मुलायम अब प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे. जब पुलिस आपके पीछे पड़ी हो तब आप क्या करेंगे? मुख्यमंत्री की पार्टी के साथ हो लेंगे और क्या? 2004 में मुलायम ने उसे कभी नेहरू के चुनाव क्षेत्र रहे फूलपुर से उम्मीदवार बना दिया.

इसने राजनीति में अपराधियों के प्रति मुलायम के घातक आकर्षण की पुष्टी कर दी और आज भी यह उनकी पार्टी की बदनामी की एक वजह बनी हुई है. हालांकि, अखिलेश यादव ने 2015, 2016, 2017 में पार्टी के ऊपर लगे इस दाग को मिटाने की कोशिशें कीं और इन बदनाम तत्वों को लेकर पिता-पुत्र में बेशक कई बार तकरार हुई.

लेकिन हकीकत यही है कि अतीक फूलपुर से सांसद बन गया, जिसे उत्तर प्रदेश के लोग भूले नहीं हैं. इसीलिए अपराधी गिरोहों के साथ जुड़ाव का दाग सपा के ऊपर से मिटा नहीं है.


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प्रतिद्वंद्वी जीता और गोलियों से भूना गया

अब, अतीक सांसद बन गया. सांसद बनने या लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए उसने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और उस सीट से अपने भाई को खड़ा कर दिया, जिसका नाम खालिद अज़ीम था लेकिन वे अशरफ के नाम से जाना जाता था? यह कुछ जाना-पहचाना नाम लगता है? अतीक के खिलाफ दर्ज उमेश पाल हत्याकांड समेत अधिकतर गंभीर मामलों में उसे भी सह-अभियुक्त बनाया गया था.

इसी अशरफ को इलाहाबाद पश्चिम क्षेत्र से उसके उम्मीदवार के रूप में खड़ा किया गया था, जिसके खिलाफ इस क्षेत्र का ही एक स्थानीय दादा खड़ा हुआ. उसका नाम था राजू पाल.

डॉन के भाई के खिलाफ चुनाव लड़ने की हिम्मत तुमने कैसे की? लेकिन राजू पाल कोई मामूली दादा नहीं था. वे इस इलाके के कई गिरोहों के साथ काम कर चुका था. वास्तव में, उसके खिलाफ औपचारिक आरोप लगाया गया था कि अनीस पहलवान की हत्या में उसका हाथ था. अनीस अतीक के गिरोह के फरहान नामक शख्स का पिता था.

यह सब जटिल घालमेल है, लेकिन अपराध का यही रूप होता है और आज तो उच्चतम स्तर की राजनीति में उच्चतम स्तर के अपराध का घालमेल हो रहा है. एक गिरोह राजू पाल की इसलिए हत्या करने आता है क्योंकि उसने अशरफ को चुनौती देने का दुस्साहस किया था, लेकिन वे बच जाता है. यही नहीं, राजू पाल ने चुनाव जीतने की गुस्ताखी की थी. मैं जानता हूं, यह सब आपको बार-बार उलझन में डाल रहा होगा.

अशरफ खालिद अज़ीम का दूसरा नाम है, वे अतीक अहमद का भाई है, लेकिन मैं आगे अशरफ नाम ही लूंगा, जो प्रचलित है.

अगर आपने अशरफ के खिलाफ चुनाव लड़ने और जीतने की हिम्मत की है तो आपको सबक सिखाया जाएगा.

चुनाव 4 अक्टूबर को हुए, राजू पाल 4,000 वोटों से जीत गया. नवंबर में उसे मार डालने की नीयत से कई राउंड गोलियां चलाई गईं, कई देसी बम फेंके गए लेकिन वे बच गया. तब उसने खुद को बहुत खुशकिस्मत माना होगा.

दिसंबर में एक बार फिर उस पर गोलियों और बमों से हमला किया गया. वे फिर बच गया. उसने फिर खुद को बहुत खुशकिस्मत माना होगा, लेकिन तीसरी बार उसकी किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया. तीसरा हमला दूसरे हमले के चंद हफ्ते के अंदर ही किया गया.

यानी, अक्टूबर में वे चुनाव जीतता है, नवंबर में उस पर पहला हमला होता है और दिसंबर में दूसरा. तीसरा हमला 25 जनवरी 2005 को होता है. यह कामयाब होता है. उस पर और उसके साथ के लोगों पर कई गोलियां दागी जाती हैं, कई बम फेंके जाते हैं. उसके साथ के लोग उसे एक टेंपो के पीछे डाल कर एक अस्पताल ले जाते हैं लेकिन हमलावर उनका पीछा करते हैं और उन्हें पकड़ लेते हैं. क्या ऐसे दृश्य आपने ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘ओंकारा’, ‘या ‘मिर्जापुर’ जैसी फिल्मों में आपने नहीं देखे हैं ?

वे टेंपो को रोक लेते हैं और अस्पताल ले जाए जा रहे राजू पाल को गोलियों से भून देते हैं. उसकी मौत हो जाती है, उसके शव से 19 गोलियां निकाली जाती हैं. अब अगर आप यह सोच रहे हों कि कहानी यहां खत्म हुई, तो ऐसा नहीं है.

उसके चुनाव के ठीक बाद, और उसकी हत्या से नौ दिन पहले राजू पाल की शादी पूजा पाल से हुई थी. शादी के नौ दिन के अंदर ही वे विधवा हो गई. उसने बसपा के टिकट पर उस सीट के लिए उपचुनाव लड़ा. उसकी हथेलियों पर शादी की मेहंदी का रंग अभी फीका भी नहीं पड़ा था. अपने चुनाव प्रचार में वह उन्हीं हथेलियों को जोड़कर कहा करती थी, “ये मेरी शादी की मेहंदी है. शादी होते ही मैं विधवा हो गई” और फिर रो पड़ती थी. इस सबके बावजूद, डॉन की ताकत का मुकाबला वे नहीं कर सकी और चुनाव हार गई.

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि यूपी में एक समय ऐसा भी था जब इलाहाबाद का बड़ा और प्रमुख डॉन ‘माननीय सांसद’ हुआ करता था और उसका भाई ‘माननीय विधायक’ हुआ करता था.
यह वो दौर था जब उनकी ताकत अपने शिखर पर थी.

उनका पतन मुलायम सिंह के पतन के साथ-साथ शुरू हुआ. 2007 के आने तक उत्तर प्रदेश अपराध की लहर से त्रस्त हो चुका था और ऐसी धारणा बन गई थी कि सपा माफिया गिरोहों की गिरफ्त में इतनी कैद हो गई थी कि फिरौती वसूली, हत्या, और राजनीतिक बदले के लिए अपहरणों का तांता लग गया था. लोग खीज गए थे.

2007 के चुनाव में मायावती को बहुमत मिल गया. इलाहाबाद पश्चिम सीट पर उनकी उम्मीदवार के रूप में पूजा पाल ने अशरफ को हरा दिया.

खूनी दुश्मनी जारी रही. पूजा पाल 2012 में फिर जीत गई. इस बार अतीक अहमद ने खुद जेल से चुनाव लड़ा था.

लेकिन यह तो यूपी है, राजनीतिक अनहोनियां करने वाला प्रदेश! 2022 तक, पूजा पाल सपा में शामिल हो गई, जिस पार्टी के उम्मीदवार और चहेते अतीक अहमद ने कथित तौर पर उसके पति की हत्या करवाई थी. उस हत्याकांड का मुकदमा 20 साल से जारी है, जबकि अब अतीक और अशरफ की भी हत्या की जा चुकी है.

वास्तव में, इस मुकदमे में उमेश पाल अभियोजन पक्ष की ओर से गवाह था. मुकदमे के दौरान ही ऐसा लग रहा था कि वे पलट गया है. इसलिए अभियोजन पक्ष ने उसे खारिज कर दिया था. फिर भी, ऐसी जटिल स्थितियों में उमेश पाल को कभी अतीक से मुश्किल पेश आ सकती थी, हालांकि उसने राजू पाल हत्याकांड के मुकदमे में अपने इस बयान से मुकर करके अतीक की मदद की थी कि 2006 में उसका अपहरण करने की कोशिश की गई थी.

लेकिन आप जानते हैं, इसके बाद क्या हुआ? 2006 में उसका अपहरण करने की कोशिश की गई लेकिन उसने इसके खिलाफ मामला दायर नहीं किया. क्यों? क्योंकि मुलायम तब सत्ता में थे. मुलायम जब चुनाव हार गए और मायावती सत्ता में आईं, तब 2007 में उसने मामला दर्ज करवाया. याद रहे कि उसकी भतीजी मायावती की पार्टी में थी.


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हिंदी पट्टी के जटिल समीकरण

यह जितना जटिल है उतना ही दिलचस्प भी, लेकिन उत्तर प्रदेश में अपराध और राजनीति के घालमेल का यह पहिया 2022 तक पूरा घूम चुका था और बसपा में लंबा समय बिता चुकी, सपा और उसके चहेते अतीक तथा उसके कुनबे से लड़ती रही पूजा पाल सपा में शामिल हो गई.

2022 में उसने इलाहाबाद के करीब कौशांबी जिले की चैल विधानसभा सीट से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत गई. उसने भाजपा-अपना दल के संयुक्त उम्मीदवार को हराया.

आप अगर फिर से देखना चाहते हैं कि यह घालमेल कितना गहरा है, तो गौर कीजिए कि अतीक की बीवी शाइस्ता परवीन आज बसपा की सदस्य है. उसके खिलाफ भी कुछ मामले चल रहे हैं, जिनमें एक उमेश पाल हत्याकांड की साजिश में शामिल होने का मामला भी है.

अब ज़रा इस पर गौर कीजिए. अतीक जिस अपना दल के संस्थापकों में शामिल था वे दल शासक एनडीए का एक घटक है और अतीक ने जिस महिला के पति की कथित तौर पर हत्या की थी वे सपा की विधायक है. हिंदी पट्टी की राजनीति और उसके साथ अपराध के घालमेल का ककहरा आप इस सबसे सीख सकते हैं.

अब वापस अतीक पर लौटें. उसे सपा ने निष्कासित कर दिया था, लेकिन अगले लोकसभा चुनाव में यानी 2009 में वह फूलपुर से नहीं बल्कि प्रदेश में पास के ही प्रतापगढ़ से खड़ा हुआ. इसके बाद उसने अपना दल के टिकट पर चुनाव लड़ा. इतना सब होने के बावजूद और ऐसी रंग-बिरंगी पृष्ठभूमि के बावजूद मुलायम ने अतीक को फिर सपा में शामिल कर लिया.

उस समय अखिलेश ने इसका विरोध किया लेकिन बहुत कर नहीं पाए. अतीक को कानपुर छावनी से टिकट दे दिया गया. चुनाव प्रचार के लिए उसने 500 वाहनों का जुलूस निकालकर घोषित कर दिया कि बड़ा डॉन वापस आ गया है.

लेकिन उसी दौरान ऐसा हुआ कि अतीक और उसके कुछ आदमियों के वीडियो सामने आए और तब वैसा ही कुछ हुआ जैसा आप ‘मिर्जापुर’, या ‘… वासेपुर’ या ‘ओंकारा’ जैसी फिल्मों में आपने देखा होगा. अतीक औए उसके लोगों को प्रयागराज के एक अग्रणी संस्थान सैम हिगिनबॉटम यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर, टेक्नोलॉजी ऐंड साइंसेज के शिक्षकों की पिटाई करते देखा गया. यह खबर आई तो अदालत सक्रिय हुई और उसने एसपी को आदेश दिया किया वे अतीक को गिरफ्तार करे. अखिलेश ने इस बहाने अंततः अतीक को अपनी पार्टी से बाहर किया.

दरअसल, इस समय तक मुलायम और अखिलेश के बीच टक्कर चरम पर पहुंच गया था क्योंकि मुलायम पुराने वफादारों को वापस लाना चाहते थे जबकि अखिलेश अपनी पार्टी पर से यह दाग मिटाना चाहते थे कि वे अपराधी माफियाओं की पार्टी है.

अगर आप बिलकुल निरपेक्ष भाव से देखेंगे तो पाएंगे कि अतीक ने 2004 में फूलपुर से सांसद बनकर जो उत्कर्ष हासिल किया था उसके बाद से पतन के रास्ते पर ही फिसलता गया. यह गिरावट तब और तेज़ हुई जब मायावती सत्ता में आईं और मुलायम सत्ता से बाहर हो गए; बाद में अखिलेश सत्ता में आए तब मुलायम ने अतीक को बहाल करने की बहुत कोशिश की मगर विफल रहे.

2012 में उसने जेल से विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया और पूजा पाल के खिलाफ चुनाव प्रचार करने के लिए ज़मानत की भी मांग की. इलाहाबाद हाइकोर्ट के 10 जजों ने उस मामले को सुनने से ही मना कर दिया. जज किसी मुकदमे की सुनवाई से अपने को अलग कर सकते हैं, मगर 10-10 जज? 11वें जज ने सुनवाई की और उसे ज़मानत दे दी. अतीक ने बाहर आकर चुनाव प्रचार किया लेकिन पूजा पाल ने उसे शिकस्त दे दी. आप कह सकते हैं कि उसका सितारा डूबने लगा था, बावजूद इसके कि मुलायम ने अपनी पूरी कोशिश की.

योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल ने समीकरण को बदल दिया.

26 दिसंबर 2018 को मोहित जायसवाल नाम के एक व्यवसायी ने शिकायत दर्ज करवाई कि लखनऊ से उसका अपहरण करके पूर्वी यूपी की देवरिया जेल ले जया गया, जहां अतीक कैद था. वहां अतीक और उसके लोगों ने उसकी पिटाई की. पिटाई करने में जेल के के कुछ कर्मचारी भी शामिल थे. ऐसे दृश्य आपने ‘ओंकारा’ या ‘…वासेपुर’ जैसी फिल्मों आदि में ज़रूर देखे होंगे. कोई गैंगस्टर जेल में अपना दरबार लगाता है, अपने आदमियों से कहता है अमुक आदमी को पकड़ लाओ, उस आदमी से कुछ मांग करता है, वे आदमी मांग मानने से मना कर देता है तो वे सब उसकी पिटाई करते हैं जिसमें जेल कर्मचारी भी शामिल हो जाते हैं.

जायसवाल आगे आए, शिकायत की, इसके बाद सुप्रीम कोर्ट सक्रिय हुआ और उसने अतीक को दूसरी जेल में बंद करने का आदेश दिया. पहले उसे बरेली जेल ले जाया गया लेकिन उसने यह कहकर मना कर दिया कि वे बहुत खतरनाक और मुश्किल कैदी है. तब उसे इलाहाबाद की नैनी जेल ले जाया गया और अंततः गुजरात की साबरमती जेल में रखा गया.

जब उसे साबरमती जेल से लाया गया था तब उसकी आंखों में आप दहशत देख सकते थे. उसने कहा था, “मुझे इनका प्रोग्राम मालूम है. कोर्ट के कंधे से गोली मारना चाहते हैं.”

उसके लिए एक बात कही जा सकती है कि उसे एक पूर्वाभास हो गया था, या उसके पास कोई भविष्यदृष्टि थी. उसने मौत को अपने करीब आती देख लिया था और यह भी देख लिया था कि वे किस रूप में आएगी.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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