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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतअशोक गहलोत के खिलाफ एक बार हारी हुई लड़ाई फिर क्यों लड़ रहे हैं सचिन पायलट

अशोक गहलोत के खिलाफ एक बार हारी हुई लड़ाई फिर क्यों लड़ रहे हैं सचिन पायलट

कांग्रेस आलाकमान चुनाव से बमुश्किल आठ महीने पहले राजस्थान में सत्ता परिवर्तन के लिए इच्छुक नहीं दिख रहा है. सचिन पायलट कैच-22 की स्थिति में फिर पहुंच गए हैं.

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“खुद किए तुम ने अपनी दीवारों में सुराख,
अब कोई झांक रहा है तो शिकायत कैसी?”

ये शब्द हैं गुलाम नबी आजाद के हाल ही में रिलीज़ हुई आत्मकथा आज़ाद के. कांग्रेस के पूर्व दिग्गज उस पार्टी की “स्थिति का सारांश” दे रहे हैं, जिसके आलाकमान ने “अपने ही लोकप्रिय राज्य के नेताओं को हाशिये पर डाल दिया और कमजोर नेतृत्व का समर्थन किया”, जिससे राज्यों में पार्टी का विनाश हुआ. उत्तर प्रदेश में, इंदिरा गांधी ने 1975 में मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को बर्खास्त कर दिया और राजीव गांधी ने 1988 में मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की जगह नारायण दत्त तिवारी को नियुक्त किया. बिहार में, इंदिरा ने 1983 में मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को बर्खास्त कर दिया और सोनिया गांधी ने जेबी पटनायक को 1999 में ओडिशा के मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया. असम के पूर्व सीएम तरुण गोगोई की जगह हिमंत बिस्वा सरमा को लाने के सोनिया गांधी के फैसले को राहुल गांधी ने पलट दिया. और फिर चुनाव से ठीक चार महीने पहले पंजाब के पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह का अपमान और फिर उनका निष्कासन.

ऐसा लगता है कि कांग्रेस अब राजस्थान में एक वैसा ही सुराख कर रही है. 9 अप्रैल को, सचिन पायलट ने घोषणा की कि वह पिछली वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर अशोक गहलोत सरकार की निष्क्रियता के विरोध में 11 अप्रैल को एक दिवसीय उपवास करेंगे. हालांकि, कांग्रेस आलाकमान ने चुनाव से बमुश्किल आठ महीने पहले सत्ता परिवर्तन के लिए अपनी अनिच्छा का संकेत दिया है.

रविवार शाम को एक बयान में, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव (संचार) जयराम रमेश ने कई योजनाओं को लागू करने और “लोगों को गहराई से प्रभावित करने वाली” पहल करने के लिए गहलोत सरकार की प्रशंसा की. पायलट की घोषणा का कोई संदर्भ दिए बिना रमेश ने कहा, “कांग्रेस इन ऐतिहासिक उपलब्धियों और हमारे संगठन के सामूहिक प्रयासों के बल पर लोगों से नए जनादेश की मांग करेगी.” एआईसीसी का बयान इससे अधिक स्पष्ट नहीं हो सकता था: कांग्रेस गहलोत सरकार की ‘उपलब्धियों’ को अपने केंद्रीय मुद्दे के रूप में चुनाव में ले जाने की तैयारी कर रही है और वह चाहती है कि पायलट नरम हों और पार्टी की जीत के लिए ‘सामूहिक’ प्रयास करें.

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) रेगिस्तान राज्य में विभाजित हो सकती है, लेकिन सत्ताधारी पार्टी में आंतरिक युद्ध केवल सत्ता विरोधी लहर को और बढ़ा सकती है. राज्य के मतदाताओं ने 1998 के बाद से हर पांच साल में सरकारें बदली हैं. कांग्रेस आलाकमान पंजाब के प्रयोग को दोहराने से सावधान है, जहां उसने क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू का समर्थन किया, जो अपने समर्थकों के साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन पर कटाक्ष करते रहे. अमरिंदर सिंह को आखिरकार बाहर कर दिया गया और मार्च 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का पतन हो गया.

सिद्धू के विपरीत, आज पार्टी में पायलट के कई हमदर्द हैं. उनका मानना है कि 2018 में पायलट के साथ गलत हुआ. जब उन्हें पांच साल तक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पूरी मेहनत करने के बाद भी मुख्यमंत्री पद से वंचित कर दिया गया.

इसके बाद के महीनों और वर्षों में उनके और गहलोत के बीच दुश्मनी के हद तक लड़ाई देखी गई है. और दोनों ने रणनीतिक की भूमिका निभाई.

2020 में, पायलट ने गहलोत के खिलाफ एक महीने तक विद्रोह किया और अपनी सरकार को वस्तुतः संकट के किनारे पर ला खड़ा किया. गांधियों ने पायलट को बाद में मुख्यमंत्री बना देने के साथ भरोसा दिलाया जिसके बाद वो एक बार फिर पार्टी में शामिल होकर काम करने लगे.

अगर देखा जाए तो पायलट के भाजपा में मिले होने का कोई सबूत नहीं है फिर भी गहलोत ने उन्हें ‘गद्दार‘ (देशद्रोही) कहा, उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि सचिन भाजपा की मदद करने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की. अब तक भाजपा के साथ उनकी मिलीभगत का कोई सबूत सामने नहीं आया है.

गहलोत ने जहां पायलट के विद्रोह के बाद नैतिक आधार पर उच्च स्थिति हासिल कर ली थी, वहीं सितंबर 2022 में पायलट को सत्ता हस्तांतरित करने के आलाकमान के प्रयास को रोकने के बाद गहलोत का भी पार्टी के अंदर शाख थोड़ा घाटी.


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पायलट का करो या मरो का दांव

पायलट के अनशन की घोषणा इस युद्ध के बढ़ने का प्रतीक है. लेकिन, पंजाब के विपरीत, गांधी परिवार चुनौती देने वाले को पदस्थापित करने में कोई दिलचस्पी लेती हुई दिखाई नहीं दे रही है. गहलोत, जिन्होंने अपनी मुख्यमंत्री पद की कुर्सी को बरकरार रखने के लिए राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष के प्रतिष्ठित पद को छोड़ दिया, अगर गांधी परिवार उन्हें हटाने की कोशिश करता है तो उनके चुपचाप इससे पीछे हटने की संभावना नजर नहीं आ रही है. पंजाब की असफलता के लिए काफी आलोचना झेलने के बाद गांधी परिवार दुविधा में है. इसका एक और सबूत मध्य प्रदेश से आ रहा है, जहां कमलनाथ के नेतृत्व वाली राज्य इकाई ने नवंबर-दिसंबर के चुनाव में उन्हें पार्टी का मुख्यमंत्री पद का एक तरह से उम्मीदवार घोषित कर दिया है. गांधी परिवार लेकिन चुप है. पुराने दिनों में एमपी कांग्रेस के कदम को आलाकमान की अवज्ञा के रूप में लिया जाता.

गांधी परिवार ने पहले राजस्थान में चुनावी रणनीतिकार सुनील कानूगोलू को तैनात किया था, जो अब नई दिल्ली लौट आए हैं. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि आंतरिक सर्वेक्षणों के मुताबिक मौजूदा परिदृश्य में कांग्रेस 200 सदस्यीय विधानसभा में महज 45-55 सीटें ही जीत सकती है. कनुगोलू ने गहलोत को बदलने की सिफारिश की थी. लेकिन गहलोत ने राजस्थान से उनकी विदाई सुनिश्चित कर दी.

पायलट एक तेज-तर्रार राजनेता हैं. वह गांधी परिवार के संकोच के बारे में दूसरों से बहुत पहले से जानते थे. फिर गहलोत के खिलाफ मामला क्यों बढ़ाया है? पायलट क्या करने की कोशिश कर रहे हैं? वह निश्चित रूप से गांधी परिवार से कर्नाटक चुनाव से बमुश्किल चार हफ्ते पहले राजस्थान में बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं करेंगे. क्या पायलट 13 मई को कर्नाटक के नतीजे आने के ठीक बाद राजस्थान पर फैसला लेने के लिए आलाकमान पर दबाव बना रहे हैं? आइए एक पल के लिए रविवार के एआईसीसी बयान को भूल जाएं. शायद हम कुछ ज्यादा ही मतलब देख रहे हैं.

काल्पनिक रूप से मान लेते हैं कि गांधी मई के मध्य में गहलोत को हटाने और पायलट को सीएम के रूप में स्थापित करने का फैसला करते हैं, तब पायलट के पास अपनी ताकत साबित करने के लिए छह महीने से भी कम समय होगा. फिर वह खुद को चरणजीत सिंह चन्नी जैसी स्थिति में पाएंगे, जिन्होंने अमरिंदर सिंह की जगह पंजाब के सीएम के रूप में काम किया और अपनी पार्टी में उथल-पुथल के बीच खुद को साबित करने के लिए सिर्फ पांच महीने का समय दिया. चन्नी बुरी तरह से विफल रहे और जल्द ही राजनीतिक गुमनामी में चले गए. उक्त काल्पनिक स्थिति में, कांग्रेस आलाकमान को गहलोत की वफादारी पर भरोसा करना होगा और आशा करनी होगी कि वह नवंबर-दिसंबर के चुनाव में पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी नहीं करेंगे. लेकिन यह आशावाद की पराकाष्ठा होगी. इसके अलावा, क्या पायलट चन्नी जैसी स्थिति में भी रहना चाहेंगे, जिसका उनके राजनीतिक भविष्य पर बड़ा असर पड़ेगा?

कैच-22 में पायलट

वैसे भी गहलोत पूरे नियंत्रण में नजर आ रहे हैं. इसने पायलट को कैच-22 स्थिति में छोड़ दिया है. अगर नेतृत्व परिवर्तन के लिए दबाव नहीं बढ़ायेंगे तो आगे भविष्य ही अनिश्चित हो जाएगा.

मान लीजिए कि कांग्रेस 2023 के चुनाव में सत्ता बरकरार रखती है, तो गहलोत अपने शासन के मॉडल की जीत का दावा करेंगे और पूरी तरह से नियंत्रण ले लेंगे इस स्थिति में पायलट को हाशिये पर रहने के अलावा कोई चारा नहीं होगा और अगर कांग्रेस चुनाव हार जाती है, तो गहलोत इसके लिए पायलट के नेतृत्व में आंतरिक विद्रोह को दोषी ठहराएंगे. 45 वर्षीय नेता को राजनीति में अभी लंबा रास्ता तय करना है लेकिन विपक्ष में पांच साल की संभावनाएं- किसी भी समय केंद्र में पार्टी के सत्ता में आने की बहुत कम उम्मीद के साथ- किसी भी महत्वाकांक्षी राजनेता के लिए चुनौतीपूर्ण हैं.

पायलट की नये सिरे से हमला तेज करने की वजह यही है.उनके लिए मौन रहना कोई विकल्प नहीं है. वह चाहेंगे कि वे 6 महीने के लिए सीएम की कुर्सी पर रहें और कुछ चमत्कार दिखाएं. बेशक उनके खिलाफ बाधाओं का ढेर है. जयराम रमेश का बयान गांधी परिवार की सोच को दर्शाता है. पायलट को इसका अंदाजा बहुत पहले हो गया होगा. अगर वह अभी भी गहलोत पर निशाना साध रहे हैं, तो उनके पास एक प्लान बी होना चाहिए, जिसके बारे में हम नहीं जानते.

इस बीच, जब आप गुलाम नबी आज़ाद के पूर्व सहयोगियों से बात करते हैं, जो अभी भी कांग्रेस में हैं, तो आप उनमें से कई को एक अलग स्थिति में पाते हैं- काशीनाथ सिंह के शानदार व्यंग्य, काशी का अस्सी के एक अन्य दोहे में कैद कुछ:

“कांग्रेस का हुक्का तो कब का बुझ चुका,

एक हम हैं कि गुरुगुराए जा रहे हैं.”

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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