नई दिल्ली: त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री और मार्कस्वादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) नेता माणिक सरकार ने कहा है कि त्रिपुरा में वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर आपसी ‘सहमति’ है, लेकिन गठबंधन नहीं है. त्रिपुरा में अगले महीने विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और माणिक ने इस चुनाव से किनारा करने का विकल्प चुना है. उन्होंने यह भी कहा कि भले ही वह खुद एक उम्मीदवार न हों, लेकिन वह इस लड़ाई में पूरी तरह शामिल हैं. उनकी पार्टी और कांग्रेस इस राज्य में मौजूदा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ मिलकर लड़ रहे हैं.
पिछले महीने वाम दलों और कांग्रेस ने त्रिपुरा के लोगों को भाजपा के ‘कुशासन’ के खिलाफ एकजुट होने के लिए एक संयुक्त बयान जारी किया था.
माणिक ने कहा कि दोनों पार्टियां सभी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों से एक साथ आने और राज्य में बीजेपी का मुकाबला करने की अपील के साथ लोगों के पास जा रही हैं. उन्होंने अपनी इस अपील में लोकतंत्र, मानवाधिकार और अर्थव्यवस्था को खतरे में बताया है. हालांकि, 60 सदस्यीय विधानसभा में वाम मोर्चे ने कांग्रेस के लिए 13 सीटें छोड़ने का फैसला किया, जो कि ‘आपसी सहमति’ के वास्तविक मानदंडों को पूरा नहीं करती है. उधर कांग्रेस ने इसके इतर 17 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा की है.
सरकार ने सोमवार को दिप्रिंट को बताया, ‘‘समान उद्देश्यों और प्रकृति वाले दल जब आपसी सहमति के साथ एक साथ आते हैं तो गठबंधन होता है. कांग्रेस के साथ ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है. हमें न सिर्फ राज्य के लिए, बल्कि राष्ट्र की भलाई के लिए भाजपा को हराने की ज़रूरत है.’’
उन्होंने कहा, ‘‘त्रिपुरा एक छोटा राज्य हो सकता है, लेकिन हमें लगता है कि हमारे राज्य में बीजेपी की हार से भाजपा और आरएसएस के खिलाफ राष्ट्रीय लड़ाई में काफी मदद मिलेगी. इसलिए यह कहना बेहतर होगा कि हमने कुछ सीटों पर कांग्रेस के साथ समझौता किया है.’’
सरकार 1998 और 2018 के बीच त्रिपुरा के सीएम रहे हैं और वर्तमान विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में अपनी जिम्मेदारियां निभा रहे हैं. त्रिपुरा में 16 फरवरी को चुनाव होने हैं. बीजेपी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार को कांग्रेस-वामपंथी और तिपराहा स्वदेशी प्रगतिशील क्षेत्रीय गठबंधन (TIPRA मोथा) चुनौती दे रहा है. कांग्रेस और वाम मोर्चा ने एक साथ मिलकर टिपरा मोथा के साथ गठबंधन करने के लिए लंबे समय तक कोशिश की थी, लेकिन मोथा प्रमुख प्रद्योत देबबर्मा के ग्रेटर टिपरालैंड-त्रिपुरा के मूल निवासियों के लिए अलग राज्य-पर लिखित प्रतिबद्धता पर जोर दिए जाने के कारण उनकी कोशिश सफल नहीं हो पाई.
सरकार इस बात पर कुछ भी कहने में काफी सावधानी बरत रहे हैं कि मोथा के इस पहले विधानसभा चुनाव का चुनावी नतीजों पर क्या प्रभाव पड़ेगा. सरकार ने कहा, ‘‘इस बारे में बात करना जल्दबाजी होगी. आज नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख है और 2 फरवरी तक नाम वापिस लिए जा सकते हैं. वास्तव में उसके बाद ही तस्वीर साफ हो पाएगी और तभी हम समझ पाएंगे कि हमें आगे क्या करना है.’’
TIPRA मोथा पार्टी 2019 में देबबर्मा के आवेश में कांग्रेस छोड़ने के बाद सामने आई थी. देबबर्मा ने कथित तौर पर पार्टी के तत्कालीन महासचिव और पूर्वोत्तर प्रभारी लुइज़िन्हो फलेइरो के साथ मतभेदों और अन्य कारणों से पार्टी से किनारा कर लिया था. मोथा ने 2021 में त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद (TTAADC) चुनावों में जीत हासिल की थी.
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‘युवाओं के लिए जगह बनाने की ज़रूरत’
सरकार ने इस विचार को खारिज कर दिया कि 2023 के चुनाव में उनका नहीं लड़ने का फैसला उनकी पार्टी के साथ किसी भी मतभेद का संकेत है.
उन्होंने कहा, ‘‘पार्टी के लिए मेरी लड़ाई आज भी वैसी ही है जैसी मैं लड़ता आया हूं. मैं 1979 से त्रिपुरा विधानसभा का सदस्य हूं और सत्ताधारी दल का मुख्य सचेतक रहा हूं. त्रिपुरा के लोगों ने मुझे 20 साल तक बतौर मुख्यमंत्री उनकी सेवा करने का मौका दिया और मैं पिछले पांच साल से विपक्ष का नेता हूं. मैंने महसूस किया कि जन आंदोलनों के जरिए राजनीति में कदम रखने वाले युवाओं के लिए एक जगह बनाने की ज़रूरत है. पीढ़ीगत बदलाव के लिए यह ज़रूरी है.’’
सरकार ने कहा, ‘‘चुनाव न लड़ने का मेरा निर्णय काफी सोच समझ कर लिया गया फैसला था. मेरी पार्टी पोलित ब्यूरो मुझसे सहमत है. मैं पूरी तरह से पार्टी के साथ हूं और राज्य का दौरा कर रहा हूं. उस जिम्मेदारी को कम करने का कोई कारण नहीं है.’’
त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री ने इस धारणा को भी खारिज कर दिया कि आदिवासी अधिकारों के अपने एजेंडे के साथ मोथा के उदय को देखते हुए, त्रिपुरा के 28 लाख से अधिक मतदाता सामुदायिक आधार पर मतदान कर सकते हैं. राज्य में 10 लाख से थोड़े से ज्यादा मतदाता आदिवासी हैं, जिनमें से अधिकांश बंगाली हिंदू हैं.
उन्होंने कहा, ‘‘हमारी कोशिश हमेशा आदिवासियों और गैर-आदिवासियों दोनों को साथ लेकर राज्य की भलाई के लिए आगे बढ़ने की रही है. हमारा संदेश है कि लोकतांत्रिक राजनीतिक ताकतों को, चाहे वे किसी भी धर्म या जातीय समूह से हों, एक साथ आना चाहिए और त्रिपुरा के सर्वोत्तम हितों को ध्यान में रखते हुए मतदान करना चाहिए.’’
उन्होंने आगे कहा, ‘‘राज्य में लोकतंत्र पर हमला हो रहा है. विपक्षी दलों को अपने प्रोग्राम नहीं करने दिए जा रहे हैं. कानून व्यवस्था के नाम पर जंगल राज है. व्यक्तिगत अधिकार खतरे में हैं. माताओं और बहनों पर हमले हो रहे हैं, इसका कोई समाधान नहीं है. संविधान को विकृत किया जा रहा है और अल्पसंख्यक समूहों पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाला जा रहा है. हमारा संदेश है कि राज्य की आर्थिक बेहतरी के लिए भी कानून और संवैधानिक व्यवस्था की बहाली जरूरी है. नौकरियां छूट रही हैं, भुखमरी है, यहां तक कि बच्चों को बेचे जाने की घटनाएं भी हो रही हैं.’’
सीपीआई (एम) के एक अनुभवी नेता ने कहा कि भले ही वामपंथी सिर्फ एक राज्य (केरल) में सिमट कर रह गई हो, लेकिन यह धारणा गलत है कि पार्टी अपनी पूर्व वैचारिक हठधर्मिता की वजह से आगे नहीं बढ़ पाई है.
उन्होंने कहा, ‘‘हमने परिस्थितियों को अपनी विचारधारा तय करने का मौका दिया है. आप कैसे सोच सकते हैं कि हम वहीं फंसे रह गए हैं जहां हम 25 साल पहले थे? हमने मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) की मांग की और अब हम इसके शहरी संस्करण की मांग कर रहे हैं. राजनीति मुखौटा है लेकिन अर्थव्यवस्था चारदीवारी है और हम इसे समझते हैं.’’
(अनुवादः संघप्रिया | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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