यह कॉलम उन लोगों के बारे में नहीं है जिन्हें भारत रत्न और पद्म पुरस्कार मिले हैं या मिलने की संभावना है, बल्कि उन लोगों के बारे में है जिन्होंने या तो उनकी ‘सैद्धांतिक’ आपत्ति या उनकी वैचारिक व्यवस्था के कारण इस सम्मान को स्वीकार करने से इनकार किया है.
1954 में पुरस्कारों की शुरुआत के पहले साल में, मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद ने भारत रत्न को स्वीकार करने से इनकार किया था- उनका कहना था कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के सेवारत सदस्य (या चयन समिति में) ‘नियंत्रण और अधिकार’ की स्थिति में थे और इस तरह के ‘लालच’ से दूर रहना चाहिए. भारत रत्न को अस्वीकार करने वाले अन्य व्यक्ति राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) के सदस्य एच एन कुंजरू थे. उन्होंने सदन की बहस के दौरान, राज्य सरकारों द्वारा पुरस्कार, सम्मान या खिताब देने के विचार का विरोध किया था. उन्होंने सोचा कि पुरस्कार स्वीकार करना उनके लिए उचित नहीं होगा. कुंजरू इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के संस्थापक थे – जो बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में तब्दील हो गया, इसके अलावा वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के भी संस्थापक सदस्य रहे हैं.
संयोग से एसआरसी के अध्यक्ष, न्यायमूर्ति फज़ल अली को पद्म विभूषण की पेशकश की गई थी, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. न्यायमूर्ति फज़ल अली को इससे पहले खान साहिब, खान बहादुर और ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर (ओबीई) की उपाधियां मिली थीं. एक मई 1942 को वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने उन्हें नाइटहुड सम्मान से नवाज़ा था. राज और स्वराज यानी ब्रिटिश शासन के अधीन भारतीय सरकार और स्वतंत्र भारत की सरकार दोनों द्वारा सम्मानित व्यक्ति का वे एक दुर्लभ उदाहरण हैं.
एसआरसी के तीसरे सदस्य, केएम पणिक्कर को इनमें से एक भी सम्मान नहीं दिया गया, लेकिन वे राष्ट्रपति द्वारा छह साल के कार्यकाल के लिए राज्यसभा में मनोनीत 12 सदस्यों में से थे. यह 1959 में भारत के संविधान के अनुच्छेद 4(1) और 80(2) के अनुसार ‘कला, साहित्य, विज्ञान और सामाजिक सेवाओं के प्रति उनके योगदान’ के कारण था.
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मरणोपरांत पुरस्कार
भारत रत्न और पद्म पुरस्कारों की जब शुरुआत की गई थी, तो वे केवल जीवित व्यक्तियों को दिए जाते थे. स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को भारत रत्न पुरस्कार देने के लिए 1966 के गणतंत्र दिवस से पहले मरणोपरांत पुरस्कार प्रदान करने का फैसला लिया गया था. दरअसल, भारत-पाकिस्तान शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के महज 15 दिन पहले उज्बेकिस्तान के ताशकंद में उनका निधन हो गया था. बाद में 1992 में, मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद के परिवार ने उनका मरणोपरांत पुरस्कार स्वीकार किया, लेकिन सुभाष चंद्र बोस को इसी तरह पुरस्कार देने के फैसले की आलोचना हुई और कलकत्ता हाईकोर्ट में इस संबंध में एक जनहित याचिका दायर की गई. याचिका में तर्क दिया गया कि सरकार ने 18 अगस्त 1945 को बोस की मृत्यु को आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया था. इसने 1956 की शाह नवाज़ समिति की रिपोर्ट में सुभाष बोस के भाई के असहमति नोट पर अदालत का ध्यान आकर्षित किया. जनहित याचिका में कहा गया था कि जीडी खोसला की 1974 की रिपोर्ट के निष्कर्ष को ‘अंतिम’ नहीं माना जा सकता. इसके अलावा, बोस के परिवार को लगा कि अब इस पुरस्कार को प्राप्त करने में बहुत विलंब हो चुका है.
संयोग से, जनवरी 2020 में, सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपिता को भारत रत्न देने की मांग करने वाली एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया. शीर्ष अदालत ने कहा, “वह भारत रत्न से बहुत ऊपर हैं. लोग उनका बहुत सम्मान करते हैं…महात्मा गांधी के लिए भारत रत्न क्या है?” असल में, गांधी के जन्मदिन को अब संयुक्त राष्ट्र (यूएन) द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है.
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पद्म पुरस्कार
1973 में पद्म विभूषण पुरस्कार से इनकार करने वाले पहले व्यक्ति तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव पीएन हक्सर थे. उन्होंने महसूस किया कि वे बस अपना कर्तव्य निभा रहे थे और ‘इस तरह किए गए काम के लिए पुरस्कार स्वीकार करना असुविधा का कारण बनता है’. हक्सर को 1972 में शिमला समझौते के सफल संचालन और भारत-सोवियत मैत्री और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए यह सम्मान दिया जाना था. इस परंपरा का पालन सिविल सेवकों एसआर शंकरन और के सुब्रमण्यम ने किया, जिनका मानना था कि सिविल सेवकों को उनके कर्तव्य के लिए पुरस्कार स्वीकार नहीं करना चाहिए.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सदस्य, कॉमरेड ईएमएस नंबूदरीपाद और बाद में ज्योति बसु को पद्म विभूषण से इनकार करना पड़ा क्योंकि उनकी पार्टी ने उन्हें इसे स्वीकार करने की अनुमति नहीं दी थी. सीपीआईएम (मार्क्सवादी) के बुद्धदेव भट्टाचार्य को 2013 में पद्म भूषण देने का निर्णय लिया गया, लेकिन उनकी पार्टी ने फिर से वही रुख अपनाया. दिलचस्प बात यह रही कि चीन और तत्कालीन सोवियत संघ दोनों में सरकारी पदों पर आसीन कम्युनिस्ट नेताओं को राज्य पुरस्कारों को स्वीकार करने के लिए जाना जाता है.
स्वामी रंगनाथानंद ने पुरस्कार प्राप्त करने से मना इसलिए किया क्योंकि उनका मानना था कि ये सम्मान रामकृष्ण मिशन को एक संस्था के रूप में दिया जाना चाहिए था न कि एक व्यक्ति के तौर पर अकेले उन्हें. हालांकि, नोबेल शांति पुरस्कार के अलावा, किसी संस्था को पद्म विभूषण देने का प्रावधान नहीं है.
2011 में, सहकारिता और हस्तशिल्प आंदोलन के पुरोधा और दक्षिण अफ्रीका में भारत के उच्चायुक्त लक्ष्मी चंद जैन के परिवार ने पद्म विभूषण के मरणोपरांत सम्मान को स्वीकार करने से इनकार किया, ”क्योंकि जैन राजकीय सम्मान स्वीकार करने के खिलाफ थे.” पत्रकार निखिल चक्रवर्ती और वीरेंद्र कपूर, और शिक्षाविद जीएस घुर्ये (समाजशास्त्र) और रोमिला थापर (इतिहास) ने भी पुरस्कार लेने से किनारा किया. उन्होंने महसूस किया कि राज्य संरक्षण स्वीकार करने से उनकी स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है. हालांकि, पत्रकारों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा राजनीतिक दर्शन या सत्ता में सरकार के कार्यों के खिलाफ अपने विरोध को चिह्नित करने के लिए अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाने के कई और उदाहरण हैं, यह एक अन्य कॉलम लिखने के योग्य होगा.
अपनी बात के समापन से पहले, यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा कि 1969 में, आचार्य जे.बी. कृपलानी ने एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया था, जिसका शीर्षक था व्यक्तियों को अलंकरण प्रदान करना (उन्मूलन) विधेयक, 1969. सदस्यों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर चयन प्रक्रिया में कुछ हद तक ‘तर्कसंगतता’ लाने की ज़रूरत के बारे में बात की. हालांकि, ये प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका, अधिकांश सदस्य इस विचार से सहमत थे कि ये सम्मान ‘उपाधि’ नहीं थे और इन्हें किसी व्यक्ति के नाम के आगे या पीछे इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था, अन्यथा यह संविधान के अनुच्छेद 18 का उल्लंघन होगा, जिसने व्यक्तिगत और वंशानुगत दोनों उपाधियों को समाप्त कर दिया.
इन दिनों सरकार किसी भी कंट्रोवर्सी से बचने के लिए नामांकित व्यक्तियों से पहले ही पूछ लेती है कि क्या वे पुरस्कार स्वीकार करेंगे. किसी पुरस्कार की वापसी के संबंध में, वर्तमान सरकार के साथ मतभेद व्यक्त करने के कई अन्य तरीके हैं. पुरस्कार एक विशेष समय पर एक निर्वाचित सरकार द्वारा राष्ट्र की ओर से दी जाने वाली मान्यता है, बाद की तारीख में इसे लौटाना अनुचित संदेश देता है.
संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वड्रस के फेस्टीवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डायरेक्टर थे. उनका ट्विटर हैंडल @ChopraSanjeev है. व्यक्त विचार निजी हैं.
(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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