नई दिल्ली: क्या आप आर्थिक मंदी और उससे होने वाले नुकसान का सही अनुमान लगाने के लिए विभिन्न चैनलों के जरिए प्रकाशित होने वाले समाचारों पर भरोसा कर सकते हैं? क्या जब ये खबरें बेहतर आर्थिक स्थिति के बारे में बात करती हैं या अनुमान लगाती हैं, तो क्या हमें इन्हें लेकर खुश होना चाहिए?
तो इसका जवाब होगा ‘हां’ यह सही होती हैं. पिछले महीने आरबीआई के बुलेटिन में प्रकाशित भारतीय रिज़र्व बैंक के सांख्यिकी और सूचना प्रबंधन विभाग (डीएसआईएम) के अर्थशास्त्रियों ने अपने एक नए अध्ययन में पाया कि जब भारतीय न्यूज़रूम की बात आती है, तो वहां प्रकाशित ज्यादातर आर्थिक रुझान सही तस्वीर पेश करते नज़र आते हैं.
लेखिका गीता गिद्दी, श्वेता कुमारी और शशांक शेखर मैती ने ‘व्हेन ए न्यूज़ स्टोरी इज मोर दैन जस्ट टेक्स्ट: एविडेंस फ्रॉम इंडियन इकोनॉमी’ नामक अपनी स्टडी में बताया कि ज्यादातर मामलों में समाचार लेख आर्थिक संकेतकों की दिशा को लेकर ‘वास्तविक समय के संकेत’ और ‘बदलावों’ की जानकारी पहले ही दे देते हैं, जबकि इन्हें लेकर आधिकारिक डेटा काफी समय बाद जारी होता है.
हालांकि, पिछले महीने जारी किए गए बुलेटिन में लेखकों ने यह भी माना कि कोविड-19 के दौरान खबरें ज्यादा सटीक रुझान पेश नहीं कर पाई थीं, क्योंकि महामारी की वजह से अनिश्चितता बनी हुई थी.
यह भी पढ़ेंः ‘मैंने जासूस की तरह महसूस किया’- एक अंडरकवर पुलिसकर्मी का मेडिकल कॉलेज में ‘रैगिंग गिरोह’ का भंडाफोड़
शोधकर्ता अपने निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे
इस स्टडी के लिए आठ आर्थिक संकेतकों के आसपास एक सेंटीमेंट इंडेक्स तैयार करने के मकसद से 2015 से 2021 तक ऑनलाइन मीडिया पोर्टल्स पर प्रकाशित हुई खबरों का इस्तेमाल किया गया.
इनमें से खुदरा मुद्रास्फीति, औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक, आर्थिक विकास, उपभोग वृद्धि और बिजनेस एक्सपेक्टेशन्स एंड असेसमेंट जैसे पांच संकेतक वास्तविक क्षेत्र (वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन से संबंधित) से लिए गए, जबकि दो बाहरी क्षेत्रों जैसे निर्यात और आयात वृद्धि से जुड़े हैं. इसके अलावा एक आर्थिक संकेतक बैंक क्रेडिट ग्रोथ के तौर पर वित्तीय क्षेत्र से लिया गया.
लेखकों ने प्रकाशित खबरों में बार-बार इस्तेमाल किए गए शब्दों के आधार पर यह जाना कि समाचार में सकारात्मक, नकारात्मक या तटस्थ भाव है या नहीं. उन्होंने इसका इस्तेमाल एक मीडिया सेंटीमेंट इंडेक्स (एमएसआई) बनाने या उस तक पहुंचने के लिए किया. यह गणना मासिक आधार पर की गई थी.
एक साल के दौरान देखा गया परिवर्तन MSI की दिशा को परिभाषित करता है. उदाहरण के लिए अगर निर्यात पर सकारात्मक कवरेज पिछले साल के नकारात्मक कवरेज से अधिक है, तो इस बात की प्रबल संभावना है कि उस वर्ष निर्यात में वृद्धि होने की संभावना है- यह एक संकेत है जो लेखकों को अक्सर बाद में जारी सरकार के आंकड़ों में दिखाई दिया.
यह भी पढ़ेंः सोलर पैनल, नई टेलीकॉम साइट्स—हिमाचल के दूरदराज के जिलों तक कनेक्टिविटी बढ़ाने पर विचार कर रहा ट्राई
‘सटीकता काफी अधिक’
जब एमएसआई की वास्तविक आधिकारिक डेटा के साथ तुलना की गई, तो लेखकों ने ऑनलाइन प्रकाशित खबरों और वास्तविक आंकड़ों के रुझान के बीच ‘मजबूत और महत्वपूर्ण परस्पर संबंध’ पाया. इससे पता चलता है कि खबरों में कम से कम आठ संकेतकों की मात्रा और दिशा का सही अनुमान लगाने की क्षमता है.
अध्ययन के मुताबिक, ‘अगर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि को छोड़ दें तो यहां बाकी संकेतकों के लिए सटीकता काफी अधिक है. यह लगभग 70 से 90 फीसदी के बीच है.’
लेखकों ने निष्कर्ष निकाला कि ऐसे समय में जब विश्लेषक और नीति-निर्माता विभिन्न आर्थिक झटकों के प्रभावों का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं, तब खबरों में आर्थिक रुझान को लेकर प्रकाशित ये आंकड़े बड़ी सटीकता के साथ कुछ क्षेत्रों के लिए वास्तविक समय के संकेत दे सकते हैं.
लेखकों ने अध्ययन में कहा, ‘चूंकि, आधिकारिक आंकड़ों और पारंपरिक संकेतकों को जारी करने से पहले उच्च-आवृत्ति के आधार पर सेंटीमेंट इंडिकेटर बनाए जा सकते हैं, इसलिए आर्थिक स्थितियों पर शुरुआती संकेतों के लिए उन्हें नियमित रूप से ट्रैक करना सार्थक रहेगा.’
अध्ययन में कहा गया है, ‘बिजनेस प्रवृत्ति सर्वेक्षणों के जरिए उपलब्ध विश्वास, रुझान और बाजार एजेंटों की अपेक्षाओं जैसे अन्य सामान्य रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले उपायों को शामिल करके और हायर प्रडिक्शन एक्यूरेसी के लिए मजबूत एम्पिरिकल मॉडल (व्यवहारिक और प्रयोग पर आधारित) का अनुमान लगाकर, इनका और विस्तार किया जा सकता है.’
(अनुवादः संघप्रिया | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ेंः ‘निर्भया केस के विशेषज्ञ ने की थी जांच’- छावला मामले में SC से क्लीनचिट के खिलाफ सरकार ने दी याचिका