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Sunday, 22 December, 2024
होमफीचरदिल्ली का यह जंगल गायब होती गौरेया के लिए बना ठिकाना, यहां के आसमां में फिर से नज़र आएगी ये चिड़िया

दिल्ली का यह जंगल गायब होती गौरेया के लिए बना ठिकाना, यहां के आसमां में फिर से नज़र आएगी ये चिड़िया

गौरेया ग्राम आकर आपको बिल्कुल भी नहीं लगेगा कि यह पक्षी विलुप्ति की कगार पर है. आप उसे पेड़ की एक टहनी से दूसरी पर जाते हुए देख सकते हैं और अपने कानों में उसकी आवाज को महसूस भी कर सकते हैं.

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दिल्ली विधानसभा से कुछ किलोमीटर दूर 42 एकड़ में फैला गढ़ी मांडू सिटी फॉरेस्ट इन दिनों पर्यटकों के लिए पसंदीदा जगह बन गया है. इस जंगल में घुसते ही लोग अपने सिर को ऊपर उठा लेते हैं और बिना शोर किए कदमों को आहिस्ते-आहिस्ते बढ़ाते हुए पेड़ों की तरफ इस उम्मीद से देखते हैं कि उन्हें कहीं भारत की सबसे ज्यादा विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी प्रजाति यानि कि गौरेया नज़र आ जाए.

गौरेया के रहने के लिए पूरी तरह से प्राकृतिक जगह बनाने के लिए दिल्ली को एक दशक का समय लग गया. गौरेया ग्राम नाम से बसाई गई इस जगह में अब इस पक्षी की चहचहाहट कहीं भी सुनी जा सकती है.

गौरेया की मधुर आवाज इस उम्मीद को बढ़ा रही है कि अब दिल्ली के आसमां पर फिर से उनका राज होगा. लेकिन फिलहाल अभी के लिए पर्यटक गौरेया ग्राम जाकर इस चिड़िया का दीदार कर रहे हैं.

वे बांस, जूट, नारियल और मिट्टी के बर्तनों जैसी प्राकृतिक सामग्रियों से बने कृत्रिम रूप से बनाए गए घोंसलों में अपना घर बना रहे हैं. यह उस नीति का भी परिणाम है जिसे पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अपने कार्यकाल में शुरू किया था. दिल्ली में गौरैया संकट ने उनके कार्यकाल के दौरान जनता का ध्यान आकर्षित किया और उन्होंने संरक्षण प्रयासों को बढ़ावा देते हुए गौरेया को राजधानी का राज्य पक्षी घोषित कर दिया.

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के एसिस्टेंट डॉयरेक्टर और संरक्षणवादी सोहेल मदान ने दिप्रिंट को बताया, ‘स्वस्थ्य पर्यावरण के लिए गौरेया एक महत्वपूर्ण सूचक है और यह पक्षी हमारे इकोसिस्टम का हिस्सा है. अगर ये विलुप्त हो गए तो प्रकृति का लिंक टूट जाएगा. हमने गौरेया ग्राम में इसी तरह के हैबिटेट को स्थापित करने का प्रयास किया है.’

गढ़ी मांडू जंगल यमुना के किनारे स्थित है जहां पर गौरेया ग्राम बनाया गया है. यह जंगल उन चार ‘विश्व स्तरीय’ शहरी जंगलों में से एक है, जिसे दिल्ली सरकार विकसित करना चाहती है.

लेकिन गौरेया ग्राम कोई चिड़ियाघर नहीं है. मदान बताते हैं, ‘यह एक डायनिमिक हैबिटेट है. हम गौरेया को खुद से खाना नहीं खिलाना चाहते. हम उसे एक हैबिटेट देना चाहते हैं ताकि वे प्राकृतिक तौर पर जी सके.’

गौरेया ग्राम जैसी पहल का सबसे बड़ा लक्ष्य दिल्ली में इस पक्षी की संख्या को बढ़ाना है और साथ ही लोगों को जागरूक करना है कि उनके प्रदेश की राज्य पक्षी विलुप्ति की कगार पर है.


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गौरेया ग्राम का महत्व

लेकिन गौरैया के लिए जंगल बनाना जितना कहने में आसान है उतना है नहीं. छोटे भूरे और सफेद रंग की ये पक्षी कोई जंगली पक्षी नहीं है. यह एक ग्रामीण पक्षी है जिसे एक सुरक्षित घोंसला और कीटनाशक मुक्त कैटरपिलर, कीड़े और अन्य कीड़ों की एक स्थिर आपूर्ति की आवश्यकता होती है.

घोंसले एक प्राथमिकता हैं और यह सुनिश्चित करना सामंतरा देवी का काम है कि गौरैया अपने घर में सुरक्षित रह सके. वह घोंसलों की व्यवस्था और रखरखाव में मदद करती हैं और पिछले दो वर्षों से गढ़ी मांडू में अपने परिवार के साथ रह रही हैं.

सामंतरा देवी बताती हैं, ‘जब हम यहां आए थे तब गौरेया की आवाज कम आती थी लेकिन इस पक्षी की संख्या बढ़ने के साथ आवाज भी बढ़ी है. तेज हवा में जब घोंसले गिर जाते हैं तो हम ही उसे फिर से उठाकर लगा देते हैं.’

सिर्फ घोंसले बना देने से यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि गौरेया की संख्या बढ़ जाएगी. अगर कीट गायब हो गए तो गौरेया भी खत्म हो जाएंगी. इसलिए गौरेया ग्राम में दो कीट छात्रावास बनाए गए हैं जिसमें इस छोटी चिड़िया के लिए अलग-अलग कीट की व्यवस्था की गई है.

इन छात्रावासों में टाइल्स, पुरानी मैगजीन और अन्य अपशिष्ट उत्पाद रखे गए हैं, जो कि कीटों के लिए एक उपयुक्त जीवन देते हैं.

गौरेया ग्राम में बनाए गए दो कीट छात्रावास | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

इस साल मई में जब दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने गौरेया ग्राम का उद्धाटन किया, तो उन्होंने राज्य पक्षी के संरक्षण के लिए इसे एक अच्छी शुरुआत बताया. उन्होंने कहा था, ‘हम सिर्फ दिल्ली के हरित क्षेत्र को नहीं बढ़ाना चाहते बल्कि एक स्वस्थ इकोलोजिकल सिस्टम का भी निर्माण करना चाहते हैं जो कि पक्षियों और जानवरों के अनुकूल हो.’

संरक्षणवादियों ने करोंदा, कुंडी जैसे फलों के पेड़ भी यहां लगाए गए हैं वहीं पक्षियों के लिए फीडर बॉक्स भी लगाए गए हैं. वहीं खराब मौसम और तेज बारिश से पक्षियों को बचाने के लिए बांस से बने शेल्टर का भी निर्माण किया गया है. साथ ही पक्षियों के लिए पानी की भी व्यवस्था की गई है और गौरेया ग्राम में काम करने वाले कर्मचारी इस बात का पूरा ख्याल रखते हैं.

पर्यटकों के लिए यहां हर्बल गार्डन मौजूद हैं जहां से लोग तुलसी, एलोवेरा, पाथरचट्टा, आजवायन और दूसरे पौधों को अपने घर ले जा सकते हैं.

गढ़ी मांडू के जंगल में मोर, जंगली सूअर, तोते, गिलहरी, तितलियां काफी संख्या में हैं और यह कई पक्षियों के लिए उपयुक्त पर्यावरण देता है.

लेकिन एक और पक्षी है जिसने गांव की खोज की है- जंगली कबूतर, जिसे शहरों में गौरैया की घटती संख्या के लिए दोषी ठहराया गया है. मदान, हालांकि, किसी एक प्रजाति को खलनायक के रूप में नहीं देखते हैं. यह प्रकृति के गतिशील प्रवाह का हिस्सा है, उनका तर्क है कि गोरैया ग्राम एक चिड़ियाघर नहीं है.

कबूतर जैसे शिकारी पक्षी गौरैया की घटती संख्या का एकमात्र कारण नहीं हैं. शहरीकरण, बढ़ते प्रदूषण के स्तर, कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग और यहां तक ​​कि सजावटी पेड़ों और झाड़ियों के लिए निवासियों की वरीयता के कारण निवास स्थान की कमी, जो चिड़ियों को घोंसले और प्रजनन के लिए मुश्किल बनाते हैं, ने भी भूमिका निभाई है. आज, गौरैया प्रकृति की लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ की लाल सूची में है.

लेकिन गौरेया ग्राम आकर आपको बिल्कुल भी नहीं लगेगा कि यह पक्षी विलुप्ति की कगार पर है. आप उसे पेड़ की एक टहनी से दूसरी पर जाते हुए देख सकते हैं और अपने कानों में उसकी आवाज को महसूस भी कर सकते हैं.

इसी बदलाव ने हरबीर सिंह के चेहरे पर खुशी ला दी है. गौरेया ग्राम में माली का काम करने वाले सिंह बड़ी ही संतुष्टि से अपनी खाट पर लेटे हुए हैं. गढ़ी मांडू के जंगल में 20 साल से ज्यादा समय से काम कर रहे हरबीर सिंह बताते हैं, ‘ये पंक्षी अब लौट आए हैं. पहले ये दिखती भी नहीं थी लेकिन अब इन्हें आराम से देखा जा सकता है.’

एक समय था जब यहां जंगल नहीं हुआ करता था बल्कि पास के ही उस्मानपुर गांव के लोग यहां खेती करते थे. लेकिन डीडीए ने जमीन को वन विभाग को दे दिया जिसके बाद 2002 में व्यवस्थित ढंग से पूरे इलाके की फेंसिंग कर इसे जंगल बनाया गया.

सेंट्रल डिवीजन की डिप्टी कंसर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट चेष्ठा सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘गढ़ी मांडू दिल्ली का एक बहुत ही पुराना वन क्षेत्र रहा है जो कि पूर्वोत्तर जिले की घनी आबादी वाले इलाके में स्थित है. यहां बड़ी मात्रा में वनस्पति और जीव मौजूद हैं.’

उस्मानपुर गांव में रहने वाले दीपक जो कि गौरेया ग्राम के बाहर अपनी बैल गाड़ी खड़ी कर चिड़ियों की आवाज सुन रहे हैं, बताते हैं, ‘हम गौरेया देखते हुए बड़े हुए लेकिन अब वे गायब हो रही हैं. संरक्षण की ये कोशिश काफी अच्छी है.’


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गौरेया को बचाने का मिशन

किसी को भी आभास नहीं हुआ कि उनके बीच से कैसे गौरेया की चहचहाहट गायब हो गई और चारों तरफ कौओं और कबूतरों की आवाज पसर गई. जबकि देश का ध्यान टाइगर पर लगा रहा और बेंगलुरू, मुंबई, दिल्ली, हरियाणा, लखनऊ और भारत के अन्य शहरों से गौरेया गायब होती चली गई.

लेकिन नासिक के 42 वर्षीय मोहम्मद दिलावर गौरेया की घटती संख्या पर लगातार नजर बनाए हुए थे. क्योंकि उन्होंने अपने बचपन में आसपास से गिद्धों के गायब होते चले जाने को देखा था. और इसी बात ने उन्हें गौरेया के संरक्षण के लिए काम करने को प्रेरित किया और उन्होंने इसे मिशन बनाते हुए 2005 में नेचर फॉरएवर सोसाइटी का गठन किया.

नागरिकों के बीच गौरेया को लेकर जागरूकता अभियान चलाने वाले दिलावर बताते हैं, ‘शुरुआती तौर पर गौरेया के संरक्षण को लेकर कोई नहीं सोचता था. उस समय सिर्फ टाइगर को बचाने पर जोर था. वैज्ञानिकों के समुदाय को समझाना तक काफी मुश्किल हो रहा था क्योंकि वे मानने को तैयार नहीं थे कि गौरेया की संख्या कम हो रही है.’

उन्होंने 2012 में दिल्ली सरकार के साथ मिलकर राइज़ ऑफ स्पैरो अभियान चलाया. 2008 में दिलावर को टाइम मैगजीन ने हीरोज़ ऑफ द एनवायरमेंट में शामिल किए गए 30 नामों में हिस्सा बनाया गया.

Wooden nests have been installed on trees for the sparrows | Photo: Krishan Murari | ThePrint
गौरेया ग्राम में पेड़ पर टंगे गौरेया के लिए घोंसले | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

लेकिन गौरेया का हमारे बीच से गायब होना सिर्फ भारत की घटना नहीं है बल्कि लंदन, उत्तरी अमेरिका और यूरोप में भी यही स्थिति है. लेकिन अब इस नन्ही चिड़ियों के प्रति लोग ज्यादा सजग और जागरूक हैं.

दिलावर ने काफी मेहनत के जरिए दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का 2010 में ध्यान आकर्षित किया. उन्होंने मुख्यमंत्री दीक्षित से कहा कि वे 20 मार्च को विश्व गौरेया दिवस मनाए जिस पर वह मान गईं और 2010 में पहली बार मुख्यमंत्री आवास पर यह मनाया गया.

दिलावर ने कहा कि शीला दीक्षित गौरैया से बहुत प्यार करती थीं, इसलिए उन्होंने खुद मोतीलाल नेहरू मार्ग स्थित अपने सरकारी आवास पर इस नन्हीं चिड़िया के लिए घोंसले बनवाए और राज्य में अपने घर से इसका संरक्षण शुरू किया.

दिलावर बताते हैं, ‘वह गौरैया के प्रति बहुत भावुक थीं और हमारे सबसे मजबूत गौरैया समर्थकों में से एक थीं. यह हमारे शुरुआती चरण में बहुत मददगार साबित हुआ. इस पक्षी को दिल्ली का राजकीय पक्षी घोषित करने में हमें एक वर्ष से अधिक का समय लग गया. गौरैया के लिए उनके सच्चे प्यार और चिंता ने इसे संभव बना दिया.’

2012 में स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राइज़ ऑफ स्पैरो अभियान की शुरुआत हुई और गौरेया को राजकीय पक्षी घोषित किया गया.

सफर यहीं खत्म नहीं होता. 2010 में भारतीय डाक विभाग ने भी गौरेया को अपनी डाक टिकट पर विशेष जगह दी.

एनएफएस ने गौरेया के संरक्षण को लेकर तत्कालीन सरकार को भी कुछ सुझाव दिए थे जिसमें सभी सरकारी और कार्पोरेट परिसरों में एक्जोटिक पौधों का इस्तेमाल न करने को कहा गया. लेकिन इन सुझावों को लागू नहीं किया गया. 2013 के आसपास राज्य में सरकार बदलने के बाद गौरेया को बचाने के सारे प्रयास लगभग पटरी से उतर गए.

लेकिन 2020 में कोविड महामारी ने काफी कुछ बदल दिया. वन विभाग ने बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) से गौरेया ग्राम विकसित करने के लिए संपर्क किया. सोहेल मदान बताते हैं, ‘यह पूरा प्रोजेक्ट कोविड के दौरान शुरू हुआ. सरकारी अधिकारियों का इस ओर काफी सकारात्मक रुख था. गौरेया ग्राम को विकसित करने से पहले इसे लेकर काफी बैठकें हुईं.’


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गौरेया की संख्या पता लगाने के लिए सर्वे की जरूरत

गौरेया फिर से लोगों के बीच लौटे, इसकी लंबे समय से उम्मीद की जा रही है. दिल्ली का राजकीय पक्षी बनने के दस साल बाद भारत के कुछ शहरों में इसकी संख्या बढ़ी है.

इस साल की शुरुआत में, मार्च महीने में, सलेम ऑर्निथोलॉजिकल फाउंडेशन ने एक राज्यव्यापी सर्वेक्षण करने के बाद घोषणा की कि तमिलनाडु में गौरैया की आबादी अब स्थिर है. दिल्ली में भी, पक्षियों के जानकारों का कहना है कि वे शहर में अधिक गौरैया देख रहे हैं, हालांकि अभी सर्वेक्षण किया जाना बाकी है.

दिल्ली के एक वन अधिकारी ने बताया कि गौरैया की संख्या की गणना के लिए एक बेसलाइन सर्वेक्षण निर्धारित किया गया था, लेकिन सितंबर में अप्रत्याशित बाढ़ के कारण यह नहीं हो पाया. लेकिन अगले साल तक, संरक्षण प्रयासों के नतीजों को देखने के लिए गणना की जाएगी.

यह दिखाता है कि जमीनी स्तर पर किए जा रहे संरक्षण के प्रयासों का असर दिख रहा है.

दिलावर कहते हैं, ‘हमने लोगों को घोंसले और बर्ड फीडर्स अपनाने के लिए जोर दिया जिससे उनका गौरेया के साथ एक दिल का रिश्ता बन गया, जो कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है.’

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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