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Friday, 22 November, 2024
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उत्तर भारत में पेरियार मेला पर भारी पड़ा रामायण मेला, ललई सिंह यादव इसलिए नहीं बन पाए नायक

पेरियार की विचार यात्रा को जिन बड़े अध्यायों में बांटा जा सकता है, वे हैं – संविधान के दायरे में राज्यों की स्वायत्तता, केंद्र की सत्ता में उस समय मौजूद कांग्रेस का विरोध, हिंदी भाषा को जबरन थोपे जाने का विरोध, जाति मुक्ति के सवाल और ब्राह्मणवाद का विरोध, सामाजिक न्याय और आरक्षण तथा महिला अधिकार.

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ललई सिंह ने पेरियार की लिखी चर्चित किताब रामायणए ट्रू रीडिंग को हिंदी में सच्ची रामायण नाम से प्रकाशित किया. ये किताब प्रतिबंधित हुई तो सुप्रीम कोर्ट तक में केस लड़ा और जीता. वे प्रखर आंबेडकरवादी थे, आरपीआई से भी जुड़े रहे और बौद्ध धर्म भी स्वीकार किया. सामाजिक चेतना के लिए उन्होंने प्रचुर बौद्धिक काम किया. लेकिन उन्हें वह प्रसिद्धि और वह सम्मान नहीं मिल पाया, जिसके वे हकदार थे. बात यहीं तक नहीं है. उनके वैचारिक गुरु पेरियार भी तमिलनाडु और दक्षिण भारत की सीमा पार कर कभी उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत में जम नहीं पाए.

मेरी व्याख्या ये है कि उत्तर भारत में 60 के दशक में लोहिया समेत समाजवादी रामायण मेला लगा रहे थे और जनता की चेतना उच्च करने की जगह खुद जनता के स्तर पर उतर गए थे. इसके बाद के दशक में मान्यवर कांशीराम पेरियार मेला लगा रहे थे. बाद के दिनों में बीएसपी ने भी पेरियार मेला लगाना छोड़ दिया. कांग्रेस और बीजेपी की जाहिर है कि पेरियार में कोई दिलचस्पी नहीं थी. ऐसे में उत्तर भारत में पेरियार को आगे बढ़ाने वाली कोई राजनीतिक शक्ति नहीं बची. विचारों को आगे बढ़ाने के लिए जिस बुनियादी ढांचे की जरूरत होती है, वह पेरियार को उत्तर भारत में हासिल नहीं हुआ. इसका नुकसान ललई सिंह को भी उठाना पड़ा.

ललई सिंह (1911-1993) के बौद्धिक कार्य और लेखन का विस्तार इतना है कि शोधकर्ता धर्मवीर यादव गगन को उन कार्यों को संकलित करने में 7 साल लग गए. उनका लेखन पांच खंडों में ग्रंथावली की शक्ल में इसी साल छप कर आया है. इसमें उनके नाटक, लेख, पर्चे, संपादकीय आदि संकलित हैं.

ललई सिंह की अब तक की प्रसिद्धि सुप्रीम कोर्ट के उस केस के कारण ज्यादा है, जिसमें जस्टिस वी.आर. कृष्ण अय्यर, जस्टिस पीएन भगवती और जस्टिस सय्यद मुर्तजा फजल अली ने 26 सितंबर, 1976 को ये फैसला दिया कि पेरियार की हिंदी में अनुदित सच्ची रामायण को यूपी सरकार द्वारा जब्त किया जाना गलत है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यूपी सरकार की अपील ठुकरा दी.


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ये आश्चर्य की बात है कि ललई सिंह किस तरह पेरियार की रचनाओं तक न सिर्फ पहुंचे बल्कि उनमें इतना डूबे कि उनकी रचनाओं को हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने का कार्यभार चुना. कानपुर जिले के समृद्ध किसान परिवार में जन्मे ललई सिंह यादव ने 1935 में ग्वालियर नेशनल आर्मी में नौकरी पकड़ी और सेना में भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई. फिर वे आजादी की लड़ाई में भी कूदे और जेल में भी रहे. 1950 में उन्होंने फौज से छुट्टी ले ली. इसके बाद का उनका सारा जीवन आंबेडकर-पेरियारवादी आंदोलन के लिए समर्पित रहा.

इस क्रम में वे बाबा साहब आंबेडकर द्वारा स्थापित आरपीआई में शामिल हुए और लंबे समय तक उसके लिए काम किया. प्रकाशन में उनकी दिलचस्पी थी और वे लगातार छोटी पुस्तिकाओं के जरिए समाज के प्रबोधन के कार्य में लगे रहे. पेरियार के साथ ही उन्होंने बाबा साहब की रचनाओं को भी प्रकाशित किया. 1971 में उन्होंने बाबा साहब की पुस्तक एनिहिलेशन ऑफ कास्ट का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया. इस पुस्तक पर भी मुकदमा हुआ और हाईकोर्ट से उन्होंने केस जीता. उनकी लिखी, संपादित और संकलित कुल 30 किताबें हैं.

एक तरह से देखा जाए तो आरपीआई और ललई सिंह जैसे लोगों ने यूपी में वो जमीन तैयार की जिस पर आगे चल कर बामसेफ, डीएस4 और फिर बीएसपी आगे बढ़ी. हालांकि ललई सिंह के समय तक बीएसपी काफी असरदार हो चुकी थी, लेकिन तब तक उनकी खासी उम्र हो चुकी थी.

ये जानना दिलचस्प होगा कि बीएसपी ने ललई सिंह को नहीं अपनाया. यूपी की सरकारों ने उन्हें कभी महत्व नहीं दिया. ललई सिंह ही नहीं, उनके वैचारिक नेता और मार्गदर्शक पेरियार को लेकर भी यूपी की किसी सरकार में खास उत्साह नहीं रहा. बीएसपी बेशक अपने शुरुआती दिनों में पेरियार को अपने बैनर-पोस्टर और लेखकीय सामग्री में स्थान देती थी. शुरुआती दिनों में बीएसपी पेरियार मेला भी आयोजित करती थी, जिसमें तर्कवाद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सामाजिक न्याय आदि पर चर्चा होती थी.

लेकिन आगे चलकर जब बीएसपी ने बीजेपी के सहयोग से मिलकर सरकार बनाई तो पेरियार मेला आदि को लेकर बीजेपी ने असहमति जताई. बीएसपी का उत्साह भी पेरियार और पेरियार मेले को लेकर ठंडा पड़ा और कालांतर में ये मेला बंद ही हो गया. यही नहीं बीएसपी की योजना लखनऊ के आंबेडकर उद्यान में पेरियार की मूर्ति लगाने की थी. लेकिन बीजेपी ने विरोध किया तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने योजना स्थगित कर दी. उस समय मीडिया ने उनका ये बयान छापा था कि पेरियार दक्षिण भारत के समाज सुधारक थे. उनकी मूर्ति वहीं कहीं लगेगी.

पेरियार की विचार यात्रा को जिन बड़े अध्यायों में बांटा जा सकता है, वे हैं – संविधान के दायरे में राज्यों की स्वायत्तता, केंद्र की सत्ता में उस समय मौजूद कांग्रेस का विरोध, हिंदी भाषा को जबरन थोपे जाने का विरोध, जाति मुक्ति के सवाल और ब्राह्मणवाद का विरोध, सामाजिक न्याय और आरक्षण तथा महिला अधिकार.

उत्तर भारत का समाजवादी आंदोलन और बहुजन आंदोलन इन तमाम विचारों को लेकर चलने की स्थिति में नहीं था या फिर उसने इतना क्रांतिकारी होने से खुद को बचाए रखा. लोहिया और उनके समय के अन्य समाजवादियों के लिए कांग्रेस विरोध और आरक्षण सबसे महत्वपूर्ण वैचारिक आधार थे.

इस क्रम में उन्होंने उन सामाजिक समूहों को समेटने की कोशिश की, जिनको कांग्रेस में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला था, या जो कांग्रेस से असंतुष्ट होकर अपनी राजनीति अलग करना चाहते थे. इस क्रम में समाजवादियों को किसान और पिछड़ी जातियों में संभावना नजर आई. इस तरह से देखा जाए तो समाजवादी आंदोलन के लिए पिछड़ी जातियों को साथ लेना सैद्धांतिक नहीं, कांग्रेस से लड़ने की रणनीति के तहत था. समाजवादियों में पेरियार की तरह मुक्ति और तरक्की तथा समानता के सवाल कभी महत्वपूर्ण नहीं थे.

बीएसपी के बारे में जैसा कि पहले ही इस लेख में लिखा गया है कि ये पार्टी पेरियार के विचारों के काफी करीब थी, लेकिन कालांतर में राजनीतिक परिस्थितियों और गठबंधन की मजबूरियों के कारण पेरियार से बीएसपी की दूरी बन गई. सर्वजन राजनीति और भाईचारा सम्मेलन के साथ पेरियार की संगति बैठा पाना आसान नहीं था. बीएसपी ने इसकी कोशिश भी नहीं की.

पेरियार की क्रांतिकारिता के लिए उत्तर भारत का समाज शायद तैयार भी नहीं था. यहां राजनीति करने वालों को समझ में आया कि ईश्वर से लड़कर तमिलनाडु में पेरियार चल सकते हैं और द्रमुक और अन्नाद्रमुक की सरकारें बन और चल सकती हैं, लेकिन उत्तर भारत में ये संभव नहीं है. हालांकि ईश्वर के आगे जिस तरह से उत्तर भारत के नेताओं ने घुटने टेक दिए, उसका कोई कारण नहीं था. इस आत्मसमर्पण का उन्हें अब कोई फायदा भी नहीं है. ये अब बीजेपी की जमीन बन चुकी है.

साथ ही एक समस्या ये हुई कि पेरियार चूंकि वर्चस्ववाद के खिलाफ थे, इसलिए तमिलनाडु में वे तमिल भाषा, संस्कृति की रक्षा के लिए केंद्र सरकार से संघर्ष कर रहे थे. वे इसी वजह से कांग्रेस से भी लड़ रहे थे. उत्तर भारत में मीडिया ने पेरियार की छवि हिंदी विरोधी, केंद्र विरोधी और उत्तर भारत विरोधी की बनाई. पेरियार के पास वह ढांचा नहीं था, जिसके आधार पर वे उस दुष्प्रचार का विरोध कर पाते. साथ ही उत्तर भारत में इंग्लिश शिक्षित ओबीसी का बड़ा मध्यम वर्ग भी तब तक तैयार नहीं हो पाया था, जो पेरियार के विचारों का वाहक बनता. समाजवादी तो उस समय अंग्रेजी हटाकर हिंदी लाने का आंदोलन चला रहे थे.

इन परिस्थितियों में पेरियार को उत्तर भारत में जगह नहीं मिल पाई. इसका खामियाजा ललई सिंह को भी उठाना पड़ा. उम्मीद है कि धर्मवीर यादव गगन द्वारा ललई सिंह ग्रंथावली का संकलन किए जाने के बाद ललई सिंह को लेकर उत्तर भारत में नए सिरे से जानने की इच्छा पैदा होगी और इसका असर सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं पर भी पड़ेगा.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और मीडिया व सोशियॉलजी पर किताब लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

संपादन: इन्द्रजीत


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