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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतआज के नेता नहीं समझते कि भारत में एक ही विचारधारा नहीं चली, चाहे सावरकर की हो या नेहरू या नेताजी की

आज के नेता नहीं समझते कि भारत में एक ही विचारधारा नहीं चली, चाहे सावरकर की हो या नेहरू या नेताजी की

वह युग बीत गया है जब पुरानी पीढ़ी के नेता समझते थे कि हमारे देश में कई विचारधाराएं चलती हैं और वे सब सम्मान के काबिल हैं. आप किसी के विचार से सहमत न हों तो इसका मतलब यह नहीं होता कि आप उसे बदनाम करें.

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वीर विनायक दामोदर सावरकर कितने वीर थे? राहुल गांधी के मुताबिक तो वे कतई वीर नहीं थे, बल्कि वास्तव में उनमें तो साहस की कमी थी. सावरकर के गृह राज्य महाराष्ट्र में राहुल ने बिना किसी उकसावे या प्रासंगिकता के सावरकर पर हमला करके हंगामे को दावत दे दी. उन्होंने जो कुछ कहा उसमें कुछ भी नया नहीं था. यह विवाद से परे है कि अंग्रेजी हुकूमत ने सावरकर को अंडमान की जेल में बंद कर दिया था तब उन्होंने सरकार को कई दया याचिकाएं और माफीनामे भेजे थे. न ही यह झूठ है कि उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को जो पत्र लिखे उनमें ‘आपका आज्ञाकारी दास’ के दस्तखत किए.

तो फिर सावरकर के ही राज्य में इन सबकी फिर से याद दिलाने की जरूरत क्या थी? यह स्पष्ट नहीं है लेकिन राहुल ने जो संकेत किया कि सावरकर अंग्रेजों के प्यादे थे उसका उनके पत्रों और कार्यों से कोई संदर्भ नहीं बनता.

बेशक उन्होंने अपने पत्र ‘आपका आज्ञाकारी दास’ के दस्तखत से लिखे, लेकिन पत्रों को इस मुहावरे से समाप्त करना उस जमाने में काफी प्रचलित था. इसका अर्थ यह नहीं है कि सावरकर ने अंग्रेजों से यह कहा कि वे उनके ‘नौकर’ हैं, जैसा कि राहुल ने हिंदी में दिए अपने बयान में संकेत किया है.

आज इसके समानांतर उस पत्र को लिया जा सकता है जिसका अंत ‘आपका विश्वासपात्र’ से किया गया हो, और दावा किया जाए कि इसका अर्थ यह है कि पत्र लेखक सदा वफादार रहने की कसम खा रहा है. जहां तक दया याचिकाओं और माफ़ीनामों की बात है तो वे निश्चित ही शून्य में नहीं पैदा हुए थे.

सावरकर को जेल में अमानवीय स्थितियों में रखा गया था और घोर यातनाएं दी गई थीं. वैसे हालात में किसी का भी संकल्प टूट सकता था. उस यातना से मुक्ति पाने के लिए कई लोग कुछ भी लिख सकते थे. इसलिए, हां सावरकर ने अंग्रेजों से माफी जरूर मांगी लेकिन जिन हालात में माफी मांगी उनका ख्याल क्या हम नहीं रखेंगे?


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इतिहास के राजनेताओं के बारे में आग्रह

राहुल की सावरकर-निंदा पर आम प्रतिक्रिया यही है कि यह बिना किसी उकसावे के किया गया, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी. इसने महाराष्ट्र में कांग्रेस की सहयोगी शिवसेना को परेशान किया (वैसे, राहुल शिवसेना से गठजोड़ करने को बहुत उत्सुक नहीं थी और उन्हें अपने सहयोगियों को परेशान करने में कोई दिक्कत नहीं होती). इसने भाजपा को एक मुद्दा थमा दिया, और वह इसे बार-बार उछाल भी रही है.

सावरकर पर राहुल के हमले को लेकर मेरी आपत्ति अलग है, और वह राजनीतिक लाभ पर आधारित नहीं है. मेरा मुद्दा यह है कि आज 21वीं सदी में हम ऐतिहासिक हस्तियों को लेकर इतना आग्रह क्यों पालते हैं? सावरकर को अंडमान जेल से 1924 में रिहा किया गया. क्या यह विचित्र बात नहीं है कि इसके करीब एक सदी बाद हम उनकी रिहाई की परिस्थितियों को आज राजनीतिक मुद्दा बना रहे हैं?

राहुल ने सावरकर की जो आलोचना की है वह हमारी याद में सबसे ताजा है. लेकिन ‘आओ दिवंगतों को दोषी ठहराओ’ का राजनीतिक खेल सभी दलों के तमाम नेता खेलते रहे हैं. हाल में, केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने 1947 में कश्मीर को लेकर क्या हुआ था उसकी अपनी व्याख्या पेश की. उनका मूल तर्क यह था कि वह पूरी तरह से जवहरलाल नेहरू की गलती थी (वही क्यों, भाजपा के मुताबिक क्या नेहरू हर गलती के लिए जिम्मेदार नहीं थे?).

और, सावरकर पर राहुल के हमले के बाद भाजपा के आइटी सेल ने जैसे को तैसा किस्म का जवाब दिया. सेल के मुखिया ने यह संकेत किया कि जवाहरलाल को जेल से छुड़ाने के लिए मोतीलाल नेहरू को पहल करनी पड़ी थी क्योंकि ‘नेहरू एक कायर थे.’

यह सब निरंतर जारी है. महात्मा गांधी की निंदा और नाथूराम गोडसे का महिमा गान तो जारी है ही. भाजपा के एक सांसद ने तो गोडसे की प्रशंसा की ही है और गांधीजी के हत्यारे को सच्चा देशभक्त बताया है. हर साल गांधी जयंती पर सोशल मीडिया संघ परिवार के समर्थकों के हैंडल पर गांधी पर हमलों और गोडसे की करतूत के पक्ष में पोस्ट किए गए संदेशों से गरम हो जाता है.

सरदार पटेल को लेकर जारी ऊहापोह पर नज़र डालिए. गृह मंत्री रहते हुए उन्होंने आरएसएस पर रोक लगाई थी, इसके बावजूद वे संघ परिवार के हीरो हैं. संघ का मानना है कि अगर वे जीवित रहते (उनका निधन 1950 में हो गया), तो नेहरू पर अंकुश रखते. यहां तक कि पटेल नेहरू के विरोधी थे और उनकी विचारधारा संघ परिवार के मौजूदा दर्शन के अनुरूप थी.

मेरा अनुमान है कि पटेल जीवित रहते तब क्या होता यह कोई नहीं जान सकता लेकिन हालांकि वे कुछ मसलों पर नेहरू से मतभेद रखते थे मगर इसमें शक नहीं है कि वे दोनों एक-दूसरे के दुश्मन नहीं थे. उनमें करीबी संबंध था और उन्होंने साथ मिलकर काम किए.

और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में क्या कहा जाए, जिन्हें प्रायः एक महान नेता के रूप में पेश किया जाता है जिन्हें कुटिल नेहरू ने देश से बाहर कर दिया था? हकीकत यह है कि बोस ने अपनी आज़ाद हिंद फौज की ब्रिगेडों के नाम गांधी और नेहरू के नाम पर रखे थे (अफसोस कि सावरकर के नाम पर नहीं).


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झूठ का दौर

इस तरह की बकवास बार-बार क्यों उभरती है, इसकी दो वजहें हैं. पहली यह कि सोशल मीडिया अपना एक समानांतर सच गढ़ता है. अगर आप किसी ऐतिहासिक हस्ती के बारे में व्हाट्सएप पर फॉरवर्ड की गई कोई सूचना पढ़ें और तथ्यों की जांच करने की कोशिश करें (जो प्रायः लोग नहीं करते) तो संभावना यही है कि गूगल सर्च करने पर आपको किसी फर्जी वेबसाइट देखने के लिए कहा जाए और उस पर उन्हीं लोगों ने फर्जी इतिहास लिख रखा हो जिन लोगों ने फॉरवर्ड किया गया संदेश लिखा हो.

चूंकि आज किताबें पढ़ने की कोशिश कोई नहीं करता इसलिए इस तरह के गढ़े हुए इंटरनेट इतिहास को कोई चुनौती नहीं देता. इसका दोहरा असर पड़ता है. केवल हिंदुत्ववादी जमात ही इतिहास का पुनर्लेखन नहीं कर रहा है, कांग्रेस भी सावरकर जैसों को दानव रूप देने में लगी है. गूगल आपको ऐसी वेबसाइट तक भी पहुंचा देगा जिसमें सावरकर की दया याचिकाओं को बिना किसी संदर्भ के पेश किया गया हो.

हमारे नेता ऐसा क्यों करते हैं? वे वर्षों पहले दिवंगत हो चुकी हस्तियों की मानहानि करने में क्यों लगे हैं? मैं सोचता था कि नेहरू पर हमला करना भाजपा के लिए इसलिए जरूरी था क्योंकि इससे उनकी विरासत और उनके उत्तराधिकरियों की छवि खराब होती है. लेकिन आज जब कांग्रेस भारतीय राजनीति में बड़ी खिलाड़ी नहीं रह गई है तब भी उस पर और ज़ोर से हमला जारी है.

कांग्रेस के लिए इस तरह की गाली-गलौज कुछ नयी चीज है. मैं नहीं कह सकता कि इंदिरा गांधी वीर सावरकर की कोई बड़ी प्रशंसक थीं, लेकिन उन्हें गाली-गलौज में न पड़ना तर्कसंगत लगा था. सावरकर पर राहुल के हमले के बाद भाजपा ने हमें याद दिलाया कि 1980 में इंदिरा गांधी ने लिखा था कि ‘वीर सावरकर ने ब्रिटिश सरकार का जिस हिम्मत के साथ प्रतिकार किया उसका हमारे स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान है.’

उन्होंने सावरकर को ‘भारत की असाधारण संतान’ तक कहा. 1966 में जब वे प्रधानमंत्री थीं, तब सरकार ने सावरकर की याद में डाक टिकट जारी किया था और उन पर वृत्तचित्र बनाए जाने के लिए पैसे भी दिए थे.

ऐसा व्यवहार राजनीतिक विभाजन के दोनों पक्ष ने किया. अटल बिहारी वाजपेयी नेहरू के लिए अपनी प्रशंसा को कभी छिपाते नहीं थे, और 1977 में विदेश मंत्री बनने के बाद उन्होंने पाया कि सरकार बदलने के बाद विदेश मंत्रालय ने दफ्तर में नेहरू की तस्वीर हटा दी थी.

लेकिन वाजपेयी ने उसे फिर वहीं लगवा दिया. राजीव गांधी के प्रति सम्मान जाहिर करते हुए उन्होंने खुलासा किया था कि राजीव ने किस तरह उन्हें अमेरिका जा रहे प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर दिया था ताकि वे वहां जाकर अपना इलाज करवा सकें.

यहां तक कि सोनिया गांधी ने, जिन्हें उनकी सास की तुलना में कम स्वीकार्य किया जाता है, 2003 में सावरकर पर कोई हमला नहीं किया था जब उनकी तस्वीर संसद में लगाई गई थी. उन्होंने सिर्फ इतना किया था कि चित्र के अनावरण के मौके पर शामिल नहीं हुई थीं.

वह युग बीत गया है. पुरानी पीढ़ी के नेता समझते थे कि हमारे देश में कई विचारधाराएं चलती हैं और वे सब सम्मान के काबिल हैं. आप किसी के विचार से सहमत न हों तो इसका मतलब यह नहीं होता कि आप उसे बदनाम करें और उसकी मृत्यु के बाद दशकों तक उसे गाली देते रहें.

भारत न तो किसी व्यक्ति की बपौती है और न किसी एक विचारधारा की. हर कोई अपना योगदान देता है. हम चाहें उनके योगदान को कबूल न करें या हरेक ऐतिहासिक हस्ती के विचारों से सहमत न हों, लेकिन इतिहास की खातिर हमें देश के लिए काम करने वाले हर व्यक्ति का सम्मान करना ही चाहिए.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: अशोक कुमार)
(संपादन: अलमिना खातून)


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