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Friday, 22 November, 2024
होमदेशफीस वृद्धि से लेकर ‘डोनेशन’ तक- कैसे पढ़ाई में ‘मुनाफाखोरी’ को लेकर अदालतें फटकार लगा रही हैं

फीस वृद्धि से लेकर ‘डोनेशन’ तक- कैसे पढ़ाई में ‘मुनाफाखोरी’ को लेकर अदालतें फटकार लगा रही हैं

पिछले दो माह के दौरान आए फैसलों में जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शिक्षा ‘बिजनेस, ट्रेड या कॉमर्स’ नहीं है, वहीं मद्रास हाईकोर्ट ने कैपिटेशन फीस, या डोनेशन को ‘अवैध’ करार दिया.

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नई दिल्ली: पिछले कुछ महीनों में स्कूल फीस में भारी-भरकम वृद्धि से लेकर एडमिशन के लिए ‘डोनेशन’ वसूलने तक के मामलों को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के तीन फैसलों में उन शिक्षण संस्थानों को जमकर फटकार लगाई गई है जो ‘शिक्षा को एक व्यवसाय’ बनाकर इससे मुनाफा कमाने में जुटे हैं.

सबसे ताजा मामला 7 नवंबर का है जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्यूशन फीस हमेशा ‘सस्ती’ होनी चाहिए और शिक्षा ‘मुनाफा कमाने वाला कोई व्यवसाय नहीं’ है.

सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ 2021 में एक निजी मेडिकल कॉलेज की तरफ से दायर याचिका को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की, जिसने राज्य में एमबीबीएस छात्रों के लिए वार्षिक फीस बढ़ाकर 24 लाख रुपये प्रति वर्ष करने के राज्य सरकार के आदेश को रद्द कर दिया था.

फैसले में कहा गया है कि आंध्र प्रदेश सरकार ने 2017 में निजी मेडिकल कॉलेजों के आग्रह पर एमबीबीएस की फीस ‘मनमाने’ ढंग से सात गुना बढ़ा दी थी.

शीर्ष कोर्ट का फैसला उसके 2002 के ऐतिहासिक टी.एम.ए. पाई जजमेंट की अगली कड़ी है. उस फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने फीस पर निर्णय लेने सहित प्रबंधन और प्रशासन से जुड़े मुद्दों में निजी संस्थानों की स्वायत्तता को बरकरार रखा था, लेकिन यह भी कहा था कि शिक्षा एक ‘व्यवसाय’ नहीं हो सकती.

2002 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘(गैर-सहायता प्राप्त निजी संस्थान के) प्रशासन के संबंध में प्रबंधन के पास अधिकतम स्वायत्तता होनी चाहिए, जिसमें नियुक्ति का अधिकार, अनुशासनात्मक शक्तियां, छात्रों का एडमिशन और उनसे ली जाने वाली फीस आदि शामिल है.’ इसमें आगे कहा गया था, ‘गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों में वसूली जानी फीस को रेग्युलेट नहीं किया जा सकता, लेकिन किसी भी संस्थान को कैपिटेशन शुल्क नहीं लेना चाहिए.’

पिछले महीने ही, सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में ‘लाभकारी’ शैक्षणिक संस्थानों के खिलाफ फैसला सुनाया था, जिन्होंने खुद को ‘धर्मार्थ संस्थानों’ के तौर पर पेश करते हुए आयकर भुगतान से छूट मांगी थी.

शीर्ष कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि धर्मार्थ शैक्षणिक संस्थान इस तरह की छूट का दावा तभी कर सकते हैं जब वे पूरी तरह से शिक्षा या शिक्षा-संबंधी गतिविधियों से जुड़े हों और किसी भी व्यावसायिक या लाभकारी गतिविधि में शामिल न हों.

इस बीच, मद्रास हाई कोर्ट ने कैपिटेशन फीस—जो निर्धारित शुल्क से इतर वसूली जाने वाली राशि, जैसे ‘डोनेशन’ होती है—लेने को अवैध और दंडनीय करार दिया है.

31 अक्टूबर को सुनाए 124 पन्नों के फैसले में हाई कोर्ट ने शिक्षा के व्यावसायीकरण पर नाराजगी जताई और कहा कि माता-पिता की ‘बच्चों के माध्यम से अपने सपनों को पूरा करने के लिए’ अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करने की इच्छा का फायदा उठाते हुए कुछ शैक्षणिक संस्थानों ने ‘कभी पूजा की तरह मानी जाने वाली इस सेवा को एक बड़ा कारोबार और धन कमाने का जरिया बना लिया है.’

अदालत ने यह भी कहा कि यह सब तब जारी है जबकि सुप्रीम कोर्ट समेत तमाम अदालतों की तरफ से इसके खिलाफ दिशा-निर्देश जारी किए जाते रहे हैं.


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‘न बिजनेस, न ट्रेड या कॉमर्स’

2017 में आंध्र सरकार ने निजी मेडिकल कॉलेजों के लिए ट्यूशन फीस बढ़ाकर 24 लाख रुपये प्रति वर्ष कर दी थी, जो 2011-12 से 2013-14 तक निर्धारित फीस से लगभग सात गुना थी.

इस फीस वृद्धि पर रोक लगाने के आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसी माह अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि शिक्षा लाभ कमाने वाला व्यवसाय नहीं है और ट्यूशन फीस सस्ती होनी चाहिए.

शीर्ष कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने निजी कॉलेजों के आग्रह के आधार पर ही शिक्षण शुल्क बढ़ाया था, जो ‘पूरी तरह अनुचित और मनमाना’ था. इसमें कहा गया है कि यह फैसला केवल कॉलेजों के ‘हित में या उन्हें उपकृत करने’ के लिए किया गया था.

फैसले के मुताबिक, राज्य सरकार ने फीस बढ़ाने का आदेश प्रवेश एवं शुल्क नियामक समिति की सिफारिशों का इंतजार किए बिना ही जारी कर दिया था, जबकि आंध्र प्रदेश प्रवेश एवं शुल्क नियामक समिति (निजी गैर-सहायता प्राप्त व्यावसायिक संस्थानों के व्यावसायिक पाठ्यक्रमों से संबंधित) नियम 2006, के नियम 4 के तहत ऐसा करना अनिवार्य है.

पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट की एक और बेंच, जिसमें तत्कालीन चीफ जस्टिस यू.यू. ललित, जस्टिस एस. रवींद्र भट और जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा शामिल ने थे, ने जोर देकर कहा था कि संविधान शिक्षा को दान के बराबर मानता है.

पीठ का कहना था, ‘हमारा संविधान एक ऐसे मूल्यों को दर्शाता है जिसमें शिक्षा को दान के बराबर माना गया है. इसे न तो व्यवसाय माना जा सकता है, न कारोबार या वाणिज्य माना जाना चाहिए, और यह अदालत भी इसी बात को मानती है.’

शीर्ष कोर्ट आयकर अधिनियम की धारा 10 (23सी) की व्याख्या कर रही थी, जो किसी यूनिवर्सिटी या अन्य शैक्षणिक संस्थान की ओर से प्राप्त किसी भी आय पर कराधान से छूट देती है, जो कि केवल शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए हो, न कि लाभ कमाने के लिए. शीर्ष कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि लाभकारी शैक्षिक ट्रस्ट आयकर से छूट का दावा नहीं कर सकते.

कैपिटेशन फीस पर नहीं लगी ‘लगाम’

मद्रास हाई कोर्ट ने पिछले महीने कॉलेजों में प्रवेश के नाम पर डोनेशन या कैपिटेशन फीस से जुड़े मुद्दे पर एक मामले में अपना फैसला सुनाया और इन्हें अवैध और दंडनीय करार दिया.

फैसले में कहा गया, ‘निर्धारित फीस से इतर प्रत्यक्ष या परोक्ष से वसूली गई किसी भी राशि कैपिटेशन को फीस माना जाएगा, चाहे वह स्वैच्छिक योगदान या डोनेशन ही क्यों न हो.’

अदालत ने कहा कि राज्य सभी को शिक्षा मुहैया कराने के प्रयासों और समाज के सभी वर्गों को समान अवसर प्रदान करने के लिए ‘संविधान में निहित निर्देशों’ का पालन करने में विफल रहे हैं.

हाई कोर्ट ने आगे पाया कि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट सहित विभिन्न अदालतों की ‘सख्ती’ के बावजूद, ‘कैपिटेशन फीस खत्म होना तो दूर इसमें किसी तरह की कमी भी नहीं आई है.’

कोर्ट ने सरकारी स्कूलों की छवि खराब होने को इसके पीछे सबसे बड़ी वजह बताते हुए कहा कि ‘माता-पिता अपने बच्चों को अन्य देशों की तरह यहां पब्लिक स्कूलों में भेजने के अनिच्छुक रहते हैं.’ साथ ही उच्च शिक्षा पर वर्ष 2019-20 के लिए शिक्षा मंत्रालय की अखिल भारतीय सर्वेक्षण का हवाला देते हुए जोड़ा कि 78.6 प्रतिशत कॉलेज निजी तौर पर प्रबंधित हैं.

शिक्षा के निजीकरण को निजी क्षेत्र की तरफ से ‘शोषण’ और ‘व्यवसायीकरण’ करार देते हुए कोर्ट ने कहा कि राज्य एक ‘मूक दर्शक’ बनकर नहीं रह सकता है.

कोर्ट ने कहा, ‘(इसमें) कोई दो-राय नहीं है कि शिक्षा कभी भी वाणिज्यिक गतिविधि या कोई कारोबार या व्यवसाय नहीं हो सकती और शिक्षा के क्षेत्र में इस मार्गदर्शक सिद्धांत का समान रूप से और लगातार पालन करना होगा.’

मद्रास हाईकोर्ट ने अपने आदेश ने 2020 के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज मामले में सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी का भी हवाला दिया, जिसमें उसने दो-टूक कहा था कि शिक्षा से जुड़ी गतिविधि न तो व्यापार है और न ही पेशा, जिसका सीधा मतलब है कि शिक्षा के ‘व्यावसायीकरण और इससे मुनाफा कमाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है.’

इसी राय को आगे बढ़ाते हुए मद्रास हाई कोर्ट ने कहा कि शिक्षा एक ‘कल्याणकारी गतिविधि’ है जिसका उद्देश्य ‘सामाजिक परिवर्तन लाना रहा है और इसे विशुद्ध रूप से आर्थिक उद्यम नहीं माना जा सकता. इसी को आधार बनाते हुए कोर्ट ने कहा कि ‘आम जनता के हितों में ध्यान में रखकर ही वह उचित प्रतिबंध लागू करने के पक्ष में है.’

(अनुवाद: रावी द्विवेदी)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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