अहमदाबाद के पुराने इलाके दानी लिमडा में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के गढ़ में तभी अपना कार्यालय खोल लिया था जब कांग्रेस ने अपना चुनावी अभियान शुरू भी नहीं किया था. वहां रऊफ़ भाई हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. उनकी ख़्वाहिश सिर्फ इतनी है कि इस चुनावी सीजन में कुछ पैसा कमा लें. वे कार्यालय को साफ-सुथरा रखते हैं और लोगों को चाय-कॉफी पिलाते हैं. इस रिपोर्टर ने उनसे पूछा, ‘क्या अहमदाबाद के शहरी मुस्लिम वोटर यहां चुनाव मैदान में उतरी नयी पार्टी ‘आप’ को वोट देंगे?’
रऊफ़ भाई ने अपने समुदाय की दुविधा को जाहिर करते हुए कहा, ‘भारत के लोग अपनी पार्टी और उम्मीदवारों को जिताने के लिए वोट देते हैं. लेकिन गुजराती मुसलमान हारने के लिए वोट देता है. पिछले छ: चुनावों से हम देख रहे हैं कि हमारे उम्मीदवार की पार्टी, कांग्रेस हार रही है.’
कई मुसलमान मतदाताओं को पता है कि उनका वोट न तो भाजपा को हराने में काम आता है और न कांग्रेस की कोई मदद करता है. रऊफ़ भाई मुझसे पूछते हैं, ‘क्या ‘आप’ भाजपा को हरा सकेगी?’ फिर वे सावधानी बरतते हुए कहते हैं, ‘कोंगरे को हम लोग जानते हैं. कांग्रेस ने दागो शुन काम देवानो? आप ही बताएं, कांग्रेस को हम धोखा क्यों दें?’
मैदान-ए-जंग, यानी गुजरात के विधानसभा चुनाव के साथ सवाल ही सवाल जुड़े हैं.
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दो रुझानों से है मोदी का सामना
गुजरात से आठ साल से बाहर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘गुजरात नो नाथ’ हैं. गुजराती वोटरों में उनकी जगह सुरक्षित है. लेकिन पहली बार, इस चुनाव में उन्हें अपने और अपनी पार्टी के खिलाफ दो रुझानों का सामना करना पड़ रहा है. गुजराती समाज के अंदर राजनीतिक मामलों को लेकर पीढ़ियों के बीच गंभीर खाई है.
मोदी के प्रति इज्जत, अब तक की भाजपा सरकारों की ‘हर कीमत पर काम करने’ की प्रवृत्ति को लेकर भाजपा के प्रति राजनीतिक समर्थन और प्रशंसा भाव का स्तर युवाओं और बुजुर्गों में अलग-अलग है. बुजुर्गों के मुकाबले युवा पीढ़ी इस पार्टी के प्रति कम सम्मोहित है, हालांकि वह मोदी का समर्थन करती है. इस युवा पीढ़ी ने किसी और पार्टी का शासन नहीं देखा है इसलिए उसके पास तुलना करने का कोई पैमाना नहीं है. इन दिनों, युवा मोदी शासन के ‘रिमोट कंट्रोल’ पर सवाल उठा रहे हैं, खासकर गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र के युवा. लेकिन शहरी इलाकों में भाजपा के वफादार वोटर आज भी यही मानते हैं कि ‘मोदी और उनकी पार्टी की सरकार समाज को सुरक्षा देती है’.
मोदी के नेतृत्व को स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था की कमज़ोरी और सभी स्तर पर बढ़ते भ्रष्टाचार को लेकर भी सवालों का सामना करना पड़ रहा है. मोरबी पुल हादसा प्रशासनिक कुशलता में गिरावट का ही प्रमाण है. इन मामलों की गूंज अरविंद केजरीवाल की बेहद आक्रामक सियासत में सुनाई देती है. प्रधानमंत्री होने के कारण मोदी को सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की गैरहाजिरी, या ग्रामीण स्कूलों के प्रशासन में गड़बड़ियों के लिए सीधे जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन मतदाता वोट तो सीधे उनको ही देते हैं और मोदी ने हाल में उनसे अपने नाम पर वोट मांगा भी है.
यह ऐसी स्थिति है जिसमें किसी को जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता. भाजपा की सरकार के खिलाफ असंतोष जो दिख रहा है वह युवा मतदाताओं के कारण है, जिन्होंने मोदी के नाम पर वोट तब नहीं दिया था जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
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भाजपा के दांव
सितंबर 2021 में मोदी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और उनके पूरे मंत्रिमंडल को इस्तीफा देने के लिए कहा. पीछे मुड़कर देखने पर यह कदम त्राण दिलाने वाला लगता है. पुराने, थके हुए चेहरों के साथ आज चुनाव अभियान चलाना मुश्किल होता. उनमें से कुछ तो भ्रष्ट भी थे. भाजपा की सबसे बड़ी ताकत यह रही है कि उसमें व्यक्ति को कम महत्व दिया जाता रहा है, और मतदान केंद्रों तक को समेटने वाला विशाल संगठन ही चमत्कार करता रहा है. अगर भाजपा यह चुनाव जीत जाती है तो यह मुख्यतः उसके काडर और नेटवर्किंग के कारण होगा जिसका एकमात्र लक्ष्य मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक लाना होता है.
मुकाबला चूंकि तिकोना है, भाजपा को यह व्यवस्था करनी होगी कि मतदान ज्यादा से ज्यादा हो. संसाधन और पैसे के रूप में लालच इस मशीनरी को चलाता है. गुजरात में बाकी पार्टियों की तरह भाजपा भी बंटी हुई है. कई चुनाव क्षेत्रों में भाजपा के उम्मीदवारों को कांग्रेस या ‘आप’ से ज्यादा अपनी पार्टी के बागियों से डरने की जरूरत है. लेकिन पेशेवर कॉर्पोरेट घराने की तरह भाजपा प्रशासन भी राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद अपना काम करता रहता है. यह चुनाव इसलिए कठिन हो गया है क्योंकि ‘आप’ भी इसमें कूद गई है और वह भाजपा की नेटवर्किंग की नकल कर रही है. भाजपा के कई कार्यकर्ताओं ने मुझसे कहा कि 2027 तक ‘आप’ अपना नेटवर्क तैयार कर लेगी.
भाजपा के वफ़ादारों का दावा है कि गुजरात के मतदाताओं के सामने ‘दूसरा कोई बेहतर और ताकतवर विकल्प नहीं है’. इसलिए उसे सत्ता में आने के बाद इस सातवें चुनाव में अपने ठोस मतदाताओं के वोट तो मिलेंगे ही. लेकिन कुल 182 में से 60 सीटों पर, जिनमें उसकी जीत का अंतर सिकुड़ता गया है, ‘भाजपा का विकल्प बहुत अच्छा नहीं है’ वाला तर्क नहीं चलेगा. तीन या उससे ज्यादा मजबूत उम्मीदवारों और कई अन्य कारणों (जिनमें सौराष्ट्र और जनजातीय इलाकों के सुस्त विकास शामिल है), से भाजपा उम्मीदवारों को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी और अंतिम वोट गिने जाने तक अपनी सांस रोके रखना पड़ेगा. वैसे, हिंदू पहचान का मुद्दा वे भुना सकते हैं. मतदाता स्थिरता और सुरक्षा चाहते हैं, और यह उन्हें भाजपा के साथ जोड़े रखता है. आज भी.
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कांग्रेस ज्यादा ही आलसी है
गुजरात की कांग्रेस आपराधिक रूप से सुस्त है. उसके वफादार वोटर हैं लेकिन उसके नेता थके हुए हैं और आपस में लड़ भी रहे हैं. राज्य में 15 सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा को कभी जीत नहीं हासिल हुई, भले ही मोदी ने गुजरात पर जादू चला रखा हो. लेकिन कांग्रेस नेता मानते हैं कि वे वोटर तो उनके पक्के हैं ही. 31 सीटें ऐसी हैं जहां भाजपा 1998 के बाद से चुनाव नहीं हारी है. लेकिन, जैसी कि एक मीडिया रिपोर्ट कहती है, अहमदाबाद में भाजपा के गढ़ नारनपुरा सीट के लिए किसी कांग्रेसी नेता ने टिकट की मांग नहीं की है जबकि नामांकन पत्र दाखिल करने के लिए दो ही दिन बचे हैं. और भाजपा में 56 से ज्यादा अर्ज़ियां दी गई हैं. अंतिम क्षण में कांग्रेस ने एक कार्यकर्ता पर दबाव डाल का आवेदन पत्र भरवाया.
इस चुनाव में कांग्रेस डरी हुई है. उसके मतदाताओं को करीब 35 सीटों पर ‘आप’ एक विकल्प दिख रही है. यह चुनाव कांग्रेस के भविष्य के लिए एक सवाल बन गया है. अगर ‘आप’ उसके वोटों को हड़प लेती है तो यह इस राज्य में उसके ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकती है. वैसे, उम्मीद है कि उसके मतदाता अपनी पार्टी की दुकान बंद नहीं होने देंगे.
बहरहाल, ‘आप’ को तो फायदा ही होने वाला है. लेकिन अरविंद केजरीवाल के आलोचक कहते हैं, ‘खाली चनो वाजे घनों’, जो कि उसके शोरशराबे और प्रचार की ओर इशारा है, जो गुजरात के मूल्यों से कटा हुआ है. अगर यह कांग्रेस या भाजपा या दोनों के वोट तोड़ लेती है तो वे केवल इन दो पार्टियों के खिलाफ ‘नकारात्मक वोट’ ही होंगे.
(शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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