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Tuesday, 19 November, 2024
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1962 में नेहरू की गलती यह थी की वह ‘बल-कूटनीति’ संबंध को नहीं समझ पाए

विदेश नीति में शायद कामयाबियों के मुकाबले नाकामियों का अध्ययन ज्यादा अहम होता है, क्योंकि नतीजे काफी बड़े होते हैं. इसलिए 1962 के युद्ध के कई सबक हैं, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने तब थे.

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विदेश नीति में शायद कामयाबियों के मुकाबले नाकामियों का अध्ययन ज्यादा अहम होता है, क्योंकि नतीजे काफी बड़े होते हैं. इसलिए 1962 के युद्ध के कई सबक हैं, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने तब थे.

लेकिन सबक पर गौर करने के पहले 1962 के युद्ध के कुछ मिथकों को तोड़ना जरूरी है, मसलन, वह ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ का परिणाम था. युद्ध के अधिकांश विवरणों में ब्रिटिश पत्रकार-विद्वान नेविल मैक्सवेल के निराधार आरोप का जिक्र होता है कि ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ की वजह से ‘बंदूकें लोड’ हो गईं और ‘सीमा को लेकर युद्ध’ भड़काने की वजह बनीं. जैसा के. सुब्रह्मण्यम ने मैक्सवेल की 1970 की किताब इंडियाज चाइना वॉर की अपनी समीक्षा में लिखा है, यह आरोप उस सबूत से भी नहीं मेल खाता है जो मैक्सवेल खुद पेश करते हैं, यह समस्या मैक्सवेल के पूरे काम में एक समान मिलती है.

नाम भले ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ रहा हो, मगर उसका मकसद चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को विवादित क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ने से रोकने के लिए भारतीय सेना की चौकियां स्थापित करना था, ताकि चीनी सेना आगे न बढ़ सके. यह एक मायने में चीनी सेना के तरीकों की नकल थी, क्योंकि चीन की सेना विवादित क्षेत्र में आगे बढ़कर उस क्षेत्र पर दावा करने लगती थी. बेशक, चीनी सेना की भरपूर तैयारी के विपरीत, भारत की अग्रिम चौकियां न अपना बचाव करने में पर्याप्त सक्षम थीं, या हमला होने पर किसी तरह मदद से भी महरूम थीं.

इसके अलावा, चीन भले ही ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ के मकसद से नावाकिफ रहा हो, लेकिन वह निश्चित रूप से यह जानता था कि भारतीय सेना पीएलए की बराबरी करने के काबिल नहीं थी. युद्ध माओ की रणनीति का हिस्सा था. युद्ध के लिए ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ को दोष देना भूल है जिससे विश्लेषकों और विद्वानों को बचना चाहिए क्योंकि इससे युद्ध के लिए चीन की जवाबदेही छुप जाती है.


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1962 की गलतियां

इसका मतलब यह नहीं है कि नेहरू बेकसूर थे. भारत की हार और उसके नतीजों के लिए ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ और मोटे तौर पर पिछले दशक की भारत की रणनीतिक और रक्षा नीतियां जिम्मेदार थीं. बुनियादी भूल नेहरू की रणनीति, कूटनीति और सेना के बीच संबंधों की उनकी समझ थी. उन्हें यकीन था कि युद्ध नहीं होगा क्योंकि भारत-चीन के बीच युद्ध से विश्व युद्ध छिड़ जाएगा. उस यकीन की वजह आज भी स्पष्ट नहीं है, और वह निश्चित रूप से भारी भूल साबित हुई, लेकिन युद्ध न होने के भरोसे की वजह से नेहरू ने ऐसी सैन्य रणनीति बनाई जो निराधार थी और भारत के लिए आपदा का कारण बनी.

एक समस्या 1950 के दशक में भारत का रक्षा खर्च भी था. उससे भी बड़ी समस्या यह थी कि ज्यादातर खर्च चीन के बजाय पाकिस्तान पर केंद्रित था. पाकिस्तान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था, लेकिन अपेक्षाकृत कमज़ोर खतरे के मद में इतना ध्यान देना नासमझी थी. आर्थिक क्षमता के मोटे पैमाने पर चीन 1962 में भारत से ज्यादा ताकतवर नहीं था, लेकिन उसकी सेना को युद्ध का अनुभव था जिसने कोरियाई युद्ध में दुनिया की सबसे मजबूत शक्ति के दांत खट्टे कर दिए थे. यह इकलौती वजह इस बात के लिए काफी थी कि उसके मुकाबले भारत की सैन्य योजनाओं पर ज्यादा गंभीर ध्यान दिया जाता. सबक सरल-सा है: अपने सबसे मजबूत पड़ोसियों की सैन्य ताकत पर फोकस करें क्योंकि वे ही आपको सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं.

इसी तरह, भारतीय नीति में हमेशा अपनी समस्याओं से निपटने के लिए बाहरी सैन्य साझीदारों की तलाश के बजाय अपने स्वयं के सैन्य संसाधनों का उपयोग करने पर जोर दिया गया है. यह बात आमतौर पर समझ भी आती है क्योंकि भारत अपने पड़ोसियों के मुकाबले काफी मजबूत शक्ति रहा है. हालांकि, 1962 और 1971 दोनों युद्धों के दौरान भारत में महसूस किया गया कि यह पर्याप्त नहीं था. 1962 के युद्ध में यह गलती भारत को महंगी पड़ी थी. एक दशक बाद, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जल्दबाज़ी में सोवियत संघ से संधि में करने में सक्षम हुई थीं, जिसे पूरी तरह आज़माया नहीं जा सका था क्योंकि भारत 1971 के बांग्लादेश युद्ध में बहुत कमज़ोर दुश्मन से मुकाबिल था.

नेहरू की चूक की वजह भारत की शक्ति को लेकर गलतफहमी थी. नेहरू ने मान लिया था कि भारत पर्याप्त ताकतवर और दूसरों के लिए इस कदर महत्वपूर्ण है कि उसे कोई नुकसान नहीं झेलना होगा. लेकिन भारत की शक्ति वास्तविक ताकत के बजाए अपनी ताकत के एहसास में था, जैसा आज भी है. यह स्पष्ट नहीं है कि नई दिल्ली ने अपनी महत्ता के एहसास से पूरी तरह छुटकारा पाया है, और अपनी सुरक्षा को मजबूत करने के आवश्यकता की ओर कदम बढ़ाया है या नहीं.


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साझेदारी के लिए सुरक्षा हितों का एका जरूरी

राजनैतिक और कूटनीतिक साझेदारी जरूरी है, मगर खतरे के मुकाबले के लिए ये खुद में अपर्याप्त हैं. इसलिए गुटनिरपेक्षता या आज जिसे रणनीतिक स्वायत्तता कहा जाता है, वह मोर्चे खुलने पर मामूली ही मददगार होगा. 1962 में और फिर 1971 में भी तीसरी दुनिया के भारत के दोस्तों ने उसका साथ छोड़ दिया था और सिर्फ शांति के खोखले नारे दोहरा रहे थे, जो भारत भी बार-बार किया करता है. नारे आहत नहीं करते, लेकिन जिससे आघात पहुंचा, वह थी उन संकट के हफ्तों में भारत से सोवियत संघ की धोखेबाज़ी.

नेहरू ने सोचा था कि मॉस्को बीजिंग पर लगाम कसेगा, लेकिन उसके लिए चीन की अहमियत ज्यादा थी. क्यूबा के मिसाइल संकट के वक्त सोशलिस्ट एकता की दरकार थी और मॉस्को ने भारत को दांव पर लगाने में जरा भी देर नहीं की. उस इतिहास को भी याद करना उपयोगी है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संवेदनशीलता की जगह बहुत कम होती है. भारत को मौजूदा दौर की घटनाओं पर उसी तरह नज़र डालना चाहिए. आज रूस के लिए भारत उतना महत्वपूर्ण नहीं है, चीन ज्यादा अहमियत रखता है और आगे भी बना रह सकता है.

यानी सबक यह है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में वहीं सच्चे दोस्त होते हैं, जिनके सुरक्षा हित मिलते हैं. इस मामले में सुरक्षा हित ही सबसे खास है. देशों के विश्व व्यवस्‍था या हैसियत जैसे बड़े हित हो सकते हैं, लेकिन बाहरी सुरक्षा का मामला आता है तो बाकी कुछ मायने नहीं रखता. यह सामान्य लगता है, फर्क सिर्फ यह है कि नई दिल्ली अक्सर अपने सुरक्षा हितों के मुकाबले विश्व व्यवस्‍था और हैसियत के सवाल पर फोकस करती है. विश्व व्यवस्‍था में भारत की स्थिति महत्वपूर्ण मकसद है, लेकिन उसे भारत को सुरक्षित रखने के मकसद जरूर ज्यादा ध्यान देना चाहिए.

1962 में भारत की हार और उसके दूसरे असर की वजह से विश्व काउंसिल में उसकी स्थिति कमज़ोर हो गई. जो देश अपने को सुरक्षित नहीं रख सकता, वह दूसरे लक्ष्य भी कम ही हासिल कर सकता है. भारत की दलील वाजिब है कि मौजूदा विश्व व्यवस्‍था में मौजूदा हकीकतों के मुताबिक सुधार करने की जरूरत है, लेकिन उसे अपनी सीमा की हकीकतों पर ज्यादा फोकस करना चाहिए.

नई दिल्ली का चीन के खतरे से निपटने के लिए कूटनीतिक और राजनैतिक रणनीति पर फोकस जारी है. वह कई देशों के गुट में छोटे-छोटे समझौतों के ज़रिये दनादन साझेदारियां बनाने में जुटा है. ये खुद में कोई समस्या नहीं हैं और जरूरी भी हो सकते हैं, लेकिन ये सुरक्षा साझेदारियों का विकल्प नहीं हो सकते. हां, सुरक्षा साझेदारियां भी कारगर नहीं हो सकतीं, अगर उनका पूरा इस्तेमाल न किया जाए. इसी वजह से क्वाड की नाकामी सुरक्षा एजेंडे के मद्देनजर एक समस्या है.

अलबत्ता, यह तो पता नहीं है कि चार क्वाड देशों में से किसने कदम पीछे खींचा, मगर यह वाजिब कयास है कि भारत ने ही ब्रेक लगाया, क्योंकि बाकी तीन तो सुरक्षा सहयोग में जुटे हुए हैं. और वे एयूकेयूएस और ऑस्ट्रेलिया-जापान सुरक्षा समझौते के जरिए अपने संबंधों को और मज़बूत कर रहे हैं. अगर भारत क्वाड सुरक्षा एजेंडा में अपने पैर पीछे खींच रहा है तो यह दुर्भाग्य होगा. युद्ध छिड़ने के बाद साझेदार भारत को मदद नहीं कर पाएंगे. 1962 में अमेरिकी मदद के लिए नेहरू की अपील कारगर होनी चाहिए थीः अलबत्ता अमेरिका की इच्छा थी, लेकिन वह इतनी हड़बड़ी में कुछ कर नहीं सकता था. जैसा कि एश्ले टेलिस ने लिखा है, अमेरिका (या कहें क्वाड) से संकट शुरू होने के बाद मदद की उम्मीद करना बेहद जोखिम भरा जुआ है.

चीन आज 1962 के मुकाबले काफी ताकतवर दुश्मन है. नई दिल्ली भी उसे गंभीरता से लेती दिखती है. दुर्भाग्य से, लगता है, भारत के रवैए में कई अंतर्निहित प्रवृतियां जारी हैं यानी अपनी ताकत और एकला चलो पर ज़ोर या उसे अपनी अहमियत पर विश्वास. यही चिंता का विषय है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है, व्यक्त विचार निजी हैं.)


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