नई दिल्ली: कर्नाटक हाई कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन धर्म के आधार पर दो समुदायों के बीच परस्पर वैमनस्य फैलाने वाला है. अदालत का यह फैसला सोमवार को पब्लिक डोमेन में आया.
हाई कोर्ट में सफवान नामक एक व्यक्ति की तरफ से दायर याचिका पर सुनवाई की जा रही थी, जिसमें उसने अपने और पांच अन्य लोगों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द करने की मांग की थी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विरोध जताने और नारेबाजी किए जाने पर स्वत: संज्ञान लेते हुए इन लोगों के खिलाफ यह कार्यवाही शुरू की गई थी.
हाई कोर्ट ने 14 अक्टूबर को अपने फैसले में कहा, ‘(यह) धार्मिक स्तर पर दो समुदायों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के अलावा और कुछ नहीं है, और यह कृत्य मंगलुरु क्षेत्र में सद्भाव बिगाड़ने वाला था.’
हालांकि, अदालत ने इस तरह के मामले में संज्ञान लेने के लिए कानूनन जरूरी राज्य सरकार की मंजूरी के अभाव में उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी.
फैसले के मुताबिक, याचिकाकर्ता कथित तौर पर पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) की छात्र इकाई कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) का सदस्य था. गौरतलब है कि इसी साल सितंबर में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत पीएफआई के साथ सीएफआई और अन्य सहयोगी संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया था.
सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में अयोध्या मामले में सुनाए फैसले के तहत पूरी 2.77 एकड़ विवादास्पद जमीन मंदिर निर्माण के लिए हिंदू समुदाय को दे दी थी, जहां बाबरी मस्जिद बनी हुई थी और जिसके बारे में माना जाता रहा है कि यह राम लला का जन्मस्थान है. साथ ही मुस्लिम समुदाय को मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या में कहीं और पांच एकड़ जमीन उपलब्ध कराने को कहा था.
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‘विरोध को हल्के में नहीं ले सकते’
कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले के मुताबिक, नवंबर 2019 में मंगलुरु स्थित कोनाजे पुलिस स्टेशन ने छह लोगों (अताउल्ला, पंजलाकट्टे, इमरान आरजे, मोहम्मद आसिफ, मोहम्मद रियाज और याचिकाकर्ता सफवान) के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 153 (ए) और 149 और कर्नाटक ओपन प्लेस डिफिगरमेंट एक्ट 1951 और 1981 की धारा 3 के तहत मामला दर्ज किया था.
धारा 153 (ए) जहां धार्मिक आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य फैलाने, और सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाले कृत्य से संबंधित है, वहीं धारा 149 सामान्य उद्देश्य के साथ किए गए अपराध के मामले में गैरकानूनी सभा के प्रत्येक सदस्य जिम्मेदारी मानने के प्रावधान से जुड़ी है. वहीं, कर्नाटक ओपन प्लेस डिफिगरेशन एक्ट, 1981 की धारा 3 में दुष्प्रचार के जरिये अनधिकृत तौर पर छवि बिगाड़ने को लेकर दंड के प्रावधान से जुड़ी है.
फैसले के मुताबिक, पेट्रोलिंग पर तैनात पुलिस कांस्टेबल अशोक कुमार को ‘विश्वसनीय सूचना’ मिली थी कि मंगलुरु में बदरिया जुम्मा मस्जिद के पास अब्बास नामक एक व्यक्ति के घर के सामने ‘पीएफआई से जुड़े कुछ लोग’ सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ नारेबाजी कर रहे हैं.
हाई कोर्ट के फैसले में आगे बताया गया कि कथित तौर पर सीएफआई और पीएफआई से संबंधित लोगों के समूह पर मेंगलुरु यूनिवर्सिटी परिसर के अंदर जाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ नारेबाजी करने का भी आरोप लगा था. इनका उद्देश्य पोस्टर आदि लगाकर धार्मिक भावनाएं भड़काना और सार्वजनिक जगहों पर ‘फसाद’ कराना भी था.
इन्हीं सब बातों के मद्देनजर पुलिस ने संबंधित धाराओं के तहत मामला दर्ज किया और याचिकाकर्ता और अन्य लोगों के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया.
‘यह सब सीएफआई सदस्यों की तरफ से वैमनस्य फैलाने की कोशिश’
याचिकाकर्ता की वकील हलीमा अमीन ने अपने मुवक्किल के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द करने का आग्रह करते हुए दलील दी कि उसके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं है और वह इनमें से किसी भी संगठन का सदस्य भी नहीं है.
याचिकाकर्ता ने अपनी दलील के पक्ष में इस साल के अतुल कुमार सबरवाल @मधुगिरी मोदी बनाम राज्य और कर्नाटक और अन्य मामले और 2020 के मोहम्मद अताउल्ला. ए बनाम कर्नाटक राज्य मामले का हवाला दिया.
इन दोनों मामलों में माना गया था कि आईपीसी की धारा 153 (ए) के तहत अभियुक्तों के खिलाफ कार्रवाई के लिए जरूरी है कि उनके कथित कृत्यों का उद्देश्य दो अलग-अलग धर्मों या धार्मिक समूहों अथवा जातियों या जाति समूहों के बीच दुश्मनी, घृणा या द्वेष की भावनाएं भड़काने वाला होना चाहिए.
हालांकि, सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष के वकील बी.जे. रोहित ने दलील दी कि याचिकाकर्ता सीएफआई का सदस्य था और नवंबर 2019 में मेंगलुरु यूनिवर्सिटी परिसर के अंदर उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया था. फैसले में उनके हवाले से यह भी जिक्र किया गया कि याचिकाकर्ता यूनिवर्सिटी कैंपस के पास ही रहता है.
कोर्ट ने कहा, ‘ऐसे गवाह हैं जिन्होंने फैसले के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले समूह के बीच याचिकाकर्ता की मौजूदगी की बात कही है…जो कि राज्य के खिलाफ अपराध है, और आईपीसी की धारा 153-ए के तहत दंडनीय अपराध है.’
अदालत ने आगे कहा, ‘(याचिकाकर्ता ने अन्य आरोपियों के साथ) बदरिया जुम्मा मस्जिद के पास सार्वजनिक स्थानों पर पोस्टर लगाए जिनमें लिखा था, ‘फैसले के विरोध में न्याय पाने के लिए सभी को एक साथ आना चाहिए और नारे लगाने चाहिए.’ यही नहीं मंगलुरु में यूनिवर्सिटी कैंपस में भी लोगों खासकर मुस्लिम समुदाय का आह्वान किया कि अयोध्या-बाबरी मस्जिद मामले में सुप्रीम कोर्ट फैसले के खिलाफ न्याय पाने के लिए अपनी आवाज उठाएं.’
यह देखते हुए कि यह मामला बचाव पक्ष की तरफ से दिए गए संदर्भों की तुलना में ‘कुछ ज्यादा ही गंभीर नजर आता है’ जस्टिस के. नटराजन की एकल पीठ ने कहा कि इसे ‘हल्के में नहीं लिया जा सकता है.
आदेश में कहा गया है, ‘यह देखते हुए ये मामला एक अलग ही पायदान पर खड़ा नजर आता है कि आरोपी व्यक्ति सीएफआई और उससे जुड़े संगठनों का हिस्सा हैं और याचिकाकर्ता मंगलुरु में यूनिवर्सिटी कैंपस के पास रहने वाला एक स्थानीय नागरिक है, जिसने अन्य लोगों के साथ मिलकर सीएफआई के बैनर के साथ अयोध्या मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसले का विरोध किया.’
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