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Thursday, 25 April, 2024
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SC ने नकारा ‘टू फिंगर टेस्ट’, महिला की सेक्शुअल हिस्ट्री नहीं बन सकती रेप तय करने का आधार

अदालत ने घोषणा की कि कोई व्यक्ति जो रेप या यौन उत्पीड़न के मामले में पीड़िता का 'टू-फिंगर टेस्ट' करता है, उसे कदाचार का दोषी माना जाएगा.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि यह जानने के लिए कि किसी महिला के साथ रेप की घटना हुई थी या नहीं, इसके लिए टू फिंगर टेस्ट अप्रासंगिक है. कोर्ट ने सोमवार को कहा, ‘टू फिंगर टेस्ट नहीं किया जाना चाहिए और यौन उत्पीड़न के मामले में कोई भी व्यक्ति अगर यह करता है तो इसके लिए उसे कदाचार का दोषी ठहराया जा सकता है.

जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और हिमा कोहली की बेंच ने कहा कि यह टेस्ट एक गलत धारणा पर आधारित है कि यौन रूप से सक्रिय महिला का बलात्कार नहीं हो सकता. सच्चाई इससे इतर कुछ भी हो सकती है. किसी भी महिला का यौन इतिहास क्या है, यह महत्वहीन है. यह तय करते हुए कि आरोपी ने रेप किया था या नहीं.

‘टू फिंगर टेस्ट’ में महिला के वजाइना में दो अंगुलियों को डाला जाता है ताकि उसमें ढीलेपन का पला लगाया जाए. इससे आकलन किया जाता है कि महिला सेक्स के लिए अभ्यस्त है या नहीं.

बेंच ने पुराने निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि पहले भी अदालत ने रेप और यौन उत्पीड़न के मामले में टू फिंगर टेस्ट के प्रयोग को बार-बार खारिज किया है. अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि एक महिला की गवाही की वैल्यू उसके सेक्शुअल हिस्ट्री पर निर्भर नहीं करता है.

बेंच जनवरी 2018 में झारखंड उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक फैसले को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें 2004 के एक बलात्कार मामले में शैलेंद्र कुमार राय उर्फ पांडव राय को बरी कर दिया गया था.

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इस मामले में पीड़िता का नवंबर 2004 में ‘टू-फिंगर टेस्ट’ कराया गया था, जब उसकी चिकित्सकीय जांच की गई थी.

2013 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि बलात्कार पीड़िता का ‘टू-फिंगर टेस्ट’ उसके निजता, अखंडता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है.


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अफसोसजनक

सोमवार को सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि ‘टू-फिंगर टेस्ट’ बलात्कार के मामले में एक दशक पहले किया गया था. यह खेदजनक था और यह आज भी जारी है. कोर्ट ने कहा कि यह देखने के लिए कि कोई महिला सेक्शुअली एक्टिव है या नहीं इसके लिए यह देखना होगा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में कोई नियम मौजूद हैं या नहीं.

अदालत ने यह भी कहा कि इस परीक्षण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और यह न तो रेप के आरोप को साबित करता है और न ही इसे खारिज करता है. यह यौन उत्पीड़न से पीड़ित महिलाओं को और भी पीड़ित बनाता है. यह उनकी गरिमा का अपमान है.

‘यह पितृसत्तात्मक और सेक्सिस्ट सोच है कि एक महिला पर विश्वास नहीं किया जा सकता है कि उसके साथ रेप किया गया था, केवल इसलिए क्योंकि वह यौन रूप से सक्रिय है.’ अदालत ने जोड़ा.

अदालत ने घोषणा की कि कोई व्यक्ति जो रेप या यौन उत्पीड़न के मामले में पीड़िता का ‘टू-फिंगर टेस्ट’ करता है, उसे कदाचार का दोषी माना जाएगा. कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को स्वास्थ्य कर्मियों के लिए एक वर्कशॉप आयोजित करने का निर्देश दिया, जिसमें यौन उत्पीड़न और बलात्कार से पीड़ितो की जांच करते समय अपनाई जाने वाली प्रक्रिया की जानकारी दी जा सकें.

सरकार को इसे सुनिश्चित करने के लिए मेडिकल कॉलेजों के पाठ्यक्रम की समीक्षा करने के लिए भी कहा गया था ताकि उन्हें जानकारी हो कि यौन उत्पीड़न और बलात्कार से पीड़ित लोगों की जांच की एकमात्र यही प्रक्रिया नहीं है.

मौत की पुष्टि ही रेप की पुष्टि

अभियोजन पक्ष के मुताबिक राय ने नवंबर 2004 में पीड़िता के साथ रेप किया था. रेप के दौरान उसने मदद के लिए चिल्लाना शुरू किया तो उसने उस पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी. गंभीर रूप से झुलसी पीड़िता ने अस्पताल में पुलिस को घटना की पूरी बात बताई थी. एक महीने बाद दिसंबर 2004 में पीड़िता ने इलाज के दौरान अस्पताल में दम तोड़ दिया था.

निचली अदालत ने अक्टूबर 2006 में राय को आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 341 (गलत तरीके से रोकना), 376 (बलात्कार) और 448 (घर में अतिक्रमण) के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई. हालांकि 2018 में झारखंड उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए यह फैसला सुनाया कि अभियोजन पक्ष रेप के संदेह साबित नहीं कर पाया था.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौत से पहले पीड़िता का बयान ही केस के आरोप को सिद्ध कर देता है.

राय के वकील ने भी कोर्ट के सामने मेडिकल बोर्ड के रिपोर्ट की कॉपी प्रस्तुत की जिसमें मेडिकल बोर्ड ने कहा कि रेप के कोई सबूत नहीं मिले हैं, लेकिन शीर्ष अदालत ने कहा कि मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि संभोग की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.

कोर्ट ने कहा कि रेप के बाद मेडिकल प्रूफ की कमी का यह अर्थ नहीं है कि मृतक का रेप नहीं किया गया था. मरने से पहले पीड़िता ने स्पष्ट रूप से कहा कि आरोपी ने आग लगाने से पहले उसके साथ रेप किया और मेडिकल और अन्य सबूत के अलावा बयान की पुष्टि करने का कोई नियम नहीं हैं क्योंकि मौत की घोषणा संदिग्ध नहीं है.

जिसके कारण राय के बरी करने के फैसले को पलट दिया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 53ए को 2013 ‘पार्टिंग रिमार्क’ के रूप में डाला गया था. इस प्रावधान के मुताबिक पीड़िता के चरित्र या उसके पिछले यौन अनुभव के साक्ष्य यौन अपराध के मामलों में सहमति के मुद्दे के लिए प्रासंगिक नहीं होंगे.

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2014 में बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामलों में ‘टू-फिंगर टेस्ट’ पर रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश जारी किया था. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि सभी सरकारी और निजी अस्पतालों में दिशा निर्देश प्रसारित किए जाएं.

( इस खबर को अंग्रजी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें )


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