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Friday, 22 November, 2024
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गरीब और अमीर राज्यों के बीच की खाई कम क्यों नहीं हो रही है?

केंद्र से मिलने वाले कोश से यह विषमता थोड़ी ही दूर होती है, मिटती नहीं. केंद्र से मध्य प्रदेश को कर्नाटक की तुलना में दो तिहाई ज्यादा कोश मिलता है, और बिहार को तेलुगुभाषी राज्यों की तुलना में 50 फीसदी ज्यादा.

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दुनिया भर में यह करीब आने, दूरियां पाटने का दौर है. अपनी आय बढ़ाने की रफ्तार के मामले में गरीब देश अमीर देशों से बाज़ी मार रहे हैं. इस तरह दोनों ध्रुवों के बीच की खाई संकरी हो रही है. लेकिन देश के भीतर ही गरीब और अमीर राज्यों के बीच की खाई कम क्यों नहीं हो रही है? कड़वी सच्चाई यह है कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा, बल्कि इसके उलट खाई और चौड़ी ही हो रही है.

कर राजस्व को ही ले लीजिए. मध्य प्रदेश की आबादी कर्नाटक की आबादी से 20 प्रतिशत ज्यादा है मगर (केंद्र से मिलने वाले कोश का हिसाब न करें तो) उसका कर राजस्व कर्नाटक के कर राजस्व का आधा है. उत्तर प्रदेश की आबादी तमिलनाडु की आबादी से ढाई गुनी ज्यादा है लेकिन दोनों का कर राजस्व लगभग बराबर है. निचला पायदान (आपने ठीक अनुमान लगाया) बिहार के कब्जे में है, जिसकी आबादी आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना की कुल आबादी से काफी ज्यादा है लेकिन उसका कर राजस्व तेलुगु भाषी राज्यों के कर राजस्व का महज 12 प्रतिशत है. ओड़ीशा की आबादी केरल की आबादी से 30 प्रतिशत ज्यादा है मगर उसका कर राजस्व केरल के कर राजस्व का 50 प्रतिशत है.

केंद्र से मिलने वाले कोश से यह विषमता थोड़ी ही दूर होती है, मिटती नहीं. केंद्र से मध्य प्रदेश को कर्नाटक की तुलना में दो तिहाई ज्यादा कोश मिलता है, और बिहार को तेलुगु भाषी राज्यों की तुलना में 50 फीसदी ज्यादा. लेकिन प्रति व्यक्ति के हिसाब से सामाजिक क्षेत्र पर खर्च करने के मामले में गरीब राज्य अमीर राज्यों से पीछे हैं. अगर पिछड़े राज्यों को दूसरे राज्यों की बराबरी में आना है तो यह स्थिति उलटनी चाहिए. सामाजिक क्षेत्र पर बिहार में प्रति व्यक्ति सालाना 76 रुपये खर्च किया जाता है जबकि केरल में 139 रु. उत्तर प्रदेश में 69 रु. तो महाराष्ट्र मेँ 120 रु. पश्चिम बंगाल मेँ 95 रु. तो कर्नाटक मेँ 124 रु. कुछ अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में स्थिति थोड़ी बेहतर है, मसलन छत्तीसगढ़ (150 रु.) और ओड़ीशा (115 रु.). लेकिन कुल मिलाकर दक्षिण और पश्चिम में हाल बेहतर है- उन राज्यों में , जहां उपलब्धियों का स्तर ऊंचा है. ये विषमताएं तमाम राज्यों में निजी क्षेत्र मेँ निवेश के मामलों- विमान सेवाओं की संख्या, उच्चस्तरीय नौकरियों, आदि-में भी विषमता को प्रतिबिंबित करती हैं. आव्रजन से आंशिक भरपाई ही हो पाती है.


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पूरब और उत्तर के गरीब राज्यों के लिए केंद्रीय अनुदान में कमी को अनिवार्य तौर पर दक्षिण तथा पश्चिम के राज्यों द्वारा कर राजस्व में किए गए योगदान से पूरा किया जाता है. अब तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया था. लेकिन पिछले वर्ष आपत्तियों की आवाज़ें तब उठीं जब यह पता चला कि वित्त आयोग (जो राज्यों को दिए जाने वाले कोश के बारे में फैसला करता है) से यह कहा गया है कि वह राजस्व का अधिकांश हिस्सा जुटाने वाले राज्यों की कीमत पर गरीब राज्यों को ज्यादा कोश आवंटित करे. दरअसल, 2017 में जीएसटी लागू होने के बाद अपेक्षा की जा रही थी कि राज्यों से जीएसटी के मद में आने वाले पैसे को ‘उत्पादक’ राज्यों से ‘उपभोक्ता’ राज्यों की ओर भेजा जाएगा. इसी वजह से नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने जीएसटी पर वीटो लगा रखा था, क्योंकि उन्हें राज्य के राजस्व में कमी आने का डर था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं है, शायद आगे ऐसा हो जाए.

इस बीच लोकसभा सीटों का राज्यवार आवंटन सबसे विस्फोटक मसले के रूप मैं उभरा है. दक्षिण के राज्यों की तुलना में पूरब और उत्तर के ‘बीमारू’ राज्यों की आबादी में ज्यादा वृद्धि दर्ज़ होने के बावजूद यह मुद्दा करीब 50 वर्षों से ठंडे बस्ते में पड़ा था. नतीजा यह है कि एक लोकसभा चुनाव क्षेत्र की औसत आबादी बिहार में 26 लाख हो गई है, जबकि केरल में 16.5 लाख है, मध्य प्रदेश में 25 लाख है, तो तमिलनाडु में 18.4 लाख. लोकसभा सीटों का अगला राज्यवार आवंटन 2026 में होना है. तब अगर यह फैसला किया जाएगा कि प्रति सीट नागरिकों की संख्या का अनुपात एक समान हो, तो आपको दक्षिण के राज्यों से कड़े विरोध की आवाज़ें सुनाई दे सकती हैं. फिर भी, सीटों के वर्तमान आवंटन को अगर अनिश्चित काल के लिए ठंडे बस्ते में डाले रखा गया तो यह राज्यों के उचित प्रतिनिधित्व में विषमता को जन्म देगा, जबकि दक्षिणी राज्य अपनी आबादी को स्थिर रखने के लिए पर्याप्त बच्चे नहीं पैदा कर रहे हैं.


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वैसे, यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि राज्यों की वित्तीय स्थिति और लोकसभा में उनके प्रतिनिधित्व जैसे दो मुद्दों को असंतोष की चिनगारी भड़काए बिना एक साथ सुलझाया नहीं जा सकता. लेकिन विषमताओं को बनाए रखना या उन्हें बढ़ने देना राष्ट्रीय एकता के लिए कतई श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता. तो क्या मुद्दों को गड्डमड्ड करना कोई समाधान हो सकता है? समय काटने के लिए शायद यह मुफीद लगे.

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