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Friday, 19 April, 2024
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लुटियंस की दिल्ली ने क्यों नरेंद्र मोदी से मुंह फेर लिया है?

प्रधानमंत्री का कहना है कि उन्हें सबसे बड़ा अफसोस इस बात का है कि वे ‘लुटियंस की दिल्ली’ को अपने पक्ष में नहीं कर पाए.

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प्रधानमंत्री का कहना है कि उन्हें सबसे बड़ा अफसोस इस बात का है कि वे ‘लुटियंस की दिल्ली’ को अपने पक्ष में नहीं कर पाए. इस जुमले को मूलतः उस क्षेत्र के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जिसे करीब सौ साल पहले अंग्रेजों ने भारत की राजधानी के तौर बसाया था और वहां सरकारी इमारतें तथा बंगले बनवाए थे. एडविन लुटियंस इसके एक प्रमुख वास्तुकार थे, लेकिन (अच्छी किस्मत यह रही कि) नई राजधानी को लेकर उनके सभी विचारों को खारिज कर दिया गया था. इमारतों के लिए बलुही लाल पत्थर के इस्तेमाल, सड़कों पर गोलंबरों के निर्माण, पेड़ों-झाड़ियों को उगाने, राष्ट्रपति भवन को रायसीना पहाड़ी पर बनाने का विचार लुटियंस ने शुरू में नहीं दिया था. नई राजधानी की अधिकांश इमारतों (बंगलों समेत) के डिजाइन लुटियंस ने नहीं बल्कि दूसरे वास्तुकारों ने तैयार किए थे. फिर भी है तो यह लुटियंस की ही दिल्ली, चाहे उन्हें भारतीय लोग समेत तमाम भारतीय चीजें नापसंद थीं.

तो शहर के इस मोदी-विरोधी मध्य भाग में कौन लोग रहते हैं? करीब 19 वर्ग किमी. में फैले इस क्षेत्र में जो 1000 से ज्यादा पुराने बंगले हैं उनमें से 90 प्रतिशत पर तो सरकार, उसके मंत्रियों, सांसदों, सरकार और सेना के आला अधिकारियों का कब्जा है. इन लोगों को मोदी के पछतावे का स्रोत नहीं माना जा सकता है. लेकिन विभिन्न चरणों में लुटियंस की दिल्ली का विस्तार करके उसमें राजनयिकों के एनक्लेव और गोल्फ लिंक्स जैसे आलीशान रिहायशी इलाकों को समाहित कर लिया गया. इन इलाकों को देश का सबसे पसंदीदा इलाका माना जाता है. मुख्यमंत्री लोग लुटियंस के बंगलों को हथियाने के लिए जोड़तोड़ करते हैं, तो सांसद लोग अपना कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद भी इन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं. दूसरे शहरों के व्यवसायी लोग लुटियंस वाले घरों बस जाते हैं, तो सेवानिवृत्त हो चुके सरकारी अधिकारी लोग जिमख़ाना क्लब में चक्कर काटते रहते हैं. इस क्षेत्र की आबादी 3 लाख से कम यानी पूरे शहर की आबादी का 2 प्रतिशत ही होगी. इस छोटी सी आबादी को लेकर कोई प्रधानमंत्री तो क्या, कोई राजनीतिक नेता भी क्यों परेशान हो?


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लुटियंस की असली दिल्ली न तो विरासत में मिला वास्तुशिल्प है और न उसमें रह रहे लोग हैं. यह जुमला इस शहर की उस वास्तविकता को प्रतिबिम्बित करता है, जो पैरवीकारों और वकीलों, थिंक टैंक के बुद्धिजीवियों, बिजनेस ‘चैम्बरों’ के इवेंट मैनेजरों, सेवा में मौजूद या सेवानिवृत्त राजनयिकों, पत्रकारों और (हमेशा) सामान्य किस्म की बौद्धिक खुराक और बोजान परोसने वाले इंडिया इंटेरनेशनल सेंटर से बनती है, जो शायद हमेशा इस अचरज में पड़ा रहता होगा कि उसे इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है.

कोई चाहे तो इसे ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ कह सकता है, हालांकि यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि भारत में ‘सत्ता प्रतिष्ठान’— छोटा सा, स्वयंभू कुलीन समूह जिसके हाथ में दीर्घकालिक सत्ता की कमान होती है— जैसी चीज़ है भी या नहीं. ब्रिटेन में इसे ‘ऑक्सब्रिज’ के नाम से जाना जाता है, जिसके पूर्व छात्र देश पर राज करते थे और लंदन के सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय केंद्र को चलाते थे, चाहे कुर्सी पर कोई भी बैठा हो. दिल्ली के शिक्षण जगत का जो कुलीन तबका है, जो करीब आधा दर्जन कॉलेजों तथा संस्थानों के अंग्रेज़ीभाषी पूर्व छात्रों से बना है, ऑक्सब्रिज वाले इस तबके जैसा नहीं है, यद्यपि उनमें से कई किसी-न-किसी तरह से सरकार में शामिल हैं और शहर की मधुशालाओं में आसानी से देखे जा सकते हैं.

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वाशिंगटन में लोग इसी तरह की बातें ‘बेल्टवे’ (एक बड़े रिंग रोड) के बारे में करते हैं. बेल्टवे के इर्दगिर्द रहने वालों के बारे में प्रायः कहा जाता है कि वे शेष देश की राजनीति से एकदम कटे हुए होते हैं. लेकिन यह दिल्ली के लिए सच नहीं है, जो उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम के लोगों की खिचड़ी के रूप में पूरे देश की हवा के साथ ही बहकर मतदान करती है, जैसे कि 2014 में उसने भाजपा को वोट दिया. लेकिन लुटिएन्स की दिल्ली अलग है. इसके वैचारिक नेता उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता पर बहस करते हैं जबकि जनता कृषि संकट, बेरोजगारी, और अब आवारा मवेशियों की चिंता करती है. लुटियंस की दिल्ली को इन सबसे कोई मतलब नहीं है. यशवंत सिन्हा वित्त मंत्री थे तब कहा करते थे कि बजट पेश करने के बाद उनसे जो सवाल पूछे जाते थे उनका हजारीबाग के मतदाताओं के सरोकारों से कोई मतलब नहीं होता था.


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मोदी की सरकार में भी लुटियंस की दिल्ली के अरुण जेटली और हरदीप पुरी जैसे कुछ मशहूर लोग शामिल हैं. लेकिन मोदी का यह मानना सही है कि इस एनक्लेव (दिल्ली का पसंदीदा शब्द) में जिस विचार को प्रमुखता हासिल है वह उनके विचार से मेल नहीं खाता. इसलिए, अफसोस किस बात का है? शायद इस बात का कि भाजपा को अभी भी मातहत दर्जे का माना जाता है. वह कुछ पाठ्यपुस्तकों को फिर से लिखवाने में, कथित देशद्रोही एनजीओ पर छापे डलवाने में, सुब्रह्मण्यम स्वामी और एस. गुरुमूर्ति सरीखे बौद्धिक हमलावरों को शामिल करने में, सेवानिवृत्त जनरलों को अपने पक्ष में करने में, टीवी पर सुर्खियां बटोरने में, जेएनयू जैसे संस्थानों को अपने मुट्ठी में करने में सफल तो हो गई है मगर वह अभी तक ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ या उस जैसा नहीं बन पाई है. सवाल यह है कि मातहत जो है वह क्या किले को भेद सकेगा? विडंबना यह है कि इसका फैसला मतदाता के हाथ में है.

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