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Tuesday, 16 April, 2024
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साल 2018 का सरताज तो आम आदमी ही रहा

समस्या यह है कि गरीबों के लिए चाहे जितनी योजनाएं शुरू की जाएं, व्यवस्था का चरित्र ऐसा है कि वह आम आदमी के लिए कम, अमीर तबके के लिए ज्यादा काम करती है.

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बीते साल का सरताज कौन रहा? इस सवाल का जवाब यही मिलेगा कि 2018 का सरताज तो आम आदमी ही रहा. हाल के विधानसभा चुनाव किसान की ओर संकेत करते हैं. तो दूसरा संकेत बेरोजगारी की ओर है, खास तौर से उन शिक्षितों की बेरोजगारी की ओर जिन्हें रोजगार नहीं दिया जा सकता. इन दो तत्वों ने पिछले वर्षों में बढ़ी विषमता की लंबी कहानी को ज्यादा गम्भीरता से उभार दिया है.

इन वर्षों में जो आर्थिक वृद्धि हुई है उसका अधिकांश लाभ अमीर तबके के हिस्से में ही गया है. उद्यमिता के मामले में भी मुद्दा यह है कि 2016 में की गई नोटबंदी और जीएसटी ने छोटे व्यवसायियों को किस कदर कुप्रभावित किया है. अब नतीजा यह है कि तमाम राज्य किसानों के कर्ज़ माफ कर रहे हैं, जीएसटी में संशोधन कर रहे हैं, और सभी के लिए न्यूनतम आय की व्यवस्था लागू करने की जरूरत पर बहस तेज हो गई है चाहे यह कितना भी खर्चीला और अव्यावहारिक क्यों न हो.


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इन सबसे पहले, बीते साल की सबसे बड़ी सरकारी पहल भी आम आदमी के मद्देनजर की गई है. ‘आयुष्मान भारत’ नाम की इस पहल का लाभ सबसे निचले तबके की 40 प्रतिशत आबादी को जाना है. कहा जा सकता है कि इसका वक़्त भी आ चुका था. 1991 के बाद से कहानी मध्यवर्ग के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है, जिसका आकार कुल परिवारों में छोटे से अनुपात से बढ़कर 30 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गया है (मोटे तौर पर मध्यवर्गीय परिवार वह माना जाता जिसके सदस्यों की संख्या पांच या ज्यादा होती है और औसत मासिक आमदनी 33 हज़ार रुपये है).

यह मध्यवर्ग को परिभाषित करने के अंतरराष्ट्रीय मानक (प्रतिदिन औसतन 10 डॉलर की कमाई) के बराबर है, जिसमें क्रयशक्ति की बराबरी की गणना भी की जाती है. भारत में आज जो लोग इस स्तर से ऊपर के हैं, वे एक कार या दोपहिया, एक स्मार्ट फोन, केबल टीवी, किस्मत वाले हुए तो एक पर्सनल कंप्यूटर भी रखते हैं.

यह तो बात हुई सबसे ऊपरी 30 प्रतिशत वाले तबके की. बाकी 70 प्रतिशत का क्या? इस तबके में भी अधिकतर लोगों तक लाभ पहुंचा है, क्योंकि गरीबों की घटती संख्या इसकी तसदीक करती है. लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि तराज़ू का पलड़ा उनकी तरफ झुका हुआ नहीं है. 2014 के चुनाव अभियान में ज़ोर नव-मध्यवर्ग यानी 30 प्रतिशत आबादी वाले दूसरे तबके पर था. यह तबका उस तबके से एक पायदान ऊपर था, जिस पर यूपीए ने (रोजगार गारंटी स्कीम, भोजन और शिक्षा के अधिकारों के जरिए) ध्यान केन्द्रित किया था.

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नरेंद्र मोदी ने शुरू में तो रोजगार गारंटी स्कीम को कांग्रेस की विफलता बताकर इसका मज़ाक उड़ाया लेकिन बाद में अपनी चाल बदल ली और जन धन खाते खुलवाने से लेकर रियायती दर पर रसोई गैस की उज्ज्वला योजना और सबके लिए शौचालय बनवाने का स्वच्छ भारत कार्यक्रम शुरू कर दिया. अब नव-मध्यवर्ग की कोई चर्चा नहीं होती, जिसका जिक्र अरुण जेटली ने अपने पहले बजट भाषण में किया था और फिर उसे भूल गए थे.

एक स्तर पर आज समस्या यह है कि इस नव-मध्यवर्ग और छोटे व्यवसायियों को लग रहा है कि उनकी उपेक्षा हो रही है. और इससे गहरी समस्या यह है कि गरीबों के लिए चाहे जितनी सरकारी योजनाएं शुरू की जाएं, पूरी व्यवस्था का चरित्र ऐसा है कि वह आम आदमी के लिए कम, और विशेषाधिकार प्राप्त तबके के लिए ज्यादा काम करती है.

सड़कें बनती हैं तो उन पर बड़ी गाड़ियों का कब्जा हो जाता है, साइकिल वालों या पैदल चलने वालों के लिए जगह होती नहीं है. इसी तरह, आधुनिक राष्ट्र-राज्य के जितने बुनियादी साधन हैं- चाहे शिक्षा हो या स्वास्थ्य सेवा या सार्वजनिक परिवहन या कानून व्यवस्था से जुड़ी मशीनरी- सब तक इन तबकों की पहुंच सीमित ही होती है. बिहार-ओडिशा जैसे गरीब राज्यों की सरकारों- जो प्रति व्यक्ति पर खर्च करने के मामले में मजबूत राज्यों के मुकाबले कम सक्षम हैं- का पलड़ा भी इसी तरह हल्का रहता है. तो सवाल यह है कि अमीर और गरीब राज्यों के बीच जो खाई है उसे कैसे कम किया जाए?


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बात इसलिए भी नहीं बनती कि प्रतिनिधि सरकारें चलाने वाले लोग सबसे ऊपर की 1 प्रतिशत की आबादी में से भी 1 प्रतिशत वाले तबके से आते हैं. राजस्थान की नई सरकार के मंत्रियों की औसत संपत्ति 15 करोड़ की है, तो छत्तीसगढ़ के मंत्रियों की 45 करोड़ की. चंद महा अमीर व्यक्ति इस औसत को गड़बड़ कर देते हैं, लेकिन इन दोनों राज्यों के सभी 44 मंत्री करोड़पति हैं. वे आम आदमी के लिए नारे तो लगाते हैं, मगर वास्तव में वे किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? ऐसे में व्यवस्था अगर ऐसी है कि निचले तबके के बच्चे अपने पैरों पर खड़े होने से पहले ही जीवन की लड़ाई हार जाते हैं तो क्या आश्चर्य?

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