नई दिल्ली: संभवत: उस समय तक भारत या चीन के बहुत कम लोगों ने घुमावदार पहाड़ी के बीच बहती उस गलवान नदी के बारे में सुना होगा जो जल्द ही दो देशों के बीच एक बड़ी जंग की वजह बनने जा रही थी. समुद्र तल से 5,500 मीटर ऊंचाई पर स्थित गलवान घाटी का नाम एक कश्मीरी चरवाहे के नाम पर पड़ा है, जो कभी सीमा शुल्क चौकियों को धता बता स्थानीय कबीलाई सरदारों के लिए घोड़ों की तस्करी करता था.
8 जुलाई, 1962 को बीजिंग की तरफ से एक राजनयिक नोट विदेश मंत्रालय भेजा गया, जिसमें भारतीय सैनिकों पर नदी के किनारे सीमा क्षेत्र के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था. इससे पहले, चीनी सेना की एक पलटन का यहां तैनात गोरखा रेजीमेंट के जवानों से आमना-सामना हो चुका था.
चीन ने कड़ी आपत्ति दर्ज कराते हुए नोट में न केवल भारत से गलवान घाटी से सैनिकों को तत्काल हटाने के लिए कहा, बल्कि यह चेतावनी भी दे डाली कि वह ‘न तो भारत के इस तरह की सशस्त्र जमावड़े के आगे झुकेगा और न ही अनुचित ढंग से किसी हमले की स्थिति में आत्मरक्षा का अधिकार छोड़ेगा.’ पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने गोरखाओं का घाटी के नीचे सेमजंगलिंग पोस्ट तक जाना बाधित कर दिया और उनकी आपूर्ति लाइन काट दी.
20 अक्टूबर 1962 को सीमा पर पीएलए यूनिटों का जमावड़ा बढ़ने के साथ चीनी सैनिक गलवान घाटी समेत कुछ भारतीय क्षेत्रों में घुस आए. यद्यपि 60 साल पहले गलवान की इस घटना को दोनों देशों के बीच युद्ध भड़कने की वजह माना जाता है, लेकिन कई विशेषज्ञ इस जंग को एक लंबे राजनयिक टकराव के अपरिहार्य नतीजा मानते हैं जो 1959 से जारी था.
अवतार सिंह भसीन की किताब नेहरू, तिब्बत और चीन के मुताबिक, वर्ष 1959 ‘भारत-चीन संबंधों में सबसे अधिक उतार-चढ़ाव वाला साल रहा और यह भारत के लिए काफी निराशाजनक भी रहा.’
भसीन लिखते हैं कि तिब्बत में बगावत बढ़ने से सीमावर्ती क्षेत्र का विकास काफी प्रभावित हुआ. चीन—खासकर इसके तत्कालीन नेता माओत्से तुंग—ने 1959 में दलाई लामा के तिब्बत से पलायन और भारत में उन्हें शरण मिलने को अपने अपमान के तौर पर देखा.
बीजिंग इस बात से भी असहज था कि भारत ब्रिटिशकालीन सीमाओं पर जोर दे रहा था, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति पर आगे बढ़ रहे थे.
माओ ने दावा किया कि 1959 में तिब्बत में ल्हासा विद्रोहियों को भारतीयों की शह मिल रही थी. अक्टूबर 1959 में सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव के साथ अपनी बैठक के दौरान माओ ने कहा, ‘हम दलाई लामा को नहीं रोक सकेंगे क्योंकि भारत के साथ सीमा काफी लंबी-चौड़ी है और वह कभी भी इसे पार कर सकते हैं.’
भसीन ने अपनी पुस्तक में तर्क दिया कि ‘नेहरू के एक दोस्त को खो देने के डर और चीन को खुश करने की कोशिश ने चीन की महत्वाकांक्षाओं को बढ़ा दिया था. नतीजा, भारत को यह कठिन सबक सिखा गया कि अपनी ताकत को लेकर कोरे गुमान में रहना किसी आपदा को न्योता देने से कम नहीं है.’
यह तब और स्पष्ट हो गया जब कई टकराव और सैन्य गतिरोध शुरू हुए जो अंततः सीमा पर जंग में बदल गए.
ब्रिटिश पत्रकार और स्कॉलर नेविल मैक्सवेल ने अपनी कुख्यात पुस्तक इंडियाज चाइना वॉर में लिखा है कि यह सब नेहरू की सुविचारित ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ का हिस्सा था, जो 1962 के युद्ध के दौरान विभिन्न तरीकों से सामने आया.
मैक्सवेल लिखते हैं, यह सब जंग से पहले आगामी आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए शुरू किया गया था क्योंकि विपक्षी दल नेहरू सरकार पर चीन के प्रति नरम रुख अपनाने का आरोप लगा रहे थे.
मैक्सवेल अपनी किताब में लिखते हैं, ‘भारत सरकार की (सीमा मुद्दे पर) कोई समझौता न करने की मूल सीमा नीति ने 1950 के दशक के शुरू में भारत को चीन के साथ टकराव के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया और फिर फॉरवर्ड पॉलिसी पर अमल ने इसे आगे के अंजाम तक पहुंचाया. हालांकि, भारत आश्वस्त था कि रणनीतिक जंग में चीन को ही पीछे हटना पड़ेगा.’
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निर्णायक घटना
जंग से पहले कुछ दिनों के दौरान सैन्य गतिरोध और छिटपुट झड़प की कई घटनाएं हुई लेकिन निर्णायक संघर्ष कोंगका दर्रे के पास हुआ, जिसमें नौ भारतीय पुलिसकर्मी मारे गए. इस घटना के बाद भारत ने महसूस किया कि वह युद्ध के लिए तैयार नहीं था, फिर भी इसने नेहरू और चीनी प्रधानमंत्री चाउ एनलाई के बीच एक शिखर सम्मेलन की पहल की—इस उम्मीद के साथ कि शायद दोनों पड़ोसियों के बीच टकराव टाला जा सके.
टकराव की घटना अक्टूबर 1959 में उस समय हुई थी जब खुफिया ब्यूरो (आईबी) के एक अधिकारी के नेतृत्व में एक भारतीय पुलिस दल को सीमा पर तीन रणनीतिक स्थलों सोग्त्सालु, हॉट स्प्रिंग्स और शामल लुंगपा में चौकियां स्थापित करने का जिम्मा सौंपा गया. उन पर कथित तौर पर चीनी सैनिकों ने हमला किया, इसमें कुछ की गोलाबारी में मौत हो गई और अन्य को बंदी बना लिया गया.
स्वीडिश पत्रकार बर्टिल लिंटनर ने अपनी किताब, चाइना`ज इंडिया वॉर: कोलिशन कोर्स ऑन द रूफ ऑफ द वर्ल्ड में लिखा है, ‘अब हिंदी-चीनी भाई-भाई जैसा कुछ नहीं था और इसी समय देंग शियाओपिंग ने कहा कि भारत को सबक सिखाया जाना चाहिए. अगस्त 1959 में लोंगजू और अक्टूबर में कोंगका में आक्रामकता से साथ आगे बढ़ना संभवत: भारत की ताकत का अंदाजा लगाने की कोशिश थी.’
लिंटनर यह भी बताते हैं कि यही वो समय था जब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर माओ की ‘पकड़ कमजोर’ हो रही थी और इस प्रकार, उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए ‘तिब्बत मुद्दे और भारत के साथ सीमा विवाद का इस्तेमाल’ करने का फैसला किया.
भसीन के मुताबिक, भारत की ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ के तहत सीमावर्ती क्षेत्रों की नियमित गश्त शुरू हुई और नतीजतन सीमा पर टकराव की घटनाएं भी बढ़ीं. लेकिन कोंगका दर्रे की घटना तक भारतीय आबादी को यह अंदाजा नहीं हो पाया था कि संकट कितना गंभीर है. भसीन ने अपनी किताब में रेखांकित किया है, ‘खासकर कोंगका दर्रे की घटना के बाद ही सीमा विवाद मसले पर संसद के अंदर और बाहर अधिक गंभीरता से ध्यान दिया गया.’
नेहरू-चाउ एनलाई शिखर सम्मेलन 1960 में हुआ था, लेकिन तब तक दोनों देशों के बीच रिश्ते तेजी से बिगड़ने लगे थे. जनता की राय बदलने लगी और नेहरू को बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ा. जाहिर है कि ऐसे में शिखर सम्मेलन का तनातनी वाले माहौल के साथ खत्म होना तय ही था जिसने पहले से ही बिगड़े संबंधों को खराब कर दिया.
भारत पूरी तरह तैयार क्यों नहीं था?
1962 की लड़ाई मूलतः सीमा की जंग थी. सीमा रेखा की सही स्थिति को लेकर आज तक दोनों पक्षों में मतभेद है और यहां तक कि काल्पनिक रेखा से जुड़े फैक्ट भी विवादित रहे हैं.
नई दिल्ली का दावा है कि चीन-भारत सीमा की लंबाई 3,488 किलोमीटर है—जिसमें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) और चीन के बीच 523 किमी की सीमा शामिल है, जबकि बीजिंग का दावा है कि पीओके-चीन सीमा को छोड़कर दोनों देशों के बीच सीमा केवल 1,700 किलोमीटर की है.
पूर्व राजनयिक रंजीत सिंह काल्हा की किताब इंडिया-चीन बाउंड्री इश्यू—क्वेस्ट फॉर सेटलमेंट के मुताबिक, नेहरू पर जनता के बढ़ते दबाव के बीच 26 सितंबर 1961 को आईबी ने सीमावर्ती क्षेत्रों में चीनी गतिविधियों पर एक व्यापक रिपोर्ट पेश की.
रिपोर्ट में कहा गया, ‘चीनी उन जगहों पर 1960 की अपनी क्लेम लाइन तक आना चाहेंगे, जहां हमने कब्जा नहीं कर रखा है और जहां भी हमारे एक दर्जन लोग मौजूद हैं, चीनियों को वहां से दूर रखा गया है.’ साथ ही सिफारिश की कि लद्दाख के निर्जन क्षेत्रों में और अधिक चौकियां बनाई जानी चाहिए.
और जब नेहरू ने भारतीय सेना को चीनियों को भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकने के लिए यथासंभव आगे बढ़ने का आदेश दिया, तो चीन ने भी अधिक आक्रामक ढंग से गश्त करना और भारतीय सैनिकों के साथ भिड़ना शुरू कर दिया.
21 जुलाई 1962 को कोंगका दर्रे की घटना के बाद पहली बार चीन ने चिप चाप घाटी में भारतीय सेना के गश्ती दल पर गोलियां दागीं, जिसमें दो लोग हताहत हुए.
धाराप्रवाह चीनी भाषा बोलने वाले काल्हा के मुताबिक, यह घटना खास तौर पर नेहरू और भारतीय विदेशी और रणनीतिक समुदाय के लिए एक स्पष्ट ‘चेतावनी’ थी कि भारत के प्रति ‘चीनी रवैया और नीति’ पूरी तरह बदल चुकी है.
यद्यपि सीमावर्ती क्षेत्रों में दोनों पक्ष अपने-अपने रुख पर कायम रहे लेकिन जून 1962 में नेहरू ने बीजिंग के साथ राजनयिक चैनलों को सक्रिय करके सुलह संदेश भेजा लेकिन चीनी नेतृत्व ने सीमा विवाद पर किसी भी प्रकार की बातचीत से साफ इनकार कर दिया.
इसी बीच, झोउ ने बीजिंग में भारतीय चार्ज डी’अफेयर्स से कहा कि ‘चीन के पास इस बात के सबूत हैं कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए चीन के खिलाफ जघन्य गतिविधियों का वित्तपोषण कर रही है और हथियार और गाइडेंस भी मुहैया करा रही है. नेहरू को या तो पता नहीं है या फिर वे ऐसा जाहिर कर रहे हैं कि उन्हें चीन के खिलाफ इस तरह की गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. जबकि भारत ने चीन की जासूसी के लिए उसे आधुनिक उपकरण लगाने की अनुमति दी है.’
लेकिन नेहरू यही मानते रहे कि चीन हमला नहीं करेगा. 6 अगस्त 1962 को भारत में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत जॉन केनेथ गैलब्रेथ के साथ उनकी चर्चा से भी यही जाहिर होता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि नई दिल्ली और बीजिंग सीमा पर बातचीत की योजना बना रहे हैं और ‘किसी भारतीय एजेंसी ने चीनी सेना का कोई बड़ा सैन्य जमावड़ा नहीं देखा है.’
20 अक्टूबर 1962 को पीएलए ने भारत पर लद्दाख में और तत्कालीन नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी में मैकमोहन लाइन के पार हमला किया. इसे ब्रिगेडियर जॉन दलवी ने ‘द डे ऑफ रेकनिंग’ नाम दिया. ब्रिगेडियर दलवी को युद्धबंदी बना लिया गया था जिन्होंने बाद में एक युद्ध संस्मरण लिखा था.
लिंटनर के शब्दों में, ‘जब 20 अक्टूबर को अंतिम हमला हुआ, तो भारतीयों ने पाया कि चीनियों ने एक रात पहले उनकी सभी टेलीफोन लाइनें काट दी थीं. हमले की तैयारी के क्रम में चीनियों ने भारतीय सेना के पीछे ऊंची जगहों पर मोर्चा संभाल लिया था और यही वजह है कि हमले की सुबह ऊपर से हमले करने में सक्षम हो पाए.’
पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन अपनी पुस्तक हाउ इंडिया सीज द वर्ल्ड में लिखते हैं, ‘भारत ने मुख्यत: चीनी संस्कृति और उनके सोचने के तरीकों से अपरिचित होने के कारण एक अवांछित सशस्त्र संघर्ष की स्थिति में पाया.’
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष श्याम सरन लिखते हैं, ‘भारतीय नेता स्पष्ठ और परोक्ष संकेतों को समझने में नाकाम रहे, जिन्हें अगर सही ढंग से समझा जाता तो नतीजा अपमानजनक हार झेलने के बजाये कुछ और हो सकता था.’
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