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Thursday, 18 April, 2024
होमडिफेंस'अब कोई उस पार नहीं जाता'- 1962 के चीन युद्ध में सेना की मदद करने वाली भारत-तिब्बत जनजातियां कहां खो गईं

‘अब कोई उस पार नहीं जाता’- 1962 के चीन युद्ध में सेना की मदद करने वाली भारत-तिब्बत जनजातियां कहां खो गईं

मिश्मी और मेयर आदिवासियों ने 1962 के युद्ध में एलएसी के पास वालोंग की लड़ाई में भारत का साथ दिया था. भारत-चीन संबंधों में दरार पड़ने के साथ-साथ युद्ध ने जनजातियों की सदियों पुरानी जीवन शैली को भी बदल दिया.

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वालोंग, अरुणाचल प्रदेश: सैन्य आपूर्ति से लदा, ओटर लाइट ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट घने बादलों के बीच चक्कर काट रहा था. यह मुड़ा और फिर भारत के सबसे पूर्वी शहर वालोंग के एक छोटे लेकिन एडवांस लैंडिंग ग्राउंड को छूने के लिए तैयार हो गया. वालोंग जो अब नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (एनईएफए) के इलाके में आता है.

नीचे पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के साथ अस्तित्व के लिए चल रही एक बड़ी जोखिम वाली लड़ाई में भारतीय सैनिक बुरी तरह से घिरे हुए थे. मिशमी और मेयर जनजाति के लोग इन घटनाओं को उत्सुकता से देख रहे थे, वो कभी-कभी भारतीय सैनिकों का साथ भी देते थे. क्योंकि वे जानते थे कि लड़ाई का परिणाम उनकी नियति को आकार देगा.

समुद्र तल से 3,500 फीट ऊपर और विवादित भारत-चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह हवाई पट्टी अक्टूबर-नवंबर 1962 की वालोंग की लड़ाई के दौरान एक जीवन रेखा थी, जो चीन के साथ युद्ध में एकमात्र भारतीय पलटवार थी.

1962 में वालोंग में एडवांस लैंडिंग ग्राउंड (ALG)/ स्पेशल अरेंजमेंट

मिश्मी और मेयर जनजातियों के लिए चीनी घुसपैठ नई नहीं थी. वे इसे 1962 के युद्ध से पहले 50 से ज्यादा सालों से देखते आ रहे थे, वे जानते थे कि उत्तर में चीनी साम्राज्य उनकी भूमि पर दावा कर रहा है. 1910-1911 के बाद से इस किंग साम्राज्य के झंडे वालोंग के पास देखे जाने लगे थे, जो शाही ब्रिटेन के अधिकार को चुनौती दे रहे थे. चीनियों ने मिश्मी को तिब्बत में व्यापार करने से तब तक रोके रखा, जब तक कि उन्होंने किंग साम्राज्य के प्रति निष्ठा का वचन नहीं दिया.

आज युद्ध के 60 साल बाद आधुनिक अरुणाचल प्रदेश में लैंडिंग स्ट्रिप के ऊपर एक पहाड़ी पर बना वालोंग युद्ध स्मारक 6 कुमाऊं, 4 सिख, 3/3 गोरखा, 2/8 से 11वीं इन्फैंट्री ब्रिगेड के सैनिकों का सम्मान दे रहा है. गोरखा और 4 डोगरा रेजीमेंट, जिन्होंने चीनी सिपाहियों की भारी संख्या में होने के बावजूद हार नहीं मानी थी. 23 अक्टूबर और 16 नवंबर 1962 के बीच लगभग तीन सप्ताह तक उन्होंने बड़े पैमाने पर चीनी हमले को रोके रखा था, लेकिन फिर अंततः उन्हें पीछे हटना पड़ा.

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जहां तक मिश्मी और मेयर का सवाल है, वे युद्ध को लेकर अपने बड़े-बूढ़ों से सुनी कहानियों पर भरोसा करते हैं. क्योंकि इस लड़ाई के गवाह रहे बहुत से चश्मदीद अब नहीं हैं.

स्मारक से कुछ किलोमीटर दूर, 20 फुट की एक सीढ़ी से ही गांव की बेकरी तक पहुंचा जा सकता है. यहां से लोहित नदी भी दिखाई देती है. वालोंग के गांव बूरा (ग्राम प्रमुख) वेनोम्सो तमई बड़े ध्यान से चीजों को याद करने की कोशिश करते हैं और बताते हैं कि भले ही स्थानीय जनजातियां ज्यादा कुछ नहीं कर पाईं लेकिन उन्होंने भारतीय सैनिकों का साथ दिया था.

उन्होंने कहा, ‘युद्ध के दौरान मिश्मी और मेयर जनजातियों के स्थानीय लोगों ने हवाई पट्टी से सैन्य आपूर्ति को आगे के इलाकों तक पहुंचाने में मदद की थी. हालांकि, उस समय के अब बहुत कम लोग बचे हैं, लेकिन हमने इन सालों में कई किस्से सुने हैं.’

जिस चीज के बारे में कम बात की जाती है, वह यह है कि कैसे 1962 का भारत-चीन युद्ध तिब्बत के साथ संबंध रखने वाले मिश्मी और मेयर जनजातियों के लिए एक टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ.


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तिब्बत के साथ संबंध

बेकरी से निकलती एक संकरी गली गांव के बाजार की ओर जाती है, जहां बूंदा-बांदी से बचने के लिए रंग-बिरंगी छतरियों की एक लाइन के नीचे कुछ स्थानीय लोगों का एक ग्रुप युद्ध की कहानियों पर चर्चा कर रहा है. उनका दावा है कि चीनियों ने वालोंग में कभी किसी परिवार को नुकसान नहीं पहुंचाया, लेकिन ऐसी अफवाहें थीं कि कुछ गायों को चोरी कर सीमा पार ले जाया गया था.

बाजार से थोड़ी दूर पैदल चलने पर आप वालोंग के स्थानीय स्कूल के पीछे की ओर पहुंच जाएंगे. यह नदी के किनारे की हरी भरी खूबसूरत सी जगह है. यहां दिप्रिंट ने एक पूर्व क्षेत्रीय अधिकारी से मुलाकात की जो वालोंग के तिब्बत के साथ पुराने संबंधों के बारे बताते हैं.

वेनोम्सो तमाई, वालोंगो के गांव बूरा (ग्राम प्रमुख)/ सुचेत वीर सिंह/ दिप्रिंट

अपना नाम न छापे जाने की शर्त पर पूर्व अधिकारी ने कहा, ‘सीमा पार के लोगों के साथ मिश्मी और मेयर जनजातियों के परिवारिक और रिश्तेदारी के संबंध रहे. परंपरागत रूप से तिब्बत के लोग व्यापार और संस्कृति के लिए वालोंग आते थे. किसी के मरने पर किए जाने वाले तिब्बती रीति-रिवाजों पर चीन ने प्रतिबंधित लगाया हुआ था, इसलिए लोग यहां खासतौर पर आते और अपने अनुष्ठानों को पूरा करते.’

उन्होंने आगे बताया, ‘1962 के युद्ध के बाद यह सब काफी कम हो गया, लेकिन पूरी तरह से बंद नहीं हुआ. मगर जैसे ही 2020 में भारत और चीन के बीच सीमा पर तनाव बढ़ने लगा, तो सीमा पार से एक-दूसरे से संपर्क रुक सा गया है.’

जर्नल एशियन सर्वे में 2012 के एक पेपर में विद्वान दावन नोरबू बताते हैं कि कैसे 1962 के भारत-चीन युद्ध में तिब्बत ‘जोड़ने वाला धागा’ था. पचास के दशक की शुरुआत में शुरू हुआ चीनी कब्जे के खिलाफ तिब्बती प्रतिरोध आंदोलन को भारत का समर्थन मिलने के बाद से तनाव बढ़ गया था.

लेकिन इस भू-रणनीतिक रंगमंच के आकार लेने से बहुत पहले से मिश्मी और मेयर जैसी जनजातियों के तिब्बत के साथ सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध थे.

सदियों से इस इलाके के आदिवासी बिना किसी रोक-टोक के पूर्वी हिमालय और तिब्बत को पार करते रहो थे. सीमाओं के पार स्थित जनजातियों के बीच संबंधों को गहरा करने वाले इस क्षेत्र की मानव बस्तियों में एक परिवर्तनशीलता थी. यहां के लोग वहां और वहां के लोग यहां आकर बसते रहे.

जैसा कि लेखक और इतिहासकार बेरेनिस गियोट-रेचर्ड ने अपनी किताब शैडो स्टेट्स: इंडिया, चाइना एंड द हिमालयाज़, 1910-1962 में लिखा है, ‘माइग्रेशन कोई एक सामूहिक कदम नहीं था, बल्कि एक निरंतर, लंबी, छोटे पैमाने पर चल रही प्रक्रिया थी. प्रवास के साथ लोगों से संपर्क करना और बातचीत बढ़ाना शामिल था. लोगों ने रिश्तेदारों से मिलने, संबंध बनाने, शिकार की तलाश करने और सबसे बढ़कर व्यापार करने के लिए यात्रा की थी.’

इन समुदायों के लिए विरासत और भूगोल की सीमाएं धुंधली और अस्पष्ट थीं.

अंबिका अय्यादुरई और क्लेयर सेउनगेन ने एशियन एथ्नोलॉजी पत्रिका में 2017 के लेख में इन आदिवासियों के माइग्रेशन के पैटर्न के बारे लिखा था, यहां सीमा के भारतीय हिस्से में रहने वाले मिशमी जनजाती के लोगों के भीतर तीन उप-समूह हैं- इडु, डिगारू और मिजू. एक अन्य उप-समूह ‘देंग मिश्मी’ तिब्बत में ज़ायु काउंटी में चीनी हिस्से में रहता है.’

मेयर जनजाति का वंश तिब्बत से चलता आया है. गियोट-रेचर्ड लिखते हैं, ‘कई लोग 1943-44 में ‘गरीबी’ और ‘भारी करों’ से बचने के लिए ज़ायुल (आधुनिक तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र या टीएआर के निंगची प्रान्त में स्थित) में जाकर बस गए. जहां उनका व्यापार का संबंध था. मिश्मी समुदाय को पूरे पूर्वी हिमालय और तिब्बत में जहरीले व औषधीय पौधों को निकालने के लिए जाने जाते था.’

1962 के युद्ध ने पुराने संबंधों में दखलंदाजी की

1912 में किंग साम्राज्य के पतन के बाद, 1940 के दशक तक वालोंग क्षेत्र में चीनी साजिश कम हो गईं और हिमालय के भारतीय हिस्से से तिब्बत तक जनजातियों के बीच आपस में मिलना जारी रहा.

लेकिन 1950 के दशक में भारतीय और चीनी सीमा अधिकारियों के बीच सॉफ्ट पावर के लिए एक संघर्ष शुरू हो चुका था, जिसके बारे में गियोट-रेचर्ड ने अपनी किताब में विस्तार से लिखा है- जहां, चीनियों ने कई मिश्मियों को अपने स्कूलों की तरफ आकर्षित किया – जो न सिर्फ मुफ्त शिक्षा बल्कि भोजन और घर भी दे रहे थे- वहीं भारतीयों ने भी चिकित्सा और कृषि आपूर्ति देकर उन्हें अपनी तरफ रखने की कोशिश की थी.

जनजाति को अपनी तरफ लाने की ये प्यार भरी खींचातानी 1962 के बाद बंद हो गई.

गियोट-रेचर्ड ने लिखा, ‘मिश्मियों को घर जाने से रोक दिया गया था, सीमा पार से बातचीत बेहद मुश्किल हो गई, बिल्ड-अप (भारतीय) तेज हो गया था, भारतीय अधिकारियों ने ट्रांस-मैकमोहन लाइन एरिया के साथ संबंधों को सक्रिय रूप से हतोत्साहित करना शुरू कर दिया था. जो लोग इसके लिए अभी भी जोर दे रहे थे यानी उस तरफ आवा-जाही रखना चाहते थे, उन्हें पहले सैन्य और खुफिया एजेंसी से विशेष अनुमति लेनी होती थी.’

इसी तरह मेयर जनजाति के लिए सीमा पार आर्थिक व्यापार और सांस्कृतिक बातचीत 1962 के युद्ध के बाद काफी हद तक रुक गई.

लुप्त होती यादें

बेकरी में वापस आते हैं. वहां वेनोम्सो तमाई ने हमें बताया कि युद्ध से बचे हुए लोग बहुत कम हैं. लेकिन उनके योगदान को भुलाया नहीं गया है.

तमई का दावा है, ‘स्थानीय स्कूल के प्रिंसिपल रहे ताशी शेरिंग मेयर के पिता हवाई पट्टी से सैनिकों की ट्रांसपोर्ट सप्लाई में मदद करने वाले कुलियों में से एक थे.’

उन्होंने आगे कहा, ‘मिशमी और मेयर्स ने वेलोंग से वापसी के दौरान सैनिकों को खाना भी खिलाया था. और कई बार पहाड़ों से बाहर निकलने वाले रास्तों को बताने में उनकी मदद भी की थी.’

दिप्रिंट को मिले प्रशासनिक दस्तावेजों से पता चलता है कि मिश्मी समुदाय के 15-20 बचे लोग अभी भी अंजॉ जिले में रहते हैं. जिसके अंतर्गत वालोंग भी आता है.

स्थानीय लोगों का दावा है कि वालोंग से 20 किलोमीटर दूर एक छोटी सी बस्ती ‘कालिन’ में मिशमी समुदाय के कुछ लोग बचे हैं, जिन्होंने युद्ध के उस शोर को महसूस किया था. तमाई ने कहा, ‘हम नहीं जानते कि वे कुली थे या फिर युद्ध के सिर्फ एक गवाह. इसके अलावा, हम वास्तव में उस समय के किसी भी जीवित परिजनों के बारे में नहीं जानते हैं.’

एक डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक ने कहा, ‘अब कोई भी उस पार नहीं जाता है. ये वो किस्से हैं जिन्हें हम अपने माता-पिता से सुनते आए हैं. वे कहते हैं कि पास के छगलागाम गांव में कुछ मिश्मी के रिश्तेदार तिब्बत में हैं.’

जीने का एक तरीका और पूर्वी हिमालय के एक सांस्कृतिक संगम ने 1962 के युद्ध के साथ अपना धीमा सूर्यास्त देखा है.

जैसे ही बारिश कम हुई और धुंध छंटने लगी, तो युद्ध स्मारक पर लगी मूर्तियां गांव से नजर आने लगती हैं.

( इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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