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Thursday, 21 November, 2024
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शिंदे, उद्धव गुट को मिला नया नाम, पर आखिर क्या है ‘शिवसेना’ और उसके चुनाव चिह्न की असली कहानी?

शिवसेना के नाम और चुनाव चिन्ह को लेकर पार्टी के दो गुटों के बीच पिछले कुछ समय में खासी खींचतान चली है. लड़ाई का मूल कारण वह विरासत है जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं.

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मुंबई: 1960 के दशक की शुरुआत में मुंबई के शिवाजी पार्क के पास एक साधारण से एक-बेडरूम वाले घर में हर रोज बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना लगा रहता था. यह कुछ और नहीं बल्कि बाल ठाकरे का निवास था.

एक दिन, बाल ठाकरे के पिता केशव ठाकरे उर्फ प्रबोधनकर, जो एक समाज सुधारक और पत्रकार थे, ने उनसे पूछा कि घर में हर दिन आने वाले समर्थकों की बढ़ती भीड़ के पीछे क्या वजह है, और क्या वह किसी संगठन की स्थापना के बारे में सोच रहे हैं.

उस समय बाल ठाकरे का ‘माटी पुत्रों के लिए न्याय’ का अभियान उनके प्रकाशन मार्मिक में उनके कॉलम ‘वाचा अनी ठंडा बसा’ (पढ़ो और बैठो) के साथ गति पकड़ रहा था. इस अभियान को इतनी ज्यादा लोकप्रियता मिल रही थी कि युवा ठाकरे ने कहा कि वह इसे एक संगठनात्मक ढांचे में ढालने की सोच रहे हैं. उनके पिता ने सुझाव दिया कि वह संगठन का नाम शिवसेना रखें जो कि मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी और उनकी सेना से प्रेरित था. यह माटी पुत्रों यानी मराठी लोगों को न्याय दिलाने के लिए बनने वाले संगठन के लिए एक उपयुक्त नाम लग रहा था.

19 जून 1966 को बाल ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया, और फिर इस पार्टी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा…2022 तक, जब पार्टी के नाम और पहचान को लेकर दो गुटों के बीच रस्साकशी शुरू हुई.

प्रबोधनकर के पोते उद्धव ठाकरे ने रविवार को जब सोशल मीडिया के जरिये लोगों को संबोधित किया तो पार्टी की उत्पत्ति को लेकर एक किस्सा सुनाया, ताकि वह यह बता सकें कि शिवसेना का नाम न मिलने से उनका व्यक्तिगत तौर पर कितना नुकसान होगा.

भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने सोमवार को शिवसेना के दोनों प्रतिद्वंद्वी गुटों को नए नाम दिए, जिसमें एक का नेतृत्व महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे करते हैं और दूसरे का मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे. ये तब तक लागू रहेंगे जब तक चुनाव आयोग पार्टी के नाम और उसके चुनाव चिह्न धनुष-बाण को लेकर दोनों गुटों के बीच विवाद को सुलझा नहीं लेता.

चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को बालासाहेबंची शिवसेना (बालासाहेब की शिवसेना) नाम दिया है, जो शिवसेना संस्थापक की विचारधारा के ‘सच्चे उत्तराधिकारी’ होने के शिंदे के दावों को लगभग स्वीकार करता दिख रहा है. ठाकरे खेमे के लिए चुनाव आयोग ने ‘शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे)’ का नाम दिया है.

ये घटनाक्रम चुनाव आयोग की तरफ से शिवसेना के नाम और चुनाव चिह्न पर रोक लगाए जाने के दो दिन बाद का है और दोनों गुटों से चुनाव चिन्ह के साथ-साथ पार्टी के नाम के लिए तीन विकल्प सुझाने को कहा गया था.

दोनों ही पक्ष चुनाव आयोग के फैसले को अपनी जीत मान रहे हैं.

मुंबई की पूर्व मेयर और ठाकरे समर्थक किशोरी पेडनेकर ने 1979 का चर्चित मराठी गीत, ‘उषाकाल होता होता के साथ एक वीडियो ट्वीट किया, लेकिन इसके बोल ‘शिव सैनिकों के लिए’ बदल दिए.

पेडनेकर ने कहा, ‘काल रात्र होता होता, उषाकाल झाला, अरे पुन्हा शिव सैनिकन्नो पेटवा मशाला (एकदम अंधेरा था, प्रकाश नजर आया. हे शिव सैनिकों, मशालें जलाएं).’

शिंदे खेमे की तरफ से विधानसभा में गुट के मुख्य सचेतक भरत गोगावले ने टेलीविजन चैनलों से कहा, ‘हम संतुष्ट हैं कि हमें बालासाहेब का नाम मिला है. इस पर हमें लोगों की अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है. साहब ऊपर से हमें आशीर्वाद दे रहे हैं.’

आदेश शिंदे की अगुवाई में शिवसेना विधायकों के विद्रोह और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार गिरने के तीन महीने बाद आया है. बतौर मुख्यमंत्री शिंदे ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. इसके बाद शिंदे गुट ने असली शिवसेना और बाल ठाकरे की विचारधारा के सच्चे उत्तराधिकारी होने का दावा करते हुए चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया था.

नए नाम और प्रतीक चिह्न 3 नवंबर को अंधेरी पूर्व विधानसभा सीट के लिए एक महत्वपूर्ण उपचुनाव से ठीक पहले दिए गए हैं, जो कि सेना के दो-फाड़ होने के बाद पहला चुनाव है. यह बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) चुनावों सहित महाराष्ट्र में नागरिक निकाय चुनावों से पहले भी आया है, जो इस साल के अंत में या 2023 की शुरुआत में होने वाले हैं.


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उद्धव को जलती मशाल चुनाव चिह्न मिला

चुनाव आयोग ने सोमवार को दोनों समूहों को भेजे गए अलग-अलग पत्रों में कहा कि दोनों पक्षों को दिए गए नाम उनकी दूसरी पसंद थे क्योंकि पहली पसंद एक ही थी—’शिवसेना (बालासाहेब ठाकरे)’

ठाकरे समूह को चुनाव चिह्न के तौर पर जलती मशाल आवंटित की गई है. यह तीन प्रतीकों में से एक थी जो विकल्प ठाकरे गुट ने सुझाए थे (अन्य दो विकल्प त्रिशूल और उगता सूरज थे).

शिंदे खेमे ने त्रिशूल और उगते सूरज के साथ-साथ एक चुनाव चिह्न गदा भी प्रस्तावित किया था.

चुनाव आयोग ने दोनों गुटों को ‘धार्मिक कारणों’ का हवाला देते हुए त्रिशूल चुनाव चिह्न देने से इनकार कर दिया. शिंदे गुट को उसी कारण से गदा चिह्न नहीं मिल पाया.

उगता सूरज चुनाव चिह्न दोनों गुटों को देने से मना कर दिया गया क्योंकि यह द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) का पंजीकृत चुनाव चिन्ह है.

चुनाव आयोग ने शिंदे खेमे को मंगलवार सुबह 10 बजे तक तीन प्रतीकों की नई सूची सौंपने को कहा है.

शिवसेना और उसके प्रतीक

बाल ठाकरे ने 19 जून 1966 को शिवसेना की स्थापना की थी, लेकिन 23 साल बाद जाकर भारतीय निर्वाचन आयोग ने पार्टी को धनुष-बाण का स्थायी प्रतीक चिह्न आवंटित किया.

तब तक, उसने कई तरह प्रतीक चिह्नों पर चुनाव लड़ा जो चुनाव आयोग उसके उम्मीदवारों को आवंटित करता था, जिसमें तलवार और ढाल, दो ताड़ के पेड़, एक रेलवे इंजन, उगता सूरज और एक मशाल शामिल हैं.

1984 के लोकसभा चुनाव में एक समय शिवसेना के उम्मीदवारों ने भाजपा के कमल चिह्न पर भी चुनाव लड़ा था.

ठाकरे गुट के विश्वस्त और पार्टी के संस्थापक सदस्य दिवाकर रावते 1989 में शिवसेना को आवंटित प्रतीक चिह्न फिर से हासिल होने का कुछ श्रेय लेना चाहते हैं.

रावते उस समय महाराष्ट्र में मराठवाड़ा क्षेत्र के परभणी जिले के लिए पार्टी के संपर्क प्रमुख (मुख्य समन्वयक) थे. उन्होंने बताया कि 1989 के लोकसभा चुनावों के दौरान बाल ठाकरे ने शिवसेना के तीन उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का फैसला किया था—औरंगाबाद से मोरेश्वर साव, बॉम्बे साउथ सेंट्रल से वामनराव महादिक और मुंबई नॉर्थ सेंट्रल से विद्याधर गोखले.

राज्य के पूर्व मंत्री रावते ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं परभणी के लोगों की नब्ज अच्छी तरह जानता था. मैंने बालासाहेब से परभणी से एक चौथा उम्मीदवार भी उतारने को कहा. मैंने उनसे कहा कि मुझे पार्टी के समर्थन और हो सके तो बालासाहेब की रैली के अलावा और कुछ नहीं चाहिए. मैंने जीत की गारंटी दी.’

और वह अपनी बात पर खरे भी उतरे. तीन अन्य प्रत्याशियों के साथ चौथे उम्मीदवार अशोक देशमुख ने भी जीत हासिल की, और शिवसेना पर्याप्त वोट-शेयर हासिल करने और खुद को एक क्षेत्रीय पार्टी के तौर पर एक चुनाव चिह्न के साथ पंजीकृत कराने में कामयाब रही.

उन्होंने कहा, ‘परभणिकरों को पार्टी के लिए चुनाव चिह्न मिला है और चुनाव आयोग का अंतरिम आदेश उनके प्रयासों के लिए एक बड़ी सफलता है.’

ठाकरे खेमे के एक अन्य वरिष्ठ नेता रवींद्र मिरलेकर ने दिप्रिंट को बताया कि पार्टी ने धनुष-बाण का प्रतीक मांगा था क्योंकि यह ‘भगवान राम के शिव धनुष’ का प्रतीक था.

मिरलेकर ने कहा, ‘शिवसेना का आंदोलन शिव धनुष को उठाने जैसे लगभग असंभव कार्य रहा है.’

गौरतलब है कि हिंदू पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान राम ने राजा जनक के अपनी बेटी सीता के लिए आयोजित स्वयंवर में अपनी असाधारण शक्तियों को दिखाते हुए शिव के आकाशीय धनुष को तोड़ दिया था.


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चुनाव चिह्न के विकल्पों से भी जुड़ा है इतिहास

पार्टी नेताओं का कहना है कि ठाकरे खेमे ने चुनाव आयोग को पार्टी के प्रतीक चिह्न के तौर पर जो तीन विकल्प सौंपे, उनके पीछे भी कुछ इतिहास है.

पार्टी नेताओं ने बताया कि शिवसेना को महाराष्ट्र विधानसभा में उगते सूरज के चिह्न के साथ ही पहली जीत मिली थी, जब वामनराव महादिक ने 1970 में लालबाग-परेल निर्वाचन क्षेत्र के एक उपचुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उम्मीदवार सरोजिनी देसाई को मात दी थी और बाद में यह क्षेत्र शिवसेना का गढ़ बन गया.

पार्टी ने मशाल चुनाव चिन्ह पर भी चुनाव जीता है, जैसा कुछ नेताओं ने बताया कि छगन भुजबल ने शिवसेना विधायक के तौर पर मझगांव निर्वाचन क्षेत्र का चुनाव इसी चिह्न पर जीता था. भुजबल ने बाद में 1991 में समर्थकों के एक समूह के साथ शिवसेना के खिलाफ विद्रोह कर दिया और शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस में शामिल हो गए. 1999 में पवार के अपनी पार्टी गठित करने पर वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में चले गए.

रावते ने कहा, ‘शिवसेना के लिए प्रस्तावित प्रतीक चिह्न के तौर पर त्रिशूल नया है. केवल उद्धव साहब ही जानते हैं कि त्रिशूल क्यों है, लेकिन हमारा मानना है कि ठाकरे के विचारों में हमेशा क्रांति होती है.’

वहीं, मिरलेकर ने एक अलग ही व्याख्या की. उन्होंने सीएम शिंदे सहित शिवसेना के 40 बागी विधायकों का जिक्र करते हुए कहा, ‘हमें त्रिशूल की जरूरत है. क्योंकि 40 सिर वाले रावण को मारना है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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