क्या आस्था, धर्म और अध्यात्म पर मीडिया की रिपोर्टिंग निष्पक्ष है? यह दुनियाभर में कई लोगों के लिए चिंता का कारण है.
द फेथ एंड मीडिया इनीशिएटिव (एफएएमआई या फामी) नामक एक अमेरिकी समूह धर्म और आस्था से जुड़े मामलों की निष्पक्ष रिपोर्टिंग सुनिश्चित करके समाज में आई कड़वाहट और विभाजन को कम करना चाहता है.
इस समूह ने हारिक्स रिसर्च कंपनी के माध्यम से एक विशाल सर्वे करवाया. न्यूयॉर्क में आयोजित कॉनकॉर्डिया शिखर सम्मेलन में इसके निष्कर्ष जारी किए. इस सर्वे का उद्देश्य मीडिया कंपनियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना था कि वे धर्म और आस्था के कवरेज में सुधार लाएं.
हारिक्स रिसर्च कंपनी के सीईओ ड्रिटन नेशो, जिनसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी कभी परामर्श ले चुके हैं, ने दिप्रिंट से खास बात की.
शीला भट्ट: यह सर्वे किन देशों में और कितने लोगों के बीच हुआ?
ड्रिटन नेशो: द फेथ एंड मीडिया इंडेक्स स्टडी अपनी तरह की पहली स्टडी है. इसमें ये जानने की कोशिश की है कि आस्था और धर्म के बीच के संबंध कैसे हैं और इसका मीडिया कवरेज किस तरह का है. हमने दुनिया भर के 6 महादेशों के 18 देशों में करीब 9,500 लोगों से जवाब इकट्ठा किए. इस अध्ययन को हिंदी, अंग्रेजी, स्पेनिश, चीनी, फ्रेंच, अरबी भाषाओं में करवाया गया था और इसमें दुनिया के सभी प्रमुख धर्म शामिल किये गए हैं.
यह सर्वे इन देशों में आम लोगों की राय को सामने लाता है और फिर उनकी तुलना इन देशों के पत्रकारों के नजरिये से करता है.
यह सर्वेक्षण ऑनलाइन किया गया था और इसे गोपनीय रखा गया था.
साम्यवादी और सेक्युलर देश चीन में भी जवाब देने वाले ज्यादातर लोगों ने कहा कि वे आध्यात्मिक या आस्थावान (आस्तिक) हैं. हालांकि जरूरी नहीं कि वे धार्मिक ही हों. सर्वे के मुताबिक, भारत एक अत्यधिक धार्मिक देश है, जहां सर्वे में शामिल हर 10 में से 7 लोगों ने कहा कि वे या तो आध्यात्मिक या आस्तिक हैं या किसी धर्म या धर्म के किसी पंथ के प्रति विश्वास रखते हैं. चीन जैसे देश की सरकारी नीति के बावजूद, वहां ज्यादातर लोगों की व्यक्तिगत पहचान में धर्म प्रमुख है.
शीला भट्ट: और नाइजीरिया तो 100% धार्मिक है.
ड्रिटन नेशो: यह आश्चर्यजनक निष्कर्ष था क्योंकि वहां सर्वे में शामिल हर किसी ने कहा कि वे या तो आध्यात्मिक या आस्तिक या फिर धार्मिक हैं. दक्षिण नाइजीरिया के लोग ईसाई धर्म में गहरी आस्था रखते हैं, वहीं उत्तर नाइजीरिया में इस्लाम का बोलबाला है. आस्था और धार्मिकता नाइजीरियाई लोगों के मानो खून या डीएनए में रची-बसी है. इस अध्ययन में जहां एक तरफ नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका, भारत जैसे अत्यधिक धार्मिक देश हैं, तो मैक्सिको, इक्वाडोर और कनाडा जैसे मध्यमार्गी देश भी हैं. ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फ्रांस, स्पेन जैसे देश भी हैं जो काफी हद तक धर्मनिरपेक्ष या धर्म से दूरी बनाकर चलने वाले हैं. ज्यादातर देश इन तीन कटेगरी में फिट हो जाते हैं. मध्य पूर्व में हमने मिस्र (इजिप्ट) और संयुक्त अरब अमीरात को देखा. दोनों देश मध्यमार्गी हैं, लेकिन संयुक्त अरब अमीरात की तुलना में मिस्र अधिक धार्मिक है.
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शीला भट्ट: इस सर्वेक्षण के माध्यम से, इस ग्रह की किस प्रकार की तस्वीर उभर कर सामने आती है?
ड्रिटन नेशो: यह बहुत ही बढ़िया सवाल है. एक प्रमुख बात जो यह सर्वेक्षण कहता वह यह है कि मीडिया को ‘आस्था और धर्म’ के इर्द-गिर्द रूढ़िवादी धारणाओं (स्टीरिओटाइप) को बनाये रखने वाले के रूप में देखा जाता है. वैश्विक आधार पर 61% उत्तरदाताओं का कहना है कि उन्होंने धर्म के बारे में मीडिया में व्याप्त रूढ़िवादी धारणाओं का सामना किया है और इस बात पर लगभग सार्वभौमिक सहमति है. दुनिया भर में 78% उत्तरदाताओं का कहना है कि इन रूढ़िवादी धारणाओं का लिंग और नस्ल, जो विविधता, समानता और समावेश के मूल तत्व है, से संबंधित रूढ़िवादी धारणाओं के समान स्तर पर या उससे भी अधिक प्रबलता के साथ सामना किये जाने आवश्यकता है. इसलिए यह अध्ययन इस मायने में उल्लेखनीय है कि विभिन्न देशों में रूढ़िवादी धारणाओं के इर्द-गिर्द उठाई जा रही चिंताओं और रूढ़िवादी धारणाओं से लड़ने के लिए व्यक्त की जा रही आवश्यकता और तड़प के संबंध में किस हद तक अनुरूपता है.
शीला भट्ट: इसका डेटा भारत के बारे में क्या बताता है?
ड्रिटन नेशो: मैं कहूंगा कि जैसा कि हम सभी जानते हैं भारत में बहुत अधिक वैविध्य है, आस्था और धर्म तथा एक देश के रूप में इसकी संरचना दोनों के संदर्भ में, और फिर भी भारत के भीतर से मिले उत्तरों में एक उल्लेखनीय एकता और स्थिरता है. हिंदुओं के दृष्टिकोण से और भारत में और उससे परे के मुसलमानों के नजरिये से भी. इसलिए, मुझे लगता है कि हमारा डेटा भारतीयों के बीच इस बात की आम सहमति के इर्द-गिर्द एक बहुत ही दिलचस्प तस्वीर पेश करता है कि ये सार्वजनिक महत्व के मुद्दे हैं और आस्था तथा धर्म और इससे संबंधित मुद्दों को उचित तरह से प्रतिबिंबित किये जाने को न्यूज मीडिया के अंदर उच्चतम स्तर पर हल किया जाना चाहिए.
शीला भट्ट: अनुचित रिपोर्टिंग किस तरह से दुनियाभर के लोगों के दैनिक जीवन को प्रभावित करती है?
ड्रिटन नेशो: देखिये, दुनियाभर में 43% उत्तरदाताओं का कहना कि उनकी आस्था का वर्तमान कवरेज उनकी परेशानी और चिंताओं को बढ़ावा देता है. अब यह बहुमत की राय तो नहीं है, लेकिन अगर आपके दस में से चार दोस्त आपको बता रहे हैं कि वे किसी चीज को लेकर चिंतित हैं, तो आप निश्चित रूप से उनकी बात पर ध्यान देंगे. इस वजह से यह एक ध्यान आकर्षित करने वाला निष्कर्ष है क्योंकि यही चिंता फिर उनके दैनिक जीवन में भी पैठ बना लेती है.
शीला भट्ट: आपके लिए आपके अध्ययन की मुख्य बात क्या थी?
ड्रिटन नेशो: दो बहुत ही आश्चर्यजनक निष्कर्ष थे. पहली वह परिमाण (डिग्री) है जिस हद तक आस्था और धर्म को कवर करने में आने वाली समस्याओं को न्यूज़ रूम में स्वीकार किया जाता है. पत्रकार इस बात लेकर बहुत खुले थे कि धर्म के इस प्रकार के कवरेज को और अच्छी तरह से करने के साथ काफी अहम समस्याएं हैं.
दूसरा आश्चर्यजनक निष्कर्ष था डेटा की निरन्तरता. आमतौर पर, किसी भी वैश्विक अध्ययन में, निष्कर्ष काफी हद तक बिखरे होते हैं. ऐसा कोई ट्रेंड (रुझान) या मोटिव (मकसद) नहीं होता है, जिस पर आपको कड़ी मेहनत न करनी पड़े. इस मामले में यह एकदम उल्टा था. चाहे आप कहीं भी हों, इस बात को लेकर सार्वभौमिक सहमति है कि आस्था और धर्म मानवीय पहचान का एक हिस्सा ही हैं. आम सहमति है कि मीडिया किसी व्यक्ति के आस्था और धर्म को सही तरह से दर्शाने के लिए नियमित आधार पर अच्छा काम नहीं कर रहा है और वास्तव में यह रूढ़िवादी धारणाओं से लड़ने के बजाय उन्हें कायम रख रहा है- 61% लोगों ने ऐसा ही कहा है. और इस बात पर सार्वभौमिक सहमति है कि इस मसले को अभी संबोधित किये जाने की आवश्यकता है. लेकिन ये निष्कर्ष इस अर्थ में रचनात्मक है कि वे इस बात को लेकर कई समाधानों की ओर इशारा करते हैं कि इसे कैसे करना है.
शीला भट्ट: जैसे कि..
ड्रिटन नेशो: धार्मिक संगठनों के बेहतर प्रवक्ता, नियमित रिपोर्टिंग में आस्था और धर्म की अधिक स्वीकृति, भले ही यह समाज या राजनीति या किसी अन्य कोण के बारे में हो और इसी तरह आगे और भी सुझाव हैं. इसलिए यह एक ऐसा अध्ययन है जो चुनौतियों का एक समुच्चय पेश करता है, लेकिन उन चुनौतियों का समाधान करने के जरूरी तरीके पर आगे बढ़ने की राह भी दिखाता है. न्यूज रूम को धर्मों से जुड़े मामले के एक संपादक की आवश्यकता है. लोग सोचते हैं कि जेनरलिस्ट (सभी मामलों के जानकार!) आस्था और धर्म के मामले में गलती करने से डरते हैं, यही बात पत्रकारों ने भी कही है.
शीला भट्ट: क्या यह रूढ़िवादी लोगों की आवाज का अध्ययन नहीं है? कट्टरपंथी लोग अक्सर किसी उदार पत्रकार की रिपोर्टिंग को नापसंद करते हैं.
ड्रिटन नेशो: लेकिन जब आप इनमें से प्रत्येक देश में रूढ़िवादियों बनाम उदारवादियों बनाम नरमपंथियों या स्वतंत्र लोगों के अनुपात को देखते हैं और इसे स्थानीय संदर्भ में परिभाषित करते हैं, तो इस अध्ययन से जो निष्कर्ष निकलते हम देख रहे हैं, वे उन वैचारिक विभाजनों से परे हैं क्योंकि वे आम सहमति के निष्कर्षों में बहुसंख्यक राय वाले हैं. आप यह नहीं कह सकते कि दुनिया की 78% आबादी रूढ़िवादी है इसलिए वे रूढ़िवादी धारणाओं से लड़ना चाहते हैं, या 60% लोग रूढ़िवादी हैं इसलिए वे इससे लड़ रहे हैं. इसलिए यह बात राजनीतिक संबद्धता से परे चली जाती है, यह विचारधारा से परे राजनीतिक स्पेक्ट्रम की आम सहमति वाले दायरे में चला जाता है, सभी तरह के वैचारिक स्पेक्ट्रम में यह राय है कि एक (धर्म से संबंधित मामलों की रिपोर्टिंग) और बेहतर काम किये जाने की आवश्यकता है. इसलिए, मुझे आपके साथ इस विशिष्ट विश्लेषण को साझा करने में खुशी हो रही है. मिसाल के तौर पर, हम अच्छी तरह से जानते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका में रूढ़िवादी लोगों की संख्या लगभग 40% हैं, नरमपंधी लगभग 30% हैं और उदरवादियों का हिस्सा लगभग 30% हैं, लेकिन हमारे निष्कर्ष इससे काफी अधिक हैं.
इस बात को लेकर एक वैश्विक सहमति है कि मीडिया को धर्मों के प्रति अपने कवरेज में सुधार लाने की आवश्यकता है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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