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Friday, 22 November, 2024
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पति-पत्नी को साथ रखने के लिए अदालतों को अधिकार देने वाले कानून का केंद्र करता है समर्थन

यह तर्क देते हुए कि वैवाहिक अधिकारों का उपाय 'जेंडर-न्यूट्रल' है, केंद्र ने प्रस्तुत किया कि साथ रहने के अधिकार को अंतरंग व्यक्तिगत पसंद पर एक जरूरी उपाय कहना 'यूटोपियन' है.

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नई दिल्ली: कानून के प्रावधानों का समर्थन करते हुए, जो एक अदालत को एक पुरुष या महिला को अपने पति या पत्नी के साथ रहने का निर्देश देने की शक्ति प्रदान करता है, केंद्र सरकार ने सोमवार को एक प्रस्तुतीकरण में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के प्रावधानों का उद्देश्य शादी और परिवार संस्था की रक्षा करना है.

केंद्र ने कहा कि रंजिश में रह रहे जोड़े वैवाहिक समस्याओं के समाधान खोजने के लिए इस उपाय का उपयोग करते हैं, जो इतनी गंभीर नहीं हो सकती है, और ‘वैवाहिक जीवन के सामान्य टूट-फूट को दूर करने के लिए’, यह कहते हुए कि यदि मतभेदों को सुलझाया नहीं जा सकता है, तो युगल तलाक लेने का विकल्प चुन सकते हैं.

केंद्र की दलील सोमवार को उन प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के जवाब में थी जो वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अनुमति देते हैं. चुनौती के तहत प्रावधान, जो हिंदू विवाह एक्ट, विशेष विवाह एक्ट और नागरिक प्रक्रिया संहिता का हिस्सा हैं, एक पति या पत्नी को दूसरे पति या पत्नी को उनके साथ रहने के लिए मजबूर करने को लेकर अदालत जाने की अनुमति देता है.

ये प्रावधान अनिवार्य रूप से एक ऐसे वैवाहिक अधिकार को मान्यता देते हैं – एक साथ रहने का अधिकार (सहवास) और साहचर्य. इस संबंध में अदालत के निर्देश की अवहेलना करने पर संपत्ति की कुर्की जैसे बलपूर्वक उपाय किए जा सकते हैं.

इन प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका का विरोध करते हुए, केंद्र सरकार ने विवाह को ‘आपसी दायित्वों की संस्था’ कहा और दावा किया कि ‘वैवाहिक अधिकारों की बहाली की मंशा विवाह की संस्था को संरक्षित करना है.’

केंद्र ने तर्क दिया कि बहाली का उपाय विवाह और परिवार की संस्था की रक्षा करता है, जो कि विधायिका की ‘बाध्य संवैधानिक कर्तव्य’ है.


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इसने कहा, ‘वैवाहिक अधिकारों की बहाली के उपाय का मकसद अलग-अलग रंजिशजदा को साथ लाना है और यह विवाह के टूटने को रोकने में मदद के तौर पर एक सामाजिक उद्देश्य को पूरा करता है. इसके अलावा पुनर्स्थापन का उपाय विवाह को टूट से रोकने के उद्देश्य से कार्य करता है.’

केंद्र ने शीर्ष अदालत को भी बताया, ‘दाम्पत्य अधिकारों की बहाली का उपाय, एक सकारात्मक, उपयोगी और व्यावहारिक वैवाहिक उपाय है, दोनों पति-पत्नी के लिए समान और वैधता के साथ उपलब्ध हैं.’

इस मामले में याचिका फरवरी 2019 में गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (GNLU) के छात्रों द्वारा दायर की गई थी, जिसमें वैवाहिक अधिकारों की बहाली की इजाजत देने वाले कानूनी प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी.

याचिकाकर्ताओं ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9, विशेष विवाह अधिनियम की धारा 22 और नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश 21, नियम 32 और 33 की वैधता पर सवाल उठाया था- ये सभी प्रावधान एक अदालत को बहाली का आदेश पारित करने में ताकतवर बनाते हैं. दो पत्नियों में से किसी एक द्वारा दायर याचिका पर वैवाहिक अधिकारों का, और इस तरह के आदेश को लागू करना.

‘जेंडर न्यूट्रल’

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 एक अदालत को वैवाहिक अधिकारों की बहाली का निर्देश देने वाला आदेश पारित करने की अनुमति देती है.

केंद्र ने प्रावधान के इस हिस्से पर यह जोर दिया है कि ‘निष्पक्षता और तर्कसंगतता’ सुनिश्चित करते हुए यह अदालतों को तय करना है कि ‘वाजिब कारण’ क्या है. इसने 1984 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया है जिसने इस प्रावधान को बरकरार रखा था.

इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने आगे आरोप लगाया है कि यह प्रावधान ‘महिलाओं के प्रति बहुत ही भेदभावपूर्ण’ है, और ‘प्रावधान के प्रत्यक्ष और अनिवार्य प्रभाव को भारतीय समाज के भीतर व्याप्त गहरी असमान पारिवारिक शक्ति संरचनाओं के मद्देनजर देखा जाना चाहिए’.

इन तर्कों पर बहस करते हुए, केंद्र ने कहा है कि वैवाहिक अधिकारों का उपाय ‘जेंडर-न्यूट्रल’ है और इसका इस्तेमाल पतियों के साथ-साथ पत्नियों द्वारा भी किया जाता है.

याचिकाकर्ताओं ने प्रावधानों की वैधता को चुनौती देते हुए यह भी कहा कि किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी अन्य व्यक्ति के साथ रहने का निर्देश देना निजता के अधिकार का उल्लंघन है. याचिका में तर्क दिया गया है कि ‘दूसरे के साथ रहने या सेक्स करने का अधिकार एक ‘अंतरंग निजी पसंद’ है.’

हालांकि, केंद्र ने अपने सबमिशन में कहा कि साथ रहने के अधिकार को अंतरंग व्यक्तिगत पसंद पर एक अनिवार्य उपाय कहना ‘पूरी तरह से गलत, भ्रामक और काल्पनिक’ है, यह कहते हुए किप्रावधान एक ‘सकारात्मक, व्यावहारिक और सहज वैवाहिक उपाय तय करता है.

सबमिशन में कहा गया है, ‘विवाह की संस्था को जारी रखना या कम से कम उस पर एक ईमानदार प्रयास करना, राज्य हित को वैध बनाता है.’

इसने यह भी बताया कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अनुमति देने वाले समान प्रावधान अन्य धर्म-विशिष्ट कानूनों का हिस्सा हैं जैसे पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936, और तलाक अधिनियम 1869 जो ईसाइयों पर लागू होता है.

इसलिए, केंद्र ने जोर देकर कहा कि ‘वैवाहिक अधिकारों का उपाय विवाह कानूनों के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ तालमेल बिठाता है और यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त चेक और बैलेंस देता है कि यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन न करने के लिए उचित और तार्किक है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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